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अध्यात्म एवं सेवा

अध्यात्म एवं सेवा

by वीरेन्द्र याज्ञिक
in मई २०१६, सामाजिक
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अध्यात्म का अर्थ है अपने स्वयं के अतंर देवत्व की खोज और दूसरे को देवता मान कर उसकी सेवा और अर्चना! …भारत की उन्नति, प्रगति तथा उत्कर्ष के मूल में सेवा की सबसे प्रमुख भूमिका होगी।

भारत की जीवन पद्धति के मूल में अध्यात्म है। अध्यात्म का अर्थ है आत्मनि अधि अर्थात अपने भीतर। मानव शरीर के अंदर की जो भी भाव स्थितियां हैं वह अध्यात्म है। शरीर में दो प्रकार की भाव स्थितियां होती हैं-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर लेकिन उसके विपरीत गुणों के रुप में शांति, करुणा, दया, त्याग, प्रेम, सहिष्णुता सहयोग की भावना भी मानव के स्वभाव का दूसरा पहलू है। जब मानव काम, क्रोध, लोभ, मोह, अंहकार से ग्रस्त होकर कोई कार्य करता है तो वह आध्यात्मिक ताप होता है, जिसकी परिणति दु:ख तथा निराशा में होती है, किन्तु जब मनुष्य में करुणा, दया, त्याग की भावना जागृत होती है और उससे प्रेरित होकर जब वह कोई कार्य करता है, तो उससे जो आनंद या प्रसन्नता मिलती है, वह आध्यात्मिक सुख कहलाता है। अतएव भारतीय चिंतकों तथा वैदिक ऋषियों ने मानव जीवन को सुखी और शांतिपूर्ण बनाए रखने के लिए दैव आध्यात्मिक स्तर पर मनुष्य की चेतना को विकसित करने का प्रयास किया है। जीवन में आध्यात्मिक ताप से दैव मुक्त रहे और आध्यात्मिक दृष्टि से अर्थात आंतरिक रुप से मनुष्य सदैव नि:श्रेयस भाव से अपने अभ्युदय के मार्ग पर चले, यही भारतीय संस्कृति और जीवन दर्शन का मूल आधार रहा है। यही कारण है कि भारतीय मनीषा में सदैव मानव आध्यात्मिक उत्कर्ष को सबसे अधिक महत्व दिया गया है।

सुप्रसिद्ध विधि विशेषज्ञ एवं चिंतक श्री लक्ष्मीमल सिंघवी के अनुसार “अध्यात्म का गंतत्य एवं मंतत्य है, शुद्ध चेतना में अवगाहन तथा सत्य का साक्षात्कार।” शुद्ध चेतना में अवगाहन का उद्देश्य है अपने ‘स्व’ में प्रतिष्ठित होना, तभी तो प्राचीन ऋषि कहता है ‘आत्मान विद्धि’ स्वयं को जानो। यह स्वयंं को जानना, जीवन के मूल सत्व में, स्नोत में प्रतिष्ठित होना है। स्वयं के साथ मित्रता करके सत्य का साक्षात्कार किया जा सकता है। हमारे जितने भी धार्मिक ग्रंथ हैं, उन सभी के मूल में व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्कर्ष की कामना ही है, चाहे वह श्रीमद् भागवत हो, या रामायण हो या फिर महाभारत का विशाल ग्रंथ ही क्यों न हो। इन ग्रंथों में जितने भी कथानक हैं, उन सभी का अंतिम संदेश यही है कि मानव स्वयं को जाने और फिर जैसा स्वयं के प्रति दूसरों से व्यवहार की कामना करता है, वैसा ही व्यवहार वह दूसरों से करें। यही आध्यात्मिक दृष्टि है। मानव का प्रकृति और सृष्टि के साथ तादात्म्य तथा उसके साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार ही अध्यात्म का अभीष्ट है। वैदिक ऋषि का आहवान है-

मित्रस्त्र मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीशन्ताम
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे

