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मृत इतिहास एवं जीवित इतिहास

मृत इतिहास एवं जीवित इतिहास

by रमेश पतंगे
in जून २०१६, सामाजिक
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मनुष्य विचारशील प्राणी होने के कारण उसकी भूमिका बदलती रहती है। वही उसका विकास है। संघ भी विचारशील होने के कारण विकासशील है। रामचंद्र गुहा को यदि यह समझना नहीं है तो हम क्या कर सकते हैं? उन्हें मृत इतिहास और जीवित इतिहास का भेद वामपंथी इतिहासकार होने से क्या समझ में आएगा?

‘प्रसिद्ध‘ इतिहासकार श्री रामचंद्र गुहा के लेख दि इंडियन एक्सप्रेस नामक दैनिक में प्रकाशित होते रहते हैं। 21 अप्रैल 2016 के अंक में उनका ‘व्हीच आंबेडकर‘ लेख प्रकाशित हुआ है। 17 अप्रैल के ऑर्गनायजर के अंक में भारत रत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विषय में अनेक लेख प्रकाशित हुए हैं। रामचंद्र गुहा ने उसमें सेकई लेखों के शीर्षकों का अपने लेख में उल्लेख किया है। शीर्षकों का उल्लेख किया है तो लेख पढ़े ही होंगे ऐसा मानते हैं। सच और झूठ तो रामचंद्र गुहा ही जाने।

आर्गनायजर द्वारा डॉ. आंबेडकर की इस प्रकार स्तुति करना रामचंद्र गुहा को पसंद नहीं आया। वे ‘प्रसिद्ध’ इतिहासकार हैं। अत: उन्होंने इतिहास में डुबकी लगाकर मृत इतिहास खोद कर निकाला। 1949 एवं 1950 में आर्गनायजर में भारत के सविधान एवं हिंदू बिल पर क्या-क्या लिखा गया था इसके उद्धरण उन्होंने दिए हैं। उसी प्रकार आर्गनायजर के कुछ संपादकीय उद्धरण भी दिए हैं। इस सब का सामान्य मतितार्थ यह है कि देश के संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है, भारतीय राज्यशास्त्र का उसमें कुछ भी उल्लेख नहीं है; हिंदू कोड बिल अमेरिका एवं यूरोप के कानून की नकल है, तलाक का विषय भारतीय कुटुंब व्यवस्था ध्वस्त करने वाला है, संपत्ति का अधिकार भाई बहन में कलह उत्पन्न करने वाला है इत्यादी।

प्रसिद्ध इतिहाकारों की विशेषता होती है कि वे अपना मुद्दा प्रस्तुत करने के लिए तथ्य इकट्ठा करते हैं। आर्गनायजर से लिए गए तथ्य क्या वास्तव में सही हैं; इसकी जांच करनी चाहिए। उसी प्रकार जिन्होंने ये लेख लिखे हैं उनका संघ में क्या स्थान था एवं क्या वे संघ के प्रवक्ता थे? यह भी देखना चाहिए। संघ पर टिप्पणी करते समय प्रसिद्ध इतिहासकार क्या लिखेंगे यह निश्चित नहीं होता। एक इतिहासकार ने पता लगाया कि संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार एवं मुसोलिनी की मुलाकात हुई थी एवं संघ स्थापना की कल्पना उन्हें मुसोलिनी से मिली। डॉ. हेडगेवार के जीवनचरित्र के अनुसार वे कभी देश छोड़ कर बाहर गए ही नहीं। इस प्रकार की स्थिति में केवल विवाद के लिए हम यह मान लें कि रामचंद्र गुहा ने प्रस्तुत किए हुए तथ्य असली हैं।

परंतु ये असली तथ्य भी अब मृत इतिहास में जमा हो गए हैं। सन 1949-50 में डॉ. बाबासाहब आंबेडकर एवं भारतीय संविधान पर अत्यंत कठोर टिप्पणियां हुई हैं। पहले संविधान का विषय लें। भारतीय संविधान 1935 के कानून की नकल है। उसमें भारतीयता कुछ नहीं, इधर उधर से उधार ली हुई सामग्री है। ऐसे अनेक आक्षेप संविधान पर लगाए गए हैं और बाबासाहब ने उनका तर्कशुद्ध उत्तर दिया है- “साम्यवादी एवं समाजवादी इन दो पक्षों की ओर से संविधान पर बड़े पैमाने पर नापसंदगी प्रकट की जा रही है। वे संविधान के प्रति नापसंदगी क्यों व्यक्त कर रहे हैं? सचमुच संविधान गलत है इसलिए? निश्चित रुप से नहीं। साम्यवादी, मजदूर वर्ग की तानाशाही के आधार पर संविधान चाहते हैं। यह संविधान लोकतंत्र पर आधारित है इसलिए वे संविधान का विरोध कर रहे हैं। साम्यवादियों को दो बातें चाहिए। पहली यह कि यदि वे सत्तारुढ हुए तो बिना मुआवजा व्यक्तिगत संपत्ति का राष्ट्रीयकरण या सामाजीकरण करने के अधिकार की स्वतंत्रता संविधान से उनको मिलनी चाहिए। दूसरे यह कि संविधान के मूलभूत अधिकार निरपेक्ष एवं अनिर्बाधित होने चाहिए जिससे यदि उन्हें सत्ता प्राप्त न हों तो न, सिर्फ अबाधित टीका करने की स्वतंत्रता ही नहीं वरन सत्ता उखाड़ फेंकने का स्वातंत्र्य भी मिलना चाहिए।

रामचंद्र गुहा वामपंथी इतिहाकार होने के कारण समाजवादी एवं साम्यवादियों ने संविधान पर कौन से आक्षेप किए यह जानबूझकर नहीं बताते हैं। बात अच्छी नहीं लगेगी परंतु आर्गनायजर में व्यक्त किए गए मतों पर बाबासाहब विचार करने को भी तैयार नहीं थे। उन्होंने उसे ज्यादा महत्व भी नहीं दिया था। एक अर्थ में यह सब मृत इतिहास है। गड़े मुर्दे उखाड़ने का कोई अर्थ नहीं है।

रामचंद्र गुहा यह सूचित करना चाहते हैं कि एक समय आपके विचार यह थे तो आज क्यों बदल गए? डॉ. आंबेडकर के बारे में आपका मत परिवर्तन क्यों हुआ? भूतकाल के विचारों एवं भूमिकाओं से चिपके रहना कम्युनिस्टों का काम है परंतु जिसे समयानुरुप बदलना होता है और जीवंत संगठन के रूप में विकसित होना है वह मृत इतिहास से चिपक कर नहीं रह सकता। उसके सामने जीवंत वर्तमान है, जीवंत इतिहास है। राष्ट्रीय प्रश्नों के सम्बंध में विचार तत्कालीन कालखंड के अपत्य होते हैं। ऐसे विचार रखने वालों की जितनी आंकलन शक्ति होती है, जितनी समझ होती है और प्रश्नों का जितना ज्ञान होता है; उस पर उनके विचार निर्भर होते हैं। उदाहरणार्थ हिंदू कोड बिल का विरोध कांग्रेस के सभी नेताओं ने किया था केवल पं. नेहरु अपवाद थे। भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद बिल के विरोध में थे एवं वैसा उन्होंने व्यक्त भी किया था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एवं पंडित नेहरू के बीच हिदू कोड बिल पर पत्रव्यवहार भी हुआ था। यह पत्रव्यवहार बहुत सनसनीखेज है। रामचंद्र गुहा को गुरुजी क्या कहते हैं इसकी अपेक्षा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने क्या कहा था इसे देखना चाहिए।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद कहते हैं, “लोकसभा द्वारा हिंदू कोड बिल पास करने के पश्चात उसकी गुणवत्तानुसार जांच करना मेरा अधिकार है और उसके बाद ही मैं बिल पर हस्ताक्षर करूंगा। मेरी सद्सद्विवेक बुद्धि को जो उचित लगेगा वही निर्णय मैं लूंगा और सरकार अडचन में न आए ऐसे प्रयत्न करूंगा।” इस पत्र का उत्तर देते हुए पं. नेहरू ने कहा, “संसद के बिल पास करने के बाद उसकी गुणवत्ता देखकर मैं हस्ताक्षर करूंगा ऐसा जो आपने पत्र में कहा है इससे भविष्य में संसद एवं राष्ट्रपति के बीच संघर्ष निर्माण होने की स्थिति पैदा हो सकती है। शासन एवं संसद के अधिकारों को चुनौती देने की शक्ति क्या वाकई राष्ट्रपति के पास है? ऐसा प्रश्न इससे से निर्माण होगा।”

