पूर्वोत्तर में विद्या भारती

 विद्या भारती का पूर्वोत्तर में राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में विशाल कार्य चल रहा है। …इस सकारात्मक वातावरण में हम अपनी सहयोगिता एवं सहभागिता की गति में तीव्रता लाएं। चलें, चलें… हम पूर्वोत्तर की ओर चलें, चलते जाएं उस छोर तक जहां अखंड भारत की सीमाएं बार-बार बाहें फैला कर आलिंगन करने के लिए आतुर हैं।

र्वोत्तर भारत के निवासी भारत की मुख्य धारा में दिखाई नहीं देते हैं अथवा उन्हें मुख्य धारा में लाना है- ऐसी चर्चा अथवा वार्तालाप तथाकथित राजनीतिज्ञ,बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ताओं के रूप में प्रतिष्ठित व्यक्तियों के द्वारा होती रहती है। वास्तव में ऐसे विचारों को सामने रख कर पहले स्वयं इसका मूल्यांकन अथवा आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है, क्योंकि भारत का प्राचीन इतिहास यह संदेश देता है कि पूर्वोत्तर का क्षेत्र भारत का सनातन परिचय प्रकट करता है। भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र और उसके निवासी वास्तव में भारत माता के प्रहरी हैं। पूर्वोत्तर के निवासियों की धर्म-संस्कृति, परम्पराएं, रहन-सहन, लोकगीत, लोकनृत्य, सामूहिकता का जीवन, सामाजिक जीवन जीने की कला के प्रति निष्ठा आदि पर सूक्ष्म विचार करने की आवश्यकता है। यथार्थ यह है कि पूर्वोत्तर के निवासी भारत माता के अंगरक्षक हैं।

मुख्य धारा का तात्पर्य क्या है? भारत की मुख्य धारा है क्या? मेरा ऐसा चिंतन है कि भारत की मुख्य धारा का तात्पर्य है  भारतीय जीवनादर्श आधारित भारतीय संस्कृति के अनुरूप निवासियों का व्यवहार परिलक्षित होना। भारतीय संस्कृति का चित तो समान है, व्यवहार के सिद्धांत भी समान हैं; किन्तु क्रियान्वन की प्रक्रिया अलग-अलग है। प्रत्येक राज्य में निवास करने वाले निवासियों की जीवन प्रणाली उस राज्य के सामाजिक जीवन प्रणाली का दर्पण है। सामाजिक जीवन प्रणाली की भाषा, रहन-सहन, खान-पान, रीती-रिवाज, परम्पराएं अक्षुण्ण हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा  की जनजाति के युवा जब ढोलक की थाप पर नृत्य में थिरकने लगते हैं तो ऐसा लगता है कि नगालैंड, मिजोरम, अरुणाचल आदि पूर्वोत्तर राज्यों के निवासियों की ही नृत्य शैली है। बोली-भाषा के शब्दोच्चारण अलग हैं, पर धुन और लय में समानता है। यही कारण है कि पूर्वोत्तर भी भारत की विविधताओं के मध्य एकात्मता का ही दर्पण है।

यह ठीक है कि पश्चिमी परम्पराओं का प्रभाव पूर्वोत्तर के निवासियों पर है। पर क्या सिर्फ पूर्वोत्तर ही पश्चिम की नक़ल करता है? भारत के अनेकानेक बड़े-बड़े राज्यों में पश्चिमी संस्कारों का भूत दिखाई नहीं देता है? आज भी पूर्वोत्तर के निवासियों में सनातन परम्पराओं की झलक यह जीवंत उदाहरण प्रकट करता है। मैं ग्राम प्रवास पर था। सामने मैदान में एक कार्यक्रम चल रहा था।  जनजाति समाज के सैकड़ों लोग अपनी परम्परागत वेषभूषा में थिरकते हुए विशेष ध्वनि का उच्चारण गति-तरंगों की वैज्ञानिक पद्धति से कर रहे थे  हो…हो…हो..। मैंने एक से प्रश्न किया कि ये क्या कर रहे हैं? उत्तर मिला, ईश्वर का आवाहन कर रहे हैं कार्यक्रम में विराजमान होकर कार्यक्रम की सफलता के लिए। क्रियान्वय की प्रक्रिया में विविधता थी। पर वे ब्रह्मनाद कर रहे थे। फिर भैंसे के सिंग से नाद कर रहे थे। नाद ही तो इनके लिए शंखध्वनि थी। विविधता की शैली में भारतीय सनातन शैली ही परिलक्षित हो रही थी, जो भारतीय अथवा हिन्दू संस्कृति के जीते-जागते प्राणमय कोष का क्रियान्वयन पक्ष था।