सम्पूर्ण प्राणीमात्र मुझ से मित्र भाव रखें, तथापि मेरा भी यही कर्तव्य है कि मैं भी सम्पूर्ण सृष्टि तथा प्रकृति के प्रति मित्रता का भाव रखूं। यह भाव सदैव व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार में बना रहें, यही आध्यात्म है। इसी भाव को हमारे सभी धर्म ग्रंथों में बड़े ही अच्छे ढंग से विभिन्न आख्यानों और कथाओं के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है, जिससे आध्यात्मिक विकार और ताप का शमन हो और चित्त निष्कपट, सरल और विशुद्ध होकर सबके कल्याण के लिए प्रवृत्त हो, यही धर्म है। श्रीमद् भागवत में महर्षि वेदव्यास ने यही बात कही है-

धर्म:- प्रोज्झितकतवो त्र परमो निर्मत्सराणां सताम
इसी आध्यात्मिक भाव को कठोपनिषद के ऋषि ने कहा है कि जो व्यक्ति शरीर, मन और बुद्धि से अपने अस्तित्व को जान लेता है और अपने स्व में प्रतिष्ठित हो जाता है तो उसे विशुद्ध आत्मानंद की अनुभूति होती है और वह आनंद शाश्वत होता है-

एक वशी सर्वमूतान्तरात्मा
एक रुप बहुदा य : करोति
तमात्म स्थं ये नुपश्यन्ति घारी:
तेषा सुख शाश्वंत नेत रेषाम

मानव के अंत:करण की सभी प्रवृतियां निरंतर साधना एवं अभ्यास से जब विराट के साथ एकाकार होने के लिए प्रयत्न करती हैं, उससे प्रसूत आनंद ही अध्यात्म है।

भारतीय जीवन शैली अपने शुद्ध रूप में आध्यात्मिक ही है। उसका प्रत्येक तत्व व पहलू अध्यात्म से भाविक है और सृजित है और उसका लक्ष्य एक ही है सत्य का साक्षात्कार और स्वयं में सत्य का अविष्कार जिसको महापुरुषों ने विद्वानों ने, अपनी-अपनी दृष्टि से परिभाषित किया है और जानने की कोशिश भी की है।

भारतीय वैदिक वाङ्मय तथा संस्कृति इस सनातन आध्यात्मिक चेतना को एक नए दृष्टिबोध के साथ उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी भारत के राष्ट्र निर्माताओं और दार्शनिकों जिनमें स्वामी विवेकानंद, योगी श्री अरविंद, महात्मा गांधीजी, विनोबा भावे आदि प्रमुख हैं, ने प्रस्तुत किया। यह नवजागरण का मानवीय अध्यात्म था। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ का अध्यात्म दीप स्वामी विवेकानंद ने प्रकट किया था, जिसका प्रकाश अमेरिका तथा अन्य युरोपीय देशों तक पहुंचा था। स्वामी विवेकानंद जी ने वेदांत के तत्व को एक नई दृष्टि दी, जिससे केवल भारत ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व आलोकित हो गया। स्वामी विवेकानंद ने तत्कालीन समाज में पीड़ित मानवता की सेवा में अपने अध्यात्म की खोज की। भारत की आध्यात्मिक परंपरा को उन्होंने “सेवा ही परमो धर्मः” में साकार किया। श्रीमद् भागवत के तृतीय स्कंध में कपिल मुनि द्वारा आध्यात्मिक सूत्र को देश के सामने रखा। कपिल मुनि द्वारा अपनी माता को जो आध्यात्मिक उपदेश दिया गया था, उसका मूल संदेश है कि परमात्मा प्रकृति के कण-कण में और सभी प्राणियों में विद्यमान है, यदि लोग प्राणिमात्र की सेवा बजाय केवल प्रतिमा में स्थूल पूजा- अर्चना करते हैं तो ऐसी उपासना केवल खोखला प्रदर्शन आर दिखावा है।

अंह सर्व भूतषु भूतात्मावस्थित: सदा
तमवज्ञा मां मर्त्य: कुरुते र्चा विडाम्बनम

स्वामीजी ने भी राष्ट्र के सभी नवयुवकों का आह्वान करते हुए कहा था कि गरीबों, दलितों और वंचितों की सेवा करना ही परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ उपासना है। उन्होंने कहा, “मेरा बार-बार जन्म हो तथा मैं हजारों दु:खों को सहूं ताकि मैं उस एकमात्र परमात्मा की उपासना कर सकूं जिसका अस्तित्व है, वह एकमात्र जिसमें मुझे विश्वास है- सभी आत्माओं का सम्मिलित रूप और इनसे भी परे मेरा परमात्मा जो मूर्त में है, मेरा परमात्मा जो पीड़ितों में है, मेरा परमात्मा जो सभी जातियों, सभी नस्लों के निर्धनों में है- वही मेरी पूजा का विषय है।”

