कमला आडवाणी – एक पहचान

घर-गृहस्थी तो कमला जी ने ही संभाली थी। आडवाणी जी उनका सहयोग करने में प्रसन्न होते। ….दाम्पत्य के इस मर्म को समझना होगा कि एक दूजे के लिए समर्पित जीवन जीते हुए भी अपनी-अपनी पहचान बनाए रखी जा सकती है। कमला आडवाणी जी की अपनी भी एक पहचान थी।

स्वर्गीय कमला आडवाणी के जीवन को एक कुशल गृहिणी और सजग नागरिक के रूप में देखा जा सकता है। वे श्री लालकृश्ण आडवाणी जी की धर्मपत्नी, प्रतिभा और जयंत की मां, गीतिका की सास और नव्या की दादी के रूप में जानी जाती थीं। लेकिन उनका संसार इतना ही बड़ा नहीं था और इतने छोटे परिवार से उनका सम्बंध नहीं था। यह सत्य है कि अपने घर-गृहस्थी के संचालन में उनका कुशल नेतृत्व प्रगट होता था। घर के कोने-कोने में रखी मूर्तियां और साज-सज्जा के सामान भी बिना उनकी आज्ञा के नहीं हिलते-डूलते थे। ऐसी उनके साथ बैठने वाले लोगों की अनुभूति होती थी। घर छोटा (पंडारा रोड, दिल्ली) हो या बड़ा (पृथ्वीराज रोड) उनके लिए उनका घर एक संसार था। जिनमें आने वाले बड़े-बड़े अतिथि, राजनीतिज्ञ, साहित्यकार, राजनयिक और पार्टी कार्यकर्ता। अधिकांश लोग उनके पति श्री लालकृश्ण आडवाणी जी से मिलने आते थे। लेकिन शायद ही कोई ऐसा हो जो कमला जी के बारे में न पूछता/पूछती हो। उनसे मिलने की इच्छा न जाहिर करता/करती हो। अकसर वे आडवाणी जी के साथ ही बैठी मिलती थीं। कुछ खाने के लिए आगंतुकों से आग्रह करती थीं। ना कहने पर कहां छोड़ने वाली थी। कड़क आवाज में बोलती थीं- “क्यों नहीं खाना। खाओ। चखो तो।” सामने बैठने वाले को उस कड़क आवाज के भीतर छुपी ममता की कोमलता का एहसास होता था। वे नारियल फल के समान थीं। ऊपर से थोड़ा रूखड़ा दिखकर भी अंदर ही अंदर रसवंती। अपने पति की चिंता करते हुए देख कर वहां बैठी महिला कुछ न कुछ सीख कर ही जाती थीं। अकसर आडवाणी जी से बात करती वे सिंधी भाषा का प्रयोग करती थीं। हम उनके वार्तालाप का मर्म समझ जाते थे। आडवाणी जी के सुविधा-असुविधा का ध्यान रखती कमला जी उन्हें कुछ भी वैसा नहीं करने देती थीं, जिससे उनके शरीर में थकान बढ़े या मन अस्वस्थ हो। आडवाणी जी सिर नीचा करके हिलाते हुए पत्नी की बात मान लेते थे। एक बार मैंने कमला जी से कहा था- “अब आप हमारे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पर हुकूम नहीं चला सकतीं।” उन्होंने भी विनोद में ही कहा- “ले जाओ अपने अध्यक्ष को, पार्टी कार्यालय में ही रखो।” कैसे कोई विलग कर सकता था आडवाणी जी को कमला जी से।

भारतीय द़ृष्टिकोण में दांपत्य की परिभाशा पर खड़ा उतरता था वह दांपत्य। चुनाव के दिनों की भागदौड़ हो या आडवाणी जी द्वारा निकाली कष्टसाध्य यात्राएं, कमला जी हर वक्त साथ रहती थीं। एक पल श्रम बूंदों से सिंचित उनके लाल चेहरे को देखकर चिंतित होतीं तो दूसरे ही पल सामने उमड़े अथाह मानव समुद्र के द्वारा आडवाणी जी को मिले सम्मान को वे स्वयं भी ओढ़ लेतीं। आडवाणी जी को मिले सम्मान की वे सही अधिकारिणी थीं।