दूसरी ओर यह अवश्य ही दिखाई देता है कि पूर्वोत्तर के निवासियों में विशेष कर जनजाति समाज का युवा हाथो में गिटार लेकर सड़कों पर, ग्रामों में, मंचों पर पॉप संगीत में लीन है। बालिकाएं अर्धवस्त्रों में अपनी सुन्दरता के प्रदर्शन से गर्वित हैं। पश्चिमी विद्वानों के जीवन को ही प्रेरणा मान कर अंग्रेजी भाषा को ही अपनी भाषा समझ बैठे हैं। मातृभाषा तथा अपने पूर्वजों की परम्पराओं के प्रति युवा समाज हेय दृष्टि रखने लगा है। संत ईसा मसीह का गले में लॉकेट रखना, घरों में ईसा मसीह का चित्र लगाना पवित्र मानता है। युवा समाज अपने कमरे में फ़िल्मी अभिनेता-नेत्रियों के अर्धनग्न चित्रों, पॉप गायकों, क्रिकेट खिलाड़ियों आदि के चित्रों को लगा कर गर्वित होता है। अर्थात यह कहा जा सकता है कि पूर्वोत्तर का युवा शरीरमय कोष तथा मनोमय कोष का विकास करता हुआ भोगवाद की ओर अग्रसर है। कितु यह अर्ध सत्य है। मैं एक आओ नागा के घर में बैठा था। वह ईसाई परिवार था। थोड़ी देर में क्या देखता हूं कि घर में महिलाएं आ रही हैं। २०-२५ महिलाएं आने के बाद वे सभी एक स्थान पर बैठ गईं और अपनी बोली में बुदबुदाने लगी। बुदबुदाते-बुदबुदाते सामूहिकतः अति तीव्र आवाज से बोलने लगीं। आधा घंटा यह सब चलता रहा। मैं उनके सामने ही बैठा रहा। समाप्ति के बाद सभी ने पानी से हाथ धोया और घर के प्रमुख को बोल कर चले गए। मैंने घर के प्रमुख महिलाओं से पूछा, यह क्या हो रहा था? उसने कहा, ईश्वर की प्रार्थना। मैंने कहा, पर जीजस की प्रार्थना जैसा तो नहीं लगा। उसने कहा, यह हमारी परम्परागत प्रार्थना है, जिससे घर भूत-प्रेत से सुरक्षित रहे। मेरे मन ने कहा, यही तो भारतीय सनातन परम्परागत संस्कृति है

 

ब्रिटिश शासन काल में भारतीय शिक्षा व्यवस्था का पश्चीमी-करण करना, स्वतंत्रता के बाद पुनः भारतीय शिक्षा व्यवस्था पुन-र्स्थापित नहीं करना, भारतीय संस्कृति की सुरक्षा तथा संवर्धन के लिए घातक सिद्ध हुआ है। ब्रिटिश सरकार ने अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मिशनरियों द्वारा सेवा कार्य से भारत की परम्पराओं को तहस-नहस कर दिया है। यह यथार्थ है। अर्थात शिक्षा एवं सेवा ही एक ऐसा माध्यम है जिससे समाज की सामाजिक जीवन प्रणाली राष्ट्र की प्रकृति के अनुकूल ही विकसित होती है।

विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान ने इस चुनौती को स्वीकार कर गोरखपुर में प्रथम शिशु मंदिर की स्थापना में प्रखर भूमिका निर्वाह करने वाले एक वरिष्ठ प्रचारक और विद्या भारती के तत्कालीन क्षेत्र संगठन मंत्री कृष्णचंद्र गांधी को पूर्वोत्तर के नगरों, कस्बों तथा ग्रामों में शिक्षण संस्थानों की स्थापना का कार्य सौपा। असम के तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्रीकांत जोशी के अथक प्रयास से १९७९ में असम राज्य के गुवाहाटी तथा मणिपुर के इम्फाल में विद्यालय का श्रीगणेश किया गया। असम में विद्यालय का नाम रखा गया शंकरदेब शिशु निकेतन और मणिपुर में बाल विद्या मंदिर। असम में विद्या भारती के पहले संगठन मंत्री बने विराग पाचपोर। विद्यालय का नामकरण ही विद्या भारती था। १९८१ के वर्ष में विद्या भारती ने पूर्वोत्तर के जनजातीय समाज के मध्य कार्य के लिए कदम बढ़ाया। सौभाग्य से इस पवित्र कार्य के लिए लखनऊ से तत्कालीन क्षेत्र प्रचारक भाऊराव देवरस और कृष्णचंद्र गांधी ने मुझे हाफलोंग में भेजा। असम के बड़ो हाफलोंग स्थान पर ग्राम बूढ़ा नामदा से दान स्वरूप प्राप्त भूमि पर २४ नवम्बर १९८२ को पूर्व-सरसंघचालक एवं तत्कालीन क्षेत्र प्रचारक श्री कुप्पहल्ली सीतारामय्या सुदर्शन के करकमलों से मूसलाधार वर्षा में भूमिपूजन हुआ। १८ फरवरी १९८३ को सरस्वती पूजा के दिन सरस्वती विद्या मंदिर का शुभारम्भ हुआ। पूर्वोत्तर में विद्या भारती की ९ पंजीकृत समितियां हैं। चुनौतियों का सामना करते हुए मिजोरम तथा नगालैंड जैसे ईसाई बहुल क्षेत्र में भी विद्यालय हैं। स्थानीय सनातन परम्पराओं, आराध्य एवं महापुरुषों को मान्यता प्रदान करते हुए विभिन्न नामों से विद्या भारती के ५९३ शिक्षण संस्थानों में ९३८७ आचार्यों द्वारा १,६७,०३१ विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान की जा रही है। इसमें २७ छात्रावासों में ५१२ बालिकाएं और १३१७ बालक कुल १८२९ विद्यार्थियों के लिए शिक्षा और संस्कार का सेवा कार्य हो रहा है। इसके अतिरिक्त ५४० एकल-शिक्षक विद्यालय असम के कोकराझार तथा करबी-आंगलोंग जिले में हैं।

विद्या भारती का ऐसा मानना है कि शिक्षा में परम्परागत सामाजिक एवं देशभक्ति का संस्कार अति आवश्यक है। शिक्षा नीरस बनती जा रही है। शिक्षा प्रमाण पत्र संग्रह का एक साधन मात्र बनता जा रहा है। यदि भारत को एक सुदृढ़ राष्ट्र बनाना है तो हमारी शिक्षा और उसकी व्यवस्था को सुनागरिक बनाने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण बनाना होगा। समाज के दीन-हीन निरीह बंधुओं के लिए भी सरल एवं सुगम शिक्षा की व्यवस्था आवश्यक है। स्थानीय वीर, साधक, महापुरुष, साहित्यकार, क्रीड़ाविद आदि को शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान देना होगा।

भारत का पूर्वोत्तर और उसके निवासियों की वीर गाथा हमें संदेश देती है कि उन्होंने ने भी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में जीवन समर्पित किया है, जीवन का त्याग और बलिदान किया है, हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूमा है। वीर लाचित बरफुकन के वीरोचित ओजस्वी बोल कि देश से बढ़ कर मामा नहीं; वीरांगना रानी मां गाईदिन्लियु का वह संदेश कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है और मैंने अपना जीवन भारत की एकता के लिए ही जिया है। ऐसे अनेकानेक संत-महात्माओं एवं तीर्थ स्थलों से युक्त हमारा पूर्वोत्तर बार-बार ललकारता हुआ संदेश देता है कि हमें जानो, पहचानो और समझो। हम भी उसी पथ के पथिक हैं, जो कहता है भारत माता की जय।

विद्या भारती पूर्वोत्तर क्षेत्र की ९ प्रदेश समितियों के अंतर्गत चलने वाले विद्यालयों में शिक्षा के साथ-साथ स्थानीय वीरों, साधकों, महापुरुषों, साहित्यकारों, क्रीड़ाविदों आदि के जीवन-प्रसंगों, लोककथा, लोकगीत, लोकनृत्य, लोकचित्र आदि को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। वर्तमान समय में पूर्वोत्तर की वीरांगना स्वतंत्रता सेनानी, आध्यात्मिक संत, पद्मविभूषित रानी मां गाईदिन्लियु के जन्म शती वर्ष के अवसर पर एक-एक विद्यालय ने रानी गाईदिन्लियु को समर्पित कर सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें हजारों की संख्या में माता-बहनों ने भाग लिया। नगालैंड प्रदेश में चर्च प्रेरित नगा बंधुओं का विरोध रानी गाईदिन्लियु के प्रति है। इसका कारण है-रानी मां का देशभक्त होना, ईसाई धर्म प्रचार का विरोध करना और ए.जेड.फिजो द्वारा नगालैंड को भारत से अलग देश बनाने के नेतृत्व का अस्वीकार करना।