भारतीय विचार दर्शन में जो बातें कहीं गई हैं, उसका सीधा सम्बंध अंतर्मन से है। इस दर्शन की धारणा है कि व्यक्ति अपने भीतरी मनोभावों से ही बाहर की प्रकृति और समाज के प्रति अपने व्यवहार और विचारों को कार्य रूप में परिणित करता है। ये विचार और व्यवहार ही जब लमबे समय तक चलते हैं और लोगों द्वारा अपनाए जाने लगते हैं, तो वे ही जीवन मूल्य कहलाते हैं; क्योंकि वे मनुष्य की भीतरी आध्यात्मिक प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। अतएव विवेकानंद द्वारा सेवा को सर्वोपरि मानकर समाज के पुन: जागरण का आह्वान वास्तव में अध्यात्म से प्रसूत आंदोलन ही था।

श्रीमद् भागवत में कपिल मुनि द्वारा दूसरी महत्वपूर्ण जो बात कही गई, उसको स्वामीजी ने अपने कार्यों और आचरण से एक उदाहरण के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत किया और कहा कि भारत की उन्नति, प्रगति तथा उत्कर्ष के मूल में सेवा की सबसे प्रमुख भूमिका होगी।

कपिल मुनि के माध्यम से परमात्मा कहते हैं-

अथ मां र्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम
अर्हयेद्यापमानमानाभ्यां मैत्र्या भिन्नेन चक्षुषा॥

अर्थात सभी प्राणियों में मेरी पूजा अर्चना करो, क्योंकि मैं सब में एकमेव आत्मा हूं और मैंने उनकी देह को अपना मंदिर बना लिया है, इसलिए मेरी पूजा करो, और यह पूजा दान के द्वारा लोगों के अभावों को, दु:खों को, अशिक्षा को दूर करके करिए, किंतु यह कार्य उनका आदर करते हूए करना चाहिए।

इसी सनातन आध्यात्मिक संदेश को स्वामी विवेकानंद ने अपने पुनर्जागरण का मुख्य उद्देश्य घोषित किया और राष्ट्र के नवयुवकों को मानवता की सेवा के लिए पूरी निष्ठा से जुट जाने को कहा। सनातन हिन्दू धर्म के मूल तत्व सेवा को पुन: प्रतिष्ठित करने का आवाहन करते हुए कहा, “मानव देह मंदिर में प्रतिष्ठित मानव आत्मा ही एकमात्र पुत्रार्थ भगवान है। अवश्य समस्त प्रणियों की देह भी मंदिर है, पर मानव देह सर्वश्रेष्ठ है, वह मंदिरों में सर्वश्रेष्ठ है। यदि मैं उसमें भगवान की पूजा न कर संकू, तो और कोई भी मंदिर किसी काम का न होगा।”

अध्यात्म के इस सेवा तत्व को योगी अरविंद, महात्मा गांधी तथा विनोबा भावे ने सबसे प्रमुख माना। विनोबा भावे के अनुसार “सत्य, संयम और सेवा के इन तीन सूत्रों में पारमार्थिक जीवन का अध्यात्म अंकुरित और पल्लवित होता है। श्रीमद् भगवतगीता, जो अध्यात्म तत्व का वैश्विक ग्रंथ है, उसके बारहवें अध्याय में श्री कृष्ण ने इसका बड़ा सुंदर विवेचन किया है। कृष्ण कहते हैं-

संनियम्यान्द्रिय ग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।
ते प्राप्तुवन्ति मामेव सर्वभूत हिते रता:।

