मेक इन विलेज

ब्रीटिश शासन के पहले भारत वर्ष एक समृद्ध राष्ट्र था, भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यत: कृषि एवं ग्रामीण लधु उद्योगों पर आधारित थी। अधिकांश जनसंख्या की जीविका का साधन कृषि व्यवस्था थी जो कि पूर्णरूपेण आत्मनिर्भर एवं परस्पर आश्रित थी। भारतीय कृषि मुख्यत: खाद्य फसलों- धान, गेहूं, चना, अरहर, सरसों, तिल, अलसी, मूंग, उड़द, जौ, सांवा, रागी, गन्ना, मिर्च, आलू, प्याज, लहसुन आदि अन्य सब्जियोंं पर केंद्रित होती थी। कृषि कार्य में रासायनिक उर्वरकों का कोई उपयोग नहीं होता था और गाय-बैलों का गोबर एवं मूत्र आदि से बनी खाद ही खेतों में डाली जाती थी जिससे प्रत्येक खाद्य पदार्थ अपने प्राकृतिक खुशबू के साथ उत्पन्न होता था और प्राकृतिक प्रोटीन, विटामिन, तेल, सब्जियां एवं फल हमें प्राप्त हो जाते थे। अंग्रेजों ने भारतीय लोगों की इस विधा को नष्ट करने के लिए ही रासायनिक खादों- यूरिया, पोटाश आदि का प्रचार शुरू किया तथा अपने उद्योग लगा कर भारतीय खेतों को नष्ट करने का षड्यंत्र शुरू किया। इसी तरह २०० साल पहले भारत में कोई चाय नहीं पीता था। अंग्रेजोंें ने ही भारतीयों को चाय पीना सिखाया। आज कुछ चाय कंपनियां मिल कर इसे ‘‘राष्ट्रीय पेय’’ का दर्जा दिलाना चाहती हैं जबकि हजारों वर्षों से गाय का दूध ही हमारा राष्ट्रीय पेय रहा है और हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मूलाधार गौ-पालन युक्त कृषि रहा है। वेदों एवं शास्त्रों में लिखा है अमृतं किं? अर्थात् अमृत क्या है तो उत्तर मिलता है-गवां पय: अर्थात् गाय का दूध। आज गौ हत्या एवं गौ मांस सेवन को कुछ लोग मानव के लिए उपयोगी बता कर भारत को विश्व का सबसे बड़ा ’बीफ एक्सपोर्टर’ बना डाले हैं, लेकिन यह भारतीय घरों को कुपोषणयुक्त एवं गरीब बनाने का एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र दिखाई देता है। जब हमारी पीढ़ियां कमजोर हो जाएंगी तो हमें कुचलना आसान हो जाएगा।
इसी प्रकार हमारे देश के किसान कपास, मसाले, पटसन, रेशम आदि की खेती भी करