समाजसेवा ही लक्ष्य

समाज सेवा करने की प्रतिज्ञा लेने वाले तथा जीवनभर उसे निभाने वाले समाज में कुछ बिरले लोग दिखाई देते हैं। इन्हीं में से ेएक हैं सुरेंद्र तालखेडकर जी।

मूलत: महाराष्ट्र के परभणी जिले के सुरेंद्र जी २१ वर्ष की आयु में रा.स्व.संघ के प्रचारक बने। प्रचारक जीवन के पहले ५ वर्षों में उन्होंने गोवा तथा सिंधुदुर्ग में कार्य किया। इसके बाद सन १९९६ से लेकर अब तक वे मेघालय में सेवा भारती के उपक्रमों का दायित्व निभा रहे हैं। विवेकानंद केंद्र, सेवा भारती, विद्या भारती, कल्याण आश्रम आदि संस्थाओं के कई कार्यकर्ता पिछले कई सालों से किसी भी प्रकार का मानधन लिए बिना पूर्वोत्तर जैसे प्रदेश में निरंतर कार्य कर रहे हैं। इन लोगों ने ‘मानव सेवा ही ईश सेवा’ को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है।

सेवा करके लोगों को सुखी करने के उद्देश्य स्थापित संस्था है सेवा भारती। सन १९५० से यह संस्था समाज के विभिन्न वर्गों में काम कर रही है। पूर्वोत्तर में इसकी स्थापना सन १९९८ में हुई। जब सुरेंद्र जी ने पूर्वोत्तर में कदम रखा तब परिस्थिति अत्यंत विकट थी। वहाम के लोगों के मन में अपने प्रति विश्वास निर्माण करना उस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता थी। सुरेंद्र जी ने सबसे पहले वहां की भाषा सीखना शुरू किया। गारो, खासी, कोच, हजंग, राभा आदि जनजातियों की भाषा पर उनका प्रभुत्व है। उन्होंने अपना खान-पान भी उन लोगों का ही अपना लिया है। उन्हीं लोगों में से एक बनकर, उनकी संवेदनाएं जानकर, हमेशा मदद करने के लिए तैयार होकर वे अपने विचार धीरे-धीरे उन लोगों तक पहुंचा सके। इस कालखंड में उन्होंने अनेक तरह की समस्याओं का सामना किया।

एक बार मोटर साइकिल से एक गांव से दूसरे गांव जाते समय उन्हें उग्रवादियों ने घेर लिया। बंदूक दिखाकर उनसे पैसे देने को कहा। सुरेंद्र जी के पास आनेजाने के खर्चे के लिए कुछ ही पैसे थे। परंतु उनकी सोच थी कि वे पैसे तो समाज के हैं, उनकी रक्षा की जानी चाहिए। अचानक उन्होंने कहा ‘मैं तो यहां का फादर हूं। मेरे पास पैसे कैसे हो सकते हैं माय चाइल्ड?’ सुरेंद्र जी कहते हैं ‘मैं कुछ मोटा, गोलमटोल कुर्ता पैजामा पहनने के कारण उन्होंने मुझे फादर मान भी लिया। और फिर मैंने येशू के नाम पर चार बातें भी सुना डालीं।

सदैव प्रसन्न रहने वाले सुनील तालखेडकर जी ने अपनी निरंतर सेवा और विभिन्न प्रयासों के माध्यम से पूर्वोत्तर में सेवा भारती के काम को एक मजबूत आधार प्रदान किया है। अब वहाम जाकर कार्य करना किसी कार्यकर्ता के लिए शायद उतना कठिन नहीं होगा। परंतु शून्य से शुरूआत करके, सारी विपरीत परिस्थितियों का सामना करके, अपनी जान जोखिम में डालकर किसी कार्य को विशिष्ट स्तर तक पहुंचाना बहुत बड़ी बात है। सुरेंद्र जी ने पूर्वोत्तर में सेवा भारती के माध्यम से यही किया है। उनके इस जज्बे को प्रणाम!

 

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