इस पत्र का उत्तर भी राजेंद्र प्रसाद ने दिया। उसमें उन्होंने कहा कि आपके पत्र से ऐसा लगता है कि मेरा मत संसद तक पहुंचाने का अधिकार मुझे नहीं है। संसद ने यदि एक बार बिल पास कर दिया तो यह अधिकार मेरे पास बचता नहीं है। यदि आपने लोकतांत्रिक संस्था और उनकी शक्तियों का ठीक तरह विचार किया तो इस प्रकार के संघर्ष की स्थिति पैदा होने का कोई कारण मुझे नहीं दिखता।

इस पत्र के उत्तर में पंडित नेहरू ने कहा कि राष्ट्रपति का काम संसद द्वारा पास किए गए बिल पर हस्ताक्षर करने का है। यह बिल अडाकर रखना संविधान के अनुरूप नहीं है। ब्रिटिश संसदीय परंपराओं का पंडित नेहरू ने अपने पत्र में उल्लेख किया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इस पत्र का विस्तार से उत्तर दिया। उसका सारांश यह है कि उन्हें जो अधिकार प्राप्त है वे उनका उपयोग करने से चूकेंगे नहीं। मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार चलना बंधनकारक नहीं है। ऐसा संविधान में कही नहीं है। ब्रिटिश संसदीय सूत्रों का सबसे महत्वपूर्ण सूत्र है जनादेश का सिद्धांत अर्थात डॉक्टरिन ऑफ मेंडेट। रामचंद्र गुहा को इस विषय का अध्ययन होगा ही।

सरदार वल्लभभाई पटेल इस बिल के अनुकूल नहीं थे। 1952 में चुनाव थे। यह बिल जैसा का तैसा यदि पास किया तो हिंदू हमें वोट नहीं देंगे यह डर कांग्रेस के जेष्ठ नेताओं ने पंडित नेहरू के सामने प्रकट किया। उसके कारण हिंदू कोड बिल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। यह इतिहास है एवं वह डॉ. आंबेडकर के किसी भी अधिकृत चरित्र में पढ़ने को मिल सकता है। उस समय की स्थिति के अनुरूप आर्गनायजर में लेखकों ने यदि विरोध किया है तो वह कालानुरुप ठीक ही होगा ऐसा कहा जा सकता है। परंतु आज उसका समर्थन नहीं किया जा सकता है। परिस्थिति के अनुसार भूमिका बदलनी पड़ती है।

