वैदिक शिक्षा पद्धति की ओर बढ़े भारत

स्वतंत्रता के पश्चात की सब से बड़ी विडंबना यही कही जाएगी कि हम सब कुछ समझते हुए भी लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति की प्रेत छाया में फंसे रहे। यद्दपि शिक्षा पद्धति में सुधार के नाम पर कई-कई आडम्बर और प्रपंच देश में समय-समय होते रहे हैं तथापि निस्संदेह यह कहा जा सकता है कि हम आज भी मैकाले के षड्यंत्र से पूर्णतः बाहर नहीं निकल पाए हैं। गुरुकुल शिक्षा पद्धति व गुरु-शिष्य परम्परा के वैश्विक दृष्टिकोण वाली विरासत के स्वामी हम भारतीय स्वतंत्रता के सत्तर वर्षों के पश्चात भी एक स्वयंसिद्ध शिक्षा व्यवस्था को तरस रहे हैं।

हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में जिन तत्वों के समावेश का प्रयास किया गया वे निश्चित ही समुचित कहे जा सकते हैं किन्तु वे गुरु नामक संस्था की पुनर्स्थापना के बिना एकांगी ही हैं। हमारे विभिन्न प्रांतीय व आलीशान शिक्षण मंडलों में शिक्षा के आधारभूत बिन्दुओं के रूप में पवित्रता तथा जीवन की सद्भावना, चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास, सामाजिक कुशलता तथा सुख की उन्नति, संस्कृति का संरक्षण तथा विस्तार, नेतृत्व विकास, कुशल जीवनयापन की शिक्षा आदि निर्धारित किए गए हैं। विश्वविद्यालय आयोग ने भारतीय शिक्षा के जो उद्देश्य निर्धारित किए हैं उनमें विवेक का विस्तार, नए ज्ञान के लिए इच्छा जागृत करना, जीवन का अर्थ समझने के लिए प्रयत्न करना, व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था करना, शिक्षा के इन सभी आधारभूत बिंदुओं में भारत के गलत लिखे गए इतिहास को सतत पढ़ते रहने व अपनी अद्भुत व समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर गर्व के स्थान पर खेद के भाव से चलते रहने से हम शिक्षा के क्षेत्र में कुछ विशेष नहीं कर पाए हैं। नालंदा और तक्षशिला जैसी शिक्षा व्यवस्थाओं के प्रणेता रहे हम भारतीय इस बात को आज तक समझ नहीं पाए हैं कि जब हजारों वर्ष पूर्व समूचा विश्व शिक्षा हेतु भारत की ओर क्यों मुंह बाये खड़ा रहता था?! पूरे विश्व से ज्ञान पिपासु हजारों मीलों से पीड़ादायक प्रवास करके श्रद्धापूर्वक भारत आकर शिक्षा ग्रहण करते थे। विश्व के अनेकों प्रसिद्ध विचारकों ने अपने संस्मरणों, ग्रंथों व शोधकार्यों में प्राचीन वैदिक भारतीय शिक्षा व्यवस्था के संदर्भ में व्यापक लेखन किया है। आज भी यदि हम हमारी वैदिक शिक्षा पद्धति का पुनर्जागरण करें तो इस विश्व को पुनः कई-कई वराहमिहिर, आर्यभट्ट, चरक, धन्वंतरि, सुश्रुत, वाग्भट, कौमारभृत्य, जीवक, नागार्जुन, भास्कराचार्य, बोधायन आदि जैसे विद्वान देकर वैश्विक बढ़त ले सकते हैं।

आंशिक प्रसन्नता का विषय है कि मानव संसाधन मंत्रालय उज्जैन स्थित महर्षि सांदिपनी राष्ट्रीय विद्या प्रतिष्ठान के साथ मिलकर एक नया शिक्षा बोर्ड बनाने के प्रयास में आगे बढ़ रहा है। बाबा रामदेव भी वैदिक शिक्षा बोर्ड बनाने को लेकर बहुत उत्साह से कार्य कर रहे हैं। मानव संसाधन मंत्रालय स्वयं इस ओर ध्यान दे रहा है और महर्षि सांदिपनी राष्ट्रीय वेद विद्यालय प्रतिष्ठान के अंतर्गत बोर्ड का गठन किया जा रहा है। इस हेतु बनाई गई समिति के अध्यक्ष देवी प्रसाद त्रिपाठी हैं। देश में वर्तमान में ऐसे 450 विद्यालय संचालित हो रहे हैं जिनमें दसवीं व बारहवीं की परीक्षाएं भी होती है,ं किन्तु इन्हें देश में प्रमुखता से मान्यता नहीं मिलती है। यदि बोर्ड को व्यापक मान्यता मिल जाती है तो त्वरित प्रभाव से इसकी वर्तमान दस हजार विद्यार्थियों की संख्या चालीस हजार पर पहुंच जाएगी और एक व्यापक व विस्तृत भविष्य वैदिक शिक्षा हेतु भारत में तैयार हो जाएगा। यदि मानव संसाधन की मंत्री स्मृति ईरानी अपनी योजना के अनुरूप वैदिक शिक्षा बोर्ड को विश्व की अन्य संस्थाओं एडिनबरा, एमआईटी, कैंब्रिज, यूनिवर्सिटी ऑफ पेनीसिल्वानिया, यूसी बर्कले, यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन और यूनिवर्सिटी ऑफ जॉर्जिया टेक जैसे संस्थानों के विशेषज्ञों से आगे बढ़ा ले जाती हैं तो यह कार्य एक क्रांतिकारी कदम सिद्ध होगा। बाबा रामदेव व आचार्य बालकृष्ण इस ओर आवासीय विद्यालय के रूप में हरिद्वार में आचार्यकुलम् की स्थापना करके कदम तो बढ़ा ही चुके हैं किंतु शासकीय मान्यताओं के अभाव में उसका बहुत महत्व नहीं है। वैदिक एवं आधुनिक शिक्षा के संतुलित समन्वय वाले आचार्कुलम् स्थापित करने से निश्चित ही हमारी समृद्ध विरासत व व्यापक इतिहास को हम नए दृष्टिकोण से अध्ययन कर विश्व को कुछ नया देने की अपनी प्राचीन श्रृंखला को पुनः प्रारंभ कर पाएंगे। बाबा रामदेव तो देश के हर जिले में आचार्यकुलम् स्थापित करने की महत्वाकांक्षी योजना पर काम कर रहे हैं। यदि अपनी योजना के अनुरूप मानव संसाधन मंत्रालय भारत में वैदिक शिक्षा के नए तंत्र को खड़ा करने में सफल हो पाता है तो हमारी वर्तमान पीढ़ी भारत में एक अद्भुत, अनूठी, समृद्ध व समरस शिक्षा पद्धति से बढ़ते भारत के नित नए वैश्विक रूपकों का दर्शन कर पाएगी!!
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