विद्या भारती नगालैंड प्रदेश समिति जनजाति शिक्षा समिति ने सरकारी शिक्षा विभाग से परिपत्र जारी करवाकर रानी मां के जीवन पर आधारित निबंध प्रतियोगिता का आयोजन विगत दिसम्बर २०१४ में कराया। १४६ शिक्षण संस्थानों से संपर्क हुआ। ५६ शिक्षण संस्थानों से निबंध आए। २८ फरवरी २०१५ को दीमापुर नगर में एक शैक्षिक सभा का आयोजन किया गया। उच्च शिक्षा के निर्देशक टी. खालोंग, तकनीक शिक्षा के निर्देशक अथिली काथिप्री, नगालैंड विश्वविद्यालय के डीन धर्मपुरिया चतुर्वेदी और द ग्लोबल ओपन यूनिवर्सिटी के उप-कुलाधिपति डॉ. हेमेन दत्त की उपस्थिति में शिक्षा से जुड़े रानी मां के जीवन प्रसंगों को दीमापुर नगर के उच्चत्तर विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में शिक्षक तथा विद्यार्थी समूह के समक्ष रखा गया। सभी ने रानी मां के जीवन समर्पण एवं त्याग के प्रति श्रध्दा सुमन समर्पित किए। विद्या भारती शिक्षा पद्धति की प्रशंसा ही नहीं तो वर्तमान समय के लिए समाज की आवश्यकता बताया।

विद्या भारती के विद्यालय जहां बांग्लादेश की सीमा पर अवास्थित हैं, वहीं सुदूर पर्वतीय अंचलों में भी विस्तारित हैं। पूर्व विद्यार्थियों और अभिभावकों का सहयोग तो प्राप्त हो ही रहा है, साथ ही साथ पूर्वाधारित संकीर्ण मानसिकता में परिवर्तन दिखाई देने लगा है। भारत माता की जय की आवाज ग्राम, नगर, कस्बों में गुंजन करने लगी है। विद्या भारती ने अच्छी शिक्षा की व्यवस्था के लिए भारत के विभिन्न विद्या भारती के आवासीय विद्यालयों में पूर्वोत्तर के चयनित जनजातीय विद्यार्थियों की व्यवस्था की है। वर्तमान में ऐसे १३४२ विद्यार्थी हैं, जो पूर्वोत्तर से बाहर अध्ययन कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के हापुड़ नामक स्थान पर तो सिर्फ पूर्वोत्तर की बालिकाओं के लिए ही वनवासी छात्रावास है, जहां वर्तमान में ७२ बालिकाएं हैं।

राष्ट्रीय शिक्षा एवं संस्कार की व्यवस्था एवं विस्तार के क्रम ने पूर्वोत्तर के निवासियों में पुनः नवजीवन का संदेश दिया है, जो आगे भी बढ़ते रहेगा। अन्यान्य राष्ट्रीय संस्थानों के कार्यों का सुखद प्रवाह भी एकात्म भारत और समरस भारत का स्थायित्व संस्कार निर्मित होता जा रहा है। पर हमें और भी दूर जाना है, चलते रहना है तब तक जब तक भारत से दूरस्थ मानसिकता के वातावरण को शिक्षा, सेवा एवं संस्कार के माध्यम से पूर्णतः एकात्म मानसिकता का शुद्ध वातावरण निर्मित नहीं होगा। चरैवेति, चरैवेति चलते जाना है, चलते जाएंगे। बाधाएं पहले भी थीं, आज भी हैं। चुनौतियां पहले भी थीं, आज भी हैं। पर अतीत में हम अकेले थे, आज अकेले नहीं हैं, पूर्वोत्तर का युवा ही नहीं, ग्राम-कस्बों का जनजातीय एवं अन्यान्य समाज खड़ा होता जा रहा है।

आइए इस सकारात्मक वातावरण में हम अपनी सहयोगिता एवं सहभागिता की गति में तीव्रता लाएं। चलें, चलें… हम पूर्वोत्तर की ओर चलें, चलते जाएं उस छोर तक जहां अखंड भारत की सीमाएं बार-बार बाहें फैला कर आलिंगन करने के लिए आतुर हैं।

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