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर इस विषय में जो बताते हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है और रामचंद्र गुहा को उसे ध्यान में रखना चाहिए। 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा के सामने अपने आखरी भाषण में एक जगह बाबासाहब ने अमेरिकन कूटनीतिज्ञ जेफरसन को उद्धृत किया है। जेफरसन का वाक्य है, “ प्रत्येक पीढ़ी, बहुसंख्यकों की इच्छानुसार स्वत: को बांधने का अधिकार रखने वाले एक स्वतंत्र राष्ट्र के समान है। आने वाली पीढ़ी को कोई बांध कर नहीं रख सकता। जैसे दूसरे राष्ट्र के लोगों को बांध कर नहीं रखा जा सकता। इसलिए मृत इतिहास की पीढ़ी के मत जिंदा इतिहास की पीढ़ी को बांध कर नहीं रख सकते। हम इतना ही कह सकते हैं कि उनके विचार उनकी समझ की मर्यादानुसार थे। आज हमारा ज्ञान उसकी अपेक्षा ज्यादा विस्तारित है और उसमें व्यापकता है। इसलिए हमारे विचार कुछ अलग होंगे।” डॉ. बाबासाहब का वाक्य फिर कहना हो तो “ भावी पीढ़ी न बदल सके ऐसे कानून यदि हमने बनाए और वे उन पर लाद दिए तो वास्तव में यह संसार मृत व्यक्तियों का होगा, जिंदा लोगों का नहीं।”
रामचंद्र गुहा ने हिंदू कोड बिल का उस समय कैसे विरोध हुआ इसके आर्गनायजर से निकाल कर कई उदाहरण दिए हैं। इसे अंगे्रजी में ‘सिलेक्टेड कोट’ कहते हैं। यह वामपंथियों की खासियत है। 1974 में बालासाहब देवरस का सामाजिक समता एवं हिंदू संगठन विषय पर भाषण हुआ। इस भाषण का प्रारंभ हिंदू किसे कहना चाहिए इस वाक्य से हुआ। उन्होंने हिंन्दू कोड बिल का आधार लिया। उनके वाक्य इस प्रकार हैं, “ कुछ वर्षों पूर्व अपने देश में एक कोड बनाया गया, हिंदू कोड। संसद ने उसे पास किया। वह पास हो इसके लिए जिन लोगों ने पहल की उनमें पंहित नेहरू थे। डॉ. आंबेडकर थे। कोड बनने के बाद यहां की बहुसंख्यक जनता पर लागू करने के लिए उसे क्या नाम दिया जाए यह प्रश्न जब उनके सामने आया तब उन्हें अन्य कोई नाम नहीं सूझा। उन्हें उसे हिन्दू कोड ही कहना पड़ा। यह कोड किस पर लागू होगा यह बताने के लिए प्रारंभ में उन्हें ऐसा कहना पड़ा- “मुसलमान , ईसाई, यहूदी एवं पारसी ये चार लोग छोड़ दिए जाए तो भारत में जितने लोग हैं, उनमें सनातनी, लिंगायत , जैन ,बौद्ध, सिख, आर्य समाजी इ. सभी लोगों पर यह कोड बिल लागू होगा। उन्होंने कोड को नाम भी दिया “हिंन्दू कोड”। इसका अर्थ यह हुआ कि 1949-50 में हिन्दू कोड बिल के विषय में आर्गनायजर में व्यक्त विचारों से अलग विचार बाबासाहब ने रखे। इसे जीवंत इतिहास कहते हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह एक जीवंत संगठन है। यह संगठन साम्यवादी या वामपंथियों के समान पोथीनिष्ठ संगठन नहीं है। इस संगठन में कोई भी पोथी प्रमाण नहीं मानी जाती। कालानुरुप संघ की भूमिका बदलती रहती है। कालानुरुप विषय के आंकलन में परिवर्तन होता रहा एवं रहता है। यह हिंदू राष्ट्र है, हिंदू समाज राष्ट्रीय समाज है, वह संगठित रहना चाहिए, चरित्रसंपन्न होना चाहिए। संस्कारों से देशभक्ति का सहज निर्माण होना चाहिए। व्यक्ति से देश बड़ा, देश की संस्कृति बड़ी, सबको धारण करने वाला धर्म बड़ा यह संघ के मूलतत्व हैं। उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता, परिस्थिति के अनुसार भूमिका बदलती रहती है। रामचंद्र गुहा को या तो यह समझना नहीं है अथवा समझने के बावजूद न समझने की भूमिका उन्होंने स्वीकार की है। इंडियन एक्सप्रेस में उनके लेख से यह ध्वनि निकालती है कि आप अपनी पूर्व की भूमिका को गले से लगा कर रखे। डॉ. आंबेडकर प्रशंसा न करें।

डॉ. हेडगेवार जीवित थे तब तक उन्होंने संघ को राजनीति से दूर रखा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जनसंघ की स्थापना हुई। जनसंघ की स्थापना के पीछे श्री गुरुजी महाशक्ति के रूप में थे। 1975 में अपातकाल लगा। बालासाहब देवरस के नेतृत्व में संघ ने अपातकाल के विरुद्ध लड़ाई में भाग लया। जनता दल के निर्माण में बालासाहब देवरस महाशक्ति के रूप में खडे रहे। 2014 में देश में सत्ता परिवर्तन हुआ। सोनिया गांधी की सत्ता गई। भाजपा स्वयं के बल पर बहुमत से सत्ता में आई। इस परिवर्तन के पीछे भी महाशक्ति के रुप में मोहनजी भागवत हैं। यहां व्यक्तियों के नामों का उल्लेख किया वह केवल समझने के लिए अन्यथा व्यक्ति याने संघ ऐसा ही इसका अर्थ है। डॉक्टर साहब के समय संघ सत्ता की राजनीति से दूर था पर आज सत्ता परिवर्तन में संघ क्यों सहभागी होता है इस विषय पर रामचंद्र गुहा को 1940 के पूर्व के उद्घरण देकर लेख लिखना चाहिए। प्रसिद्ध इतिहासकार होने के कारण उन्हें यह करने में कोई अड़चन नहीं है।

