राजस्थान के सीमावर्ती गांव

देशभक्ति से ओत-प्रोत बेखौफ सरहद के ये बाशिन्दे ही हैं, जो हमारी प्रथम रक्षा पंक्ति के सजग सीमा प्रहरी हैं। लेकिन अधिकांश सीमावर्ती गांव 70 वर्ष की आज़ादी के बाद भी अभी तक सड़क, बिजली जैसी प्राथमिक सुविधाओं से भी वंचित हैं। बहुत सी सरकारी योजनाएं इन गांवों तक पहुंचती ही नहीं।

सीमावर्ती गांवों को खाली करवाया जाना, सीमावर्ती गांवों से लोगों का पलायन करना यह समाचार आपने कई बार सुना होगा। और लोगों के गांव खाली करने के द़ृश्य भी टी.वी. चैनलों पर देखे होंगे। करोड़ों देश-वासियों के लिए यह एक न्यूज होती है। लेकिन अचानक ही अपना गांव घर छोड़ कर जाना कितना मुश्किल है? इसकी अनुभूति समाचारों, फेसबुक, वाट्सएप्प से नहीं हो सकती। पलायन कितना पीड़ादायक होता है। यह पलायन किए लोगों के साथ कुछ समय बिताने से ही समझ सकते हैं। मैंने राजस्थान के सीमावर्ती गांवों में घूम-घूम कर यह अनुभव किया है।
सीमावर्ती गांवों की गतिविधियां और ग्रामवासियों में चर्चा के विषय देश भर के अन्य गांवों से किसी भी प्रकार से मेल नहीं खाते हैं। सन 1947 से लेकर आज तक भारत-पाकिस्तान के बीच जब-जब भी तनाव बढ़ा है, तब-तब देश भर में लोगों में देशभक्ति का ज्वार आता है। विशेष कर शहरों में विभिन्न प्रकार के देशभक्ति के कार्यक्रम होते हैं। किन्तु सरहद पर रहने वाले ग्रामीणों का तो देशभक्ति नित्य का विषय होता है। लेकिन तनाव बढ़ने पर सीमावर्ती गांवों में बसे लोग तनावग्रस्त, और सीमा सुरक्षा बल के जवान मुस्तैद होते हैं। सेना नए बंकर तैयार और पुराने बंकरों की मरम्मत करती है। ग्रामवासी इनका विभिन्न प्रकार से सहयोग करते हैं। ऐसे माहौल में लोग केवल देशभक्ति के कार्यक्रम ही नहीं करते बल्कि जवानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कहते हैं-

स्वागत है हे वीर जवानों, स्वागत आज तुम्हारा है
देख वीरता सीमाओं पर, गर्वित हृदय हमारा है।

यह भी एक विचित्रता है कि पृथ्वी के जिन भागों में जिन्दगी जितनी कठिन और संघर्षशील है वहां लोगों की जिंदगी में भी वैसी ही तेजी, खुलापन और आवेगमयता मिलती है। जहां जिंदगी आसान होती है वहां वह बुझी-बुझी और घुटी-घुटी, फुसफुसी हो जाती है। इतिहास उठा कर देख लीजिए रेगिस्तान हो चाहें पहाड़, टुण्ड्रा हो चाहें सहारा, जहां भी प्रकृति विकराल है वहां के निवासी भी दिल के खुले और जानदार, प्रेम और जोरदार घृणा करने वाले मिलेंगे। उनकी जिंदगी जैसे तेज सिरका है, गंदला ठहरा पोखर का जल नहीं।

थार मरुस्थल से आच्छादित राजस्थान का पश्चिमी क्षेत्र भी कुछ इसी प्रकार है। सोने के समान चमचमाते रेत के टीले, दूर तक गहराता रेत का विशाल समुद्र, गर्मियों में झुलसा देने वाला ताप और रेत की आंधियां तो शीतकाल में हड्डियों को जमा देने वाली सर्दी। मरूधरा पर रहने वाले मेहनतकश ग्रामीणों का जीवन संघर्षों के बावजूद भी शांतिपूर्ण रहा। 1947 के अप्राकृतिक भारत विभाजन ने इस मरूधरा पर भी सीमा रेखा खींच कर लोगों का जीवन और अधिक संघर्षमय बना दिया।