अपने पति जनप्रिय लालकृष्ण आडवाणी जी की पार्टी के प्रति निष्ठा, देश के प्रति प्रेम और जनता के प्रति ईमानदार नीयत का उन्हें विश्वास था और अभिमान भी। उनसे मिलने वाले को उनके मुख से अकसर सुनना पड़ता- “आडवाणी कोई भी गलत काम नहीं कर सकते।” सुनने वाले भी गद्गद् हो जाते। एक सहधर्मिनी के पति के प्रति अटूट विश्वास की छुअन से। दोनों बच्चों को शिक्षा से भी अधिक संस्कार देने में दोनों लगे रहते। प्रतिभा को बचपन से अपने दादा के साथ पढ़ाई करते हुए मैंने देखा था। मैं कहा करती थी- “दल की बड़ी जिम्मेदारी संभालते हुए आडवाणी जी ने घर का दायित्व नहीं छोड़ा।”

घर-गृहस्थी तो कमला जी ने ही संभाली थी। आडवाणी जी उनका सहयोग करने में प्रसन्न होते। प्रतिभा और जयंत के सुसंस्कृत व्यवहार से उनसे मिलने वाले सभी लोग खुश होते। बोलकर या मन ही मन धन्यवाद तो कमला जी को ही जाता था।
उन दिनों भा.ज.पा. के राष्ट्रीय अध्यक्ष आडवाणी जी भी ट्रेन से ही सफर करते थे। एक बार हम दिल्ली से बेंगलुरू जा रहे थे। लम्बी यात्रा थी। दो डिब्बे आरक्षित थे। कमला जी और उनके बच्चे भी साथ थे। प्रत्येक जंक्शन पर पहले से ही आडवाणी जी के भाषण के लिए व्यवस्था की हुई होती थी। आडवाणी जी एक गेट से नीचे उतरते थे। प्लेटफार्म पर जाकर भाषण देते थे। और दूसरे गेट से हमारे लिए ढ़ेर सारी खाद्य सामग्रियां अंदर आ जाती थीं। भांति-भांति के भोज्य पदार्थ। मैंने कमला जी से कहा – “इस यात्रा में हमारे साथ एक ही व्यक्ति हैं जो मजदूरी करते हैं और हम लोग उनकी कमाई खाते हैं।” कमला जी मेरी बात को कुछ देर से समझीं। फिर अपनी बड़ी-बड़ी आखें दिखाती हुई बोलीं- “अच्छा आडवाणी जी आपके मजदूर हैं?” आडवाणी जी वहीं बैठे थे। मैंने कहा कि भाषण देकर तो यही आते हैं। उस यात्रा और वैसी कई यात्राओं में काफी मनोविनोद भी होता था। कमला जी को ट्रेन यात्रा में भी आडवाणी जी की नींद, भोजन और आराम का ख्याल करते हुए देखा था। जब कभी वे स्वयं यात्रा पर नहीं जातीं, सभी सहयोगी कार्यकर्ताओं को हिदायतें देतीं थीं- “उन्हें कोई कष्ट नहीं होना चाहिए।” कार्यकर्तागण उनकी सीख और हिदायतों को पूरा सम्मान करते। प्रतिभा और जयंत पर उन्हें अटूट विष्वास था। पिता की देखरेख में उन्हें भेजती। सुखद लगता था। मैं आडवाणी जी के साथ महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष थी। मैं कार्यकर्ताओं को कहा करती थी- बीजेपी की अध्यक्षता में आडवाणी जी के साथ मेरा 50-50। एक बार हम मथुरा में साथ-साथ भोजन के लिए जमीन पर बैठे। मेरे और कमला जी के बीच में आडवाणी जी बैठे थे। भोजन परोसने वाली ने उनकी थाली में बड़ी दो मिठाइयां रख दीं। जब तक कमला जी उस कार्यकर्त्री को बड़ी मिठाइयां डालने के लिए कुछ कहतीं, मैंने एक मिठाई उठा कर अपनी थाली में रख ली। कुछ ही क्षणों में कमला जी की नजर थाली पर गई तो एक मिठाई गायब थी। मैंने हंसते हुए कहा- “अध्यक्षता में 50-50 है। इसलिए एक मिठाई मैंने ले ली।” कमला जी प्रसन्न हो गई। उन्हें आडवाणी जी का उतना भी कष्ट कहां बर्दाश्त था।

