सेवा एवं संस्कार का प्रेरणा स्रोत

एक भ्रामक धारणा यह है कि हिन्दू अध्यात्म में सामाजिक सरोकार बिल्कुल नहीं हैं। हिन्दू समाज में दयाभाव और पिछड़े वर्ग के प्रति सहानुभूति कतई नहीं है। यह मिथ्या धारणा कि हिन्दू अध्यात्म समाज के लिए कुछ नहीं करता, दूर करने के लिए हिन्दू अध्यात्म एवं सेवा मेले की शुरुआत की गई।

न त्वहम् कामये राज्यम् स स्वर्गम् न पुनर्भवम्।
कामये दु:खतप्तानाम् प्राणिनाम् आर्तनाशनम् ॥

न तो मुझे राज्य की इच्छा है न स्वर्ग की और न मोक्ष की कामना है। मैं तो यही चाहता हूं कि दुखों से पीड़ित लोगों की पीड़ा को मिटाने में मेरा जीवन काम आए।

राजा रन्तिदेव के उक्त उद्धार हिन्दू संस्कृति का आधार-स्तम्भ हैं। राजा शिबि, दिलीप, रन्तिदेव से लेकर सम्राट विक्रम और आगे हर्षवर्द्धन और महाराज शिवाजी तक सेवा, दान तथा परोपकार का भाव ही समाज में सर्वोपरि रहा है। मुस्लिम आक्रमणकारियों तथा अंग्रेजों के शासन काल में भी सेवा का यह संस्कार कमजोर नहीं हुआ। आज भी हिन्दू समाज में सेवा का भाव प्रबल रूप से विद्यमान है। इन दिनों राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न विषयों पर रपटें प्रकाशित होती रहती हैं। वर्ष 2002 में पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन एशिया ने काफी गहराई से अध्ययन के बाद बताया कि हर दस में से चार से अधिक (41प्रतिशत) भारतीय नियमित रूप से लोकोपकारी कार्यों में धन खर्च करते हैं।

इसी प्रकार 2010 में आई हडसन रपट में बताया गया कि एशिया में लोग अपनी 12 प्रतिशत आय सेवा कार्यों में लगाते हैं, जबकि अमेरिका में लोगों की आय का 8 प्रतिशत हिस्सा ही लोक-उपकार में लगता है। इस रपट में यह भी बताया गया है कि भारत में तो सेवा कार्यों के लिए धन देने की एक सुदीर्घ परम्परा है। भारत के चालीस फीसदी परिवार सेवा-कार्यों के लिए पैसा देते हैं।

फिर भी हिन्दुत्व के बारे में यह भ्रम फैलाया गया कि यह सामाजिकता से कोई सम्बंध नहीं रखता। यह प्रचार किया जाता रहा है कि हिन्दू धर्म अपने कमजोर वर्ग, पिछड़ों और वंचितों की कोई चिंता नहीं करता। हिन्दू मठों, आध्यात्मिक संस्थानों और धार्मिक ट्रस्टों के बारे में यही दुष्प्रचार किया जाता है कि ये सब पैसा इकट्ठा करते हैं और भौतिक सुख-सुविधाओं का आनंद लूटते हैं। सच्चाई इसके एकदम विपरीत है। हिन्दू मठ व मंदिर दीन-दुखियों की इतनी बड़ी सेवा करते हैं कि उसकी कोई बराबरी नहीं है। हिन्दू संगठन या अध्यात्म केन्द्र सेवा करते हैं, परोपकार के कार्य करते हैं पर उसका बखान नहीं करते। यह हमारे संस्कारों में है। सहायता या सेवा करना हमारे स्वभाव में है और उसकी चर्चा नहीं करना भी हमारे स्वभाव में है।
लेकिन समय की आवश्यकता है कि हिन्दू धार्मिक संस्थानों के सेवा-कार्यों की जानकारी समाज को हो इसलिए कि भ्रम दूर हों और अन्य संस्थान भी ऐसे कामों से जुड़ें। इसलिए कुछ वर्षों पहले चेन्नई में ‘हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा मेले’ की शुरुआत की गई। धार्मिक संस्थानों से अनुरोध किया गया कि वे मेले में अपने लोकोपकारी कार्यों का परिचय जन-सामान्य को दें। चेन्नई में हुए सातवें सेवा-मेले में तीन सौ से अधिक आध्यात्मिक संस्थानों ने उनके द्वारा चलाए जा रहे सेवा-कार्यों की जानकारी दी। इनमें गायत्री परिवार, भारत स्वाभिमान ट्रस्ट, पतंजलि योग-पीठ, माता अमृतानंदमयी ट्रस्ट, आर्ट ऑफ लिविंग, श्री रामकृष्ण मठ, इस्कॉन, स्वामीनारायण और ब्रह्मकुमारी जैसे ख्यातिप्राप्त संस्थान भी शामिल थे। ऐसे मेले के आयोजन का विचार 2008 में सभ्यताओं के सामंजस्य के लिए बने ग्लोबल फाउण्डेशन ने किया था। इस फाउण्डेशन और हिन्दू सेवा मेले के शिल्पकार जाने-माने विचारक श्री एस. गुरुमूर्ति हैं।

पश्चिमी जीवन-शैली के दुष्परिणामों से बचने के लिए वर्ष 2008 में उन्होंने ग्लोबल फाउण्डेशन फॉर सिविलाइजेशनल हॉरमनी की स्थापना की थी। इस मंच में हुए मंथन से नवनीत के रूप में ‘हिंदू स्पिरिचुअल एण्ड सर्विस फेयर’ (हिन्दू अध्यात्म एवं सेवा मेला) निकला। वर्ष 2009 में पहला आयोजन चेन्नई में हुआ। पहला प्रयोग ही अत्यंत सफल रहा था।

‘हमारे समाज-जीवन का आधार आपसी सम्बंध हैं जबकि पश्चिम में सब कुछ ठेके पर चलता है। पारिवारिक सम्बन्ध वहां हैं ही नहीं, जो कुछ है वह ठेका है, कंट्रेक्ट है। गत दो सौ सालों में पश्चिम ने जबर्दस्त भौतिक प्रगति की है, इसलिए पूरी दुनिया पर पश्चिमी विचारों का प्रभाव हो गया। पश्चिमी जीवन शैली ने विश्व में और विशेषकर भारत में अपना दबदबा बना लिया। इसका एक परिणाम यह हुआ कि भारत के सम्बन्ध में कुछ भामक धारणाओं ने जन्म ले लिया।’

एक भ्रामक धारणा यह है कि हिन्दू अध्यात्म में सामाजिक सरोकार बिल्कुल नहीं हैं। हिन्दू समाज में दयाभाव और पिछड़े वर्ग के प्रति सहानुभूति कतई नहीं है। यह मिथ्या धारणा कि हिन्दू अध्यात्म समाज के लिए कुछ नहीं करता, दूर करने के लिए हिन्दू स्पिरिचुअल एण्ड सर्विस फेयर की शुरुआत की गई।
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