जो बीच भंवर पैदा होते हैं, जो तूफानों में पलते हैं
धरती की किस्मत का नक्शा, ऐसे ही लोग बदलते हैं।

राजस्थान के चार जिले सीमावर्ती हो गए। पाकिस्तान से बाड़मेर की 232 किमी, जैसलमेर की 472 किमी, बीकानेर की 140 किमी और श्रीगंगानगर की 196 किमी अंतरराष्ट्रीय सीमा लग गई। 70 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक भू-भाग में फैले जैसलमेर-बाड़मेर के सीमावर्ती गांवों में 1965 के भारत-पाक युद्ध से पूर्व तक लोगों को यह आभास भी नहीं हुआ कि हम सीमावर्ती हो गए। क्योंकि सिंध के गांव-कस्बों में आना-जाना, लेन-देन, रिश्ते-नाते पूर्व की भांति चल रहे थे। तभी तो भारत माता की दाहिनी भुजा कटना, शरीर पर नई सीमा रेखा का खींचना अर्थात अप्राकृतिक भारत विभाजन कहते हैं।

1965 के युद्ध में सेना को सीमा तक पहुंचने में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ा। जैसलमेर-बाड़मेर में कुछ रास्तों पर सरकारी कागजों में जहां पक्की सड़कें थीं वहां जमीन पर कच्चे रास्ते भी ठीक प्रकार के नहीं थे। सीमावर्ती गांवों के लोगों ने रेगिस्तान में रास्ते दिखाने का काम किया। अपने हथियार लेकर सेना के साथ आगे बढ़े। भारतीय सेना ने 2250 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले पाकिस्तान के कई सामरिक ठिकानों व करीब 30 गांवों पर कब्जा कर लिया। युद्ध के बाद इन जिलों में सीमा सुरक्षा को लेकर सड़क वगैर के काम प्रारम्भ हुए। सीमा सुरक्षा बल का (बी.एस.एफ.) का गठन हुआ। और अग्रिम सीमा चौकियों पर बी.एस.एफ. तैनात हुई। 1971 के युद्ध में बाड़मेर मोर्चे से भारतीय सेना ने पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र में घुस कर दस हजार वर्ग किमी क्षेत्र एवं सैकड़ों गांवों पर कब्जा किया। और छह महीनों तक वहां भारत का शासन रहा।

देशभक्ति से ओत-प्रोत बेखौफ सरहद के ये बाशिन्दे ही हैं, जो हमारी प्रथम रक्षा पंक्ति के सजग सीमा प्रहरी हैं। परंतु वातानुकूलित भवनों में बैठ कर योजना बनाने वाले और शासन चलाने वालों का ध्यान यहां नहीं जाता। तभी तो अधिकांश सीमावर्ती गांव 70 वर्ष की आज़ादी के बाद भी अभी तक सड़क, बिजली जैसी प्राथमिक सुविधाओं से भी वंचित हैं। शिक्षक, चिकित्साकर्मी व अन्य सरकारी कर्मचारी तो इन गांवों में टिकते नहीं। बहुत सी सरकारी योजनाएं इन गांवों तक पहुंचती ही नहीं। असुविधाओं तथा उपेक्षा ने इन सीमांत गांवों के विकास आयामों मे रोड़े डाले हैं।