श्री गुरुजी ने हिंदू कोड बिल का कैसा विरोध किया था यह मुद्दा रखते हुए रामचंद्र गुहा ने गुरुजी के कुछ वाक्य दिए हैं। श्री गुरुजी ने कहा, “हिंदू कोड बिल में भारतीयता नहीं है। शादी एवं तलाक के विषय अमेरिकी एवं अंग्रेजों की पद्धति के अनुसार नहीं सुलझाए जा सकते। हिंदू संस्कृति के अनुसार विवाह यह संस्कार है और यह संस्कार मृत्यु के बाद भी खंडित नहीं होता। शादी कोई समझौता नहीं है जो कभी भी तोड़ा जा सके।” श्री गुरुजी का यह कहना है एवं इसमें क्या गलत है? अमेरिकी समाज में आज 50% विवाह तलाक में परिवर्तन होते हैं। कुमारी माताओं के जानलेवा प्रश्न हैं जिनसे बच्चों पर गलत असर होता है। वे हिंसक हो रहे हैं एवं स्कूल में गोलीबारी कर सहपाठियों को मार रहे हैं ये खबरें ही सुनने में आ रही हैं। बाबाासाहब को इसकी कल्पना नहीं थी ऐसा नहीं है। उन्होंने तलाक का जो विषय रखा उसका मतलब चाहे जब तलाक ऐसा नहीं है। ये बातें उस बिल का अध्ययन करने से पता चलती हैं। बाबासाहब का स्वयं का वैवाहिक जीवन अत्यंत आदर्श जीवन था। रमाबाई के साथ उनके वैवाहिक जीवन का किन शब्दों में वर्णन करें। वह तो भारतीय दांपत्य जीवन का आदर्श था। आज हमारी जीवंत पीढ़ी का यह मत है और राष्ट्र यह जीवंत पीढ़ी का होता है। इसलिए गुहा का मृत इतिहास स्वीकारने योग्य नहीं है।

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जैसे युगपुरुष को समझना बहुत कठिन है। वे अपने समय के आगे का विचार करते थे इसलिए उनके समकालीन उनका आकलन नहीं कर सके। प्रत्येक महापुरुष के हिस्से में यह आता है, उसमें आंबेडकर अपवाद नहीं हो सकते। उनकी भूमिका भी अनेक बार बदलती गई है। 1927 में बहिष्कृत भारत के एक लेख में उन्होंने लिखा, “यह हिन्दू राष्ट्र है यह निर्विवाद सत्य है।” और सन 1942 में थॉट्स ऑन पाकिस्तान इस पुस्तक में वे लिखते हैं कि “हिंदू राष्ट्र यह भयानक कल्पना है।“ वे 1936 में मजदूर दल की स्थापना कर सर्वसमावेशक भूमिका स्वीकार करते हैं तो 1943 में शेड्यूल कास्ट फेडरेशन नामक नए दल की स्थापना करते हैं जो केवल अनुसूचित जाति के लिए था। स्टेट ऑफ मायनारिटिज इस प्रबंध में वे लिखते हैं कि संसदीय प्रणाली हमारे लिए ठीक नहीं है तो संविधान सभा में भाषण करते समय संसदीय प्रणाली ही क्यों उपयुक्त है इसका विवेचन करते हैं। भूमिका में इस प्रकार का परिवर्तन होता रहता है। सुसंगती गधे का गुणधर्म है ऐसा कहा जाता है; क्योंकि गधा निर्बुद्ध है। मनुष्य विचारशील प्राणी होने के कारण उसकी भूमिका बदलती रहती है। वही उसका विकास है। संघ भी विचारशील होने के कारण विकासशील है। रामचंद्र गुहा को यदि यह समझना नहीं है तो हम क्या कर सकते हैं?
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