जो व्यक्ति अपने इंद्रियों पर संयम रख कर जीवनयापन करते हैं और सभी के प्रति समान दृष्टि रखते हैं, साथ ही प्राणीमात्र के कल्याण और सेवा में लोग रहते हैं, वे अंततोगत्वा मुझे ही अर्थात परमात्मा को प्राप्त होते हैं। आज जब इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के उत्तरार्ध में मानव विज्ञान, टेक्नालाजी के उत्कर्ष के कारण समस्त सुविधाओं और संसाधनों से परिपूर्ण जीवन जी रही है, ऐसे समय में भी मानवता को आतंक, अत्याचार, हिंसा, आक्रोश से छुटकारा नहीं मिल रहा है। सभी प्रकार की सुख सुविधाओं और विपुल उपग्रह पर केवल कुछ मुट्ठीभर लोग ही भौतिक सुख का लाभ उठा पा रहे हैं, दूसरी ओर करोड़ों लोग शारीरिक कुपोषण, रोग और अन्नान्य व्याधियों से ग्रस्त हैं। किंतु जो लोग भौतिक सुख संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं, वे आध्यात्मिक कुपोषण से ग्रस्त है और यही कारण है कि सारा विश्व बारूद के ढेर पर बैठा है। जिस प्रकार से विश्व में आतंकवाद ने पैर पसारा है और स्थान-स्थान पर हिंसा का ताडंव हो रहा है, उससे यह निश्चित संकेत मिल रहे हैं कि यदि इन खतरों से बचने के लिए कोई सुनिश्चित प्रयत्न नहीं किए गए तो विनाश सुनिश्चित है। बहुत वर्ष पहले बटेर्र्ण्ड रसेल ने इस बात को जान लिया था, यद्यपि वे अनीश्वरवादी थे, आध्यात्मिकता में बहुत विश्वास नहीं था, फिर भी उन्होंने अध्यात्म और जीवन मूल्यों के महत्व को समझा था और कहा था“जीवन मूल्य कोई यांत्रिक वस्तु नहीं है, मशीन शैतान का आधुनिक रूप है और इसकी पूजा अर्थात पैशाचिकता -चाहे प्रत्येक वस्तु मशीनी हो जाए किंतु जीवन मूल्य यांत्रिक या मशीनी नहीं हो सकते और यह एक ऐसी बात है जो किसी को भी नहीं भूलनी चाहिए।”

सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक आंदोलन को चलाने की आवश्यकता और उसमें भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वामी विवेकानंद ने आज से एक सौ बीस वर्ष पहले अनुभव कर लिया था, तभी उन्होंने उस समय कहा था, “मेरे राष्ट्र का प्रमुख तत्व है यह लोकातीतवाद अर्थात अध्यात्म, पार जाने का यह संघर्ष, प्रकृति के मुखौटे को उतार देने का यह साहस और किसी भी कोमल तथा किसी भी प्रकार के खतरे को उठा कर उस पार की झलक पा लेना-क्या तुम इस भाव को प्रोत्साहित करना चाहते हो। ऐसा करने का एक ही रास्ता है कि राजनीति और सामाजिक पुननिर्माण के बारे तुम्हारे भाषण और पैसा कमाने के ढंग के बजाए तुम्हें संसार को आध्यात्मिक ज्ञान देना है। वेदांत की विचारधाराओं का प्रचार करना होगा, इन्हें न केवल जंगल और गुफाओं में वरन वकीलों और न्यायाधीशों, मंदिरों, गरीब की कुटिया, मछली पकड़ने वाले मछुआरों और विद्यार्थियों तक इस संदेश को पहुंचना होगा।”