बीसवीं शताब्दी के नवें दशक का प्रारम्भ (1980 से) भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों के लिए आतंकवाद, घुसपैठ, तस्करी जैसी समस्याओं के तेजी से विस्तार के साथ हुआ। देश के शासनकर्ताओं ने स्वतंत्रता के बाद सीमाओं की सुरक्षा के विषय को जितनी गम्भीरता से लेना चाहिए था उतना नहीं लिया। जिसकी परिणिति यह हुई कि कणक (गेहूं), कपास और केसर की क्यारियों वाले पंजाब एवं कश्मीर में आतंकवाद की फसल लहलहाने लगी। पूर्वांचल में लाखों बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ से राष्ट्रद्रोही गतिविधियां तेज हो गईं। असम में गृहयुद्ध के हालात बन गए। असम के छात्र आंदोलन ने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया, सीमाओं की सुरक्षा को लेकर देश में हर स्तर पर चर्चाएं होने लगीं।

इन्हीं दिनों शांत एवं सुरक्षित दिखाई देन वाले राजस्थान के सीमांत क्षेत्र में भी राजस्थान नहर के प्रवेश से कुछ अप्रत्याशित घटनाएं घटने लगीं। पाकिस्तान की बढ़ती दखलंदाजी से तस्कर घुसपैठ एवं नहरी क्षेत्र में अवैध भूमि आवंटन ने हलचल पैदा कर दी। राजस्थान की 1040 किमी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर नित्य कहीं न कहीं अराष्ट्रीय घटनाएं होने लगीं। जैसलमेर जिला तो अराष्ट्रीय गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बन गया। देशद्रोही कार्यों का संचालन करने वाले प्रमुख लोगों को तत्कालीन सत्तारूढ कांग्रेस पार्टी के नेताओं का आश्रय मिलने से जैसलमेर, बाड़मेर में कानून व्यवस्था बनाए रखने वाली प्रशासनिक मशीनरी को भी पंगु बना दिया गया। सीमांत क्षेत्र में इस प्रकार तेज गति से बिगड़ती परिस्थितियों को देख कर देशभक्त लोग चिंतित एवं चौकन्ने होने लगे। तब सीमांत क्षेत्र की समस्याओं को लेकर संगठन बनाने की पहल राजस्थान में हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक की प्रेरणा से सीमाजन कल्याण समिति राजस्थान के नाम से संगठन बना।

सीमाजन कल्याण समिति राजस्थान के प्रांत संगठन मंत्री नीम्ब सिंह कहते हैं कि राजस्थान का सीमावर्ती क्षेत्र भारतमाता की दाहिनी भुजा है। शरीर में ताकत का प्राकट्य दाहिनी भुजा से ही होता है। सीमाजन कल्याण समिति राजस्थान 1600 गांवों को अपना कार्य क्षेत्र मान कर इस भुजा को मजबूत बनाने का कार्य कर रही है। 150 गांवों को शक्ति केन्द्र के रूप में खड़ा किया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगते बाड़मेर जिले के 58, जैसलमेर के 42, बीकानेर के 20 और श्रीगंगानगर के 71 गांव हैं। सीमा से सटे इन 191 गांवों में से 50 के लगभग मुस्लिम बाहुल्य गांव हैं।
वैसे सांय-सांय करती रातों और तपती दोहपरी में भी राजस्थान के सीमावर्ती गांवों केे बाशिन्दे अपने मनोबल की उच्चतम बुलंदियों के साथ जीवन यापन करते हैं। लेकिन सीमावर्ती गांवों के लिए सरकार को देश भर के अन्य गांवों से अलग प्रकार की योजनाएं बनानी चाहिए। सीमाओं से दूर देश के अंदर रहने वाले समाज को भी इन अग्रिम पंक्ति के सीमा प्रहरियों के लिए कुछ करना चाहिए। जिस खेत की बाड़ सुरक्षित होती है उसके अंदर ही फसलें लहलहाती है, ठीक उसी प्रकार जिस राष्ट्र की सीमाएं सुरक्षित और सीमावर्ती समाज देशभक्त व मजबूत होता है, उसके अंदर अमन-चैन और शांति रहती है। अत: आओ-

भारत भूमि के पुत्रों, ले संकल्प महान।
सर्वदूर सीमा संकट से, अस्थिर हिन्दुस्थान।
तन, मन, धन, अर्पित कर, करें सीमा का उत्थान।

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