स्वर्गीय कमला आडवाणी का साम्राज्य बहुत बड़ा था। बहुत बड़ी मित्र मंडली थी। एक बार की बात है। मुझे सुबह नौ बजे ही आडवाणी जी से मिलने उनके घर पर जाना था। तैयार होने में थोड़ी देर हो गई। मैं शीघ्रता से सीढ़ियां उतरने लगी। मेरी बहू संगीता ने रसोईघर से ही आवाज लगाई -“थोड़ा रुकिए।” सचमुच थोड़ी ही देर में वह एक डिब्बे में गर्म-गर्म पोहा, केला और पानी लेकर आ गई। कहा- “रास्ते में खा लीजिए।”

मेरे कमला जी के घर पहुंचने पर दोनों नास्ते के टेबल पर बैठे थे। मुझे वहीं बुला लिया। मैं एक कुर्सी खींचकर बैठ गई। जब मेरे सामने कमला जी ने प्लेट बढ़ाया, मैंने कहा-“मैं नास्ता करती आई हूं। मैंने उन्हें सारा वृतान्त बताया। वे खुश हुईं। आडवाणी जी से सिंधी में कुछ कहने लगीं। आडवाणी जी सिर हिला रहे थे। मैं समझ गईं, वे मेरी बहू की प्रशंसा कर रहीं थीं।

इधर दो-तीन वर्षों से उनका स्वास्थ्य गिर रहा था। फिर भी वे घर में सक्रिय दीखती थीं। गोवा की राज्यपाल बनने पर मैं उनके घर गई। मा. आडवाणी जी से बातें हुईं। सदा की तरह कमला जी से मिलने की मैंने इच्छा प्रगट की। आडवाणी जी स्वयं मुझे लेकर अंदर गए। कमला जी से बोले-“मृदुला आई है। अब यह गोवा गर्वनर हो गई है। उनकी नजरें मुझे पहचानने की कोशिश कर रही थीं। नहीं पहचान पाईं। दूसरी बार जाने पर फिर मिलने गई। आडवाणी जी और प्रतिभा मुझे उनके पास ले गईं। उन्होंने पहचान लिया। कुछ देर बैठकर मैं प्रतिभा द्वारा मां को बहलाने, खेलाने का द़ृश्य देखती रही। ठीक वैसे ही जैसे वे अपनी नन्हीं भतीजी नव्या को खेलाती है। सुखद लग रहा था। मैं चलने के लिए उठने लगी। कमला जी ने मेरा हाथ पकड़ कर बैठाया- “बैठो अभी।” मैं बैठ गई। वे अपने पुराने रूआब में आ गई थीं। उनकी झिड़की भी हमें मीठी लगती थी।

पिछले वर्ष मैंने गोवा के राजभवन में आम के पेड़ों पर लगे आम दिल्ली भी भेजे थे। जब आडवाणी जी के घर पर आम भेजना था, मैंने पता लिखवाया -“श्रीमती कमला आडवाणी, 30 पृथ्वीराज रोड।”

आम का बॉक्स पहुंचा। प्रतिभा ने खुलवाया। मुझे अविलंब फोन किया। उसने कहा-“मम्मी को जब बताया कि आम का बॉक्स उनके नाम आया है तो वे बहुत खुश हुईं।”

प्रतिभा भी प्रसन्न थी। मैंने कहा-“घर का साम्राज्य तो उन्हीं का है न!”
“हाँ! आँटी। आपने मम्मा का नाम लिख कर बड़ा अच्छा किया।”

कमला जी नहीं रहीं। उस रात को मेरे बेटे नवीन ने बताया-“कमला आंटी जी नहीं रहीं। अंकल बच्चों की तरह रो रहे थे।”
कमला जी का पार्थिव शरीर पृथ्वीराज रोड, नई दिल्ली पर ही था। मानो उस प्रांगण की जान निकल गई हो। जान ही तो थीं कमला जी। अपने प्राणनाथ और प्रांगण की भी।

अपने वजूद को बचाए रख कर भी वे आडवाणी जी के साथ दो शरीर एक प्राण हो गई थीं। उनके जीवन की कहानी युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा ही बनेगी। दाम्पत्य के इस मर्म को समझना होगा कि एक दूजे के लिए समर्पित जीवन जीते हुए भी अपनी-अपनी पहचान बनाए रखी जा सकती है। कमला आडवाणी जी की अपनी भी एक पहचान थी।
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