आधुनिक युग के कई पश्चिमी विचारकों ने भी अध्यात्म के इस अवदान के लिए भारत के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है। अमेरिकी इतिहासकार बिल ड्यूटेंट ने अपने ग्रंथ ‘स्टोरी आफ सिविलाइजेशन’ के पहले खण्ड में ‘अवर ओरियंटल हेरिटेज’ शीर्षक में बताया कि ‘भारत हमें परिपक्व बुद्धि, सहनशीलता और शालीनता, अपरिग्रह, संतोष, शांति तथा सभी प्राणियों एवं प्रकृति के प्रति एकता और प्रेम की शिक्षा देने का सामर्य्थ रखता है।’ यही अध्यात्म है, जिसकी परिणति सेवा में होती है।
अमेरिकी प्रबंधन विशेषतज्ञ रिचर्ड टैनरी पास्कल और एंथनी एथास की पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ जापानीज मैनेजमेंट’ में जापानी कम्पनी मात्सुशिता के सफल प्रबंधन की चर्चा की गई है, जिसका शीर्षक आध्यात्मिक मूल्य है। इसमें लेखकों ने कम्पनी की सफलता का रहस्य बतलाते हुए लिखा है कि, “कम्पनी के क्रियाकलापों में आध्यात्मिक शब्द बड़ा ही अटापटा है, किंतु मात्सुशिता कम्पनी के पीछे जो दृढ़ विश्वास काम कर रहा है, उसे समझने के लिए इसके अलावा और दूसरा कोई शब्द हो भी नहीं सकता। जापान में मात्सुशिता पहली कम्पनी थी, जिसका एक घोष गीत था और जीवन मूल्यों की आचरण संहिता थी। कम्पनी की यह मान्यता थी कि वह कम्पनी का सफलता से परिचालन करने के लिए कर्मचारियों के भीतरी व्यक्तित्व का विकास करें, और इस पर विकास कि प्रक्रिया में कम्पनी के 87,000 कर्मचारी प्रति दिन एक समय पर इकट्ठे होकर उन जीवन मूल्यों की आचरण संहिता का मिलकर पाठ और गान करने थे। ताकि उनमें सहज रूप से परस्पर सद्भाव, सहिष्णुता और टीम भावना से काम करने की भावना पैदा हो और वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकें जिसका लाभ व्यक्ति कम्पनी तथा समाज सभी को समान रूप से प्राप्त हो। यह कॉपोरेट गवर्नेस एवं प्रबंधन में आध्यात्मिकता का अच्छा उदाहरण है।

मानव जीवन में आध्यात्मिक दृष्टिबोध की आवश्यकता को आज बड़ी ही गहनता से अनुभव किया जा रहा है। सभी प्रकार की सुख सुविधाओं तथा संसाधनों के बावजूद जीवन में जो रिक्तता और खालीपन पैदा हो रहा है, उससे सामाजिक और वैयक्तिक जीवन बिखर रहा है। इसके अनेक ज्वलंत उदाहरण प्रति दिन हमें देखने को मिल रहे हैं। हाल ही में टीवी कलाकार प्रष्युता बॅनर्जी की आत्महत्या की घटना इसका एक प्रमाण है।

जीवन को सफलता तथा शांति के साथ जीने के लिए विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक विचारक दीपक चोपड़ा भी एक बहुत की प्रसिद्ध पुस्तक है, जिसका नाम है ‘दि सेवन स्प्रिचुअल लॉज ऑफ सक्सेस’ अर्थात सफलता के सात आध्यात्मिक नियम। उसकी भूमिका में वे लिखते हैं कि यह वास्तव में सफलता के नहीं बल्कि जीवन के आध्यात्मिक नियम हैं। उनका कहना है कि जब व्यक्ति को अपने जीवन में ईश्वरत्व की अद्भुत अभिव्यक्ति का अनुभव होने लगता है तभी सफलता का सही अर्थ समझ में आता है। पुस्तक के अंत में वह पाठक से तीन वचन देने की बात कहते हैं। ये तीनों ही वचन आध्यात्मिक दृष्टिबोध से ओतपोत हैं। वे पहले वचन के बारे में कहते हैं -अहंकार को छोड़ कर अपने आध्यात्मिक प्रयासों से अपनी श्रेष्ठता को खोजने का वचन। दूसरा- व्यक्ति अपने भीतर प्रवेश करके अपनी असाधारण योग्यता का आविष्कार करने का वचन और तीसरा तथा सबसे महत्वपूर्ण यह कि व्यक्ति मानवता के कल्याण के लिए कैसे सहायक हो सकता है, इस प्रश्न का स्वयं उत्तर खोज कर व्यक्ति जब अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं के साथ तालमेल बैठा कर दूसरों की सेवा और सहायता के लिए स्वयं प्रेरित होता है तो यह अध्यात्म की परिणति है।

अध्यात्म का अर्थ है अपने स्वयं के अतंर देवत्व की खोज और दूसरे को देवता मान कर उसकी सेवा और अर्चना!
———

वीरेन्द्र याज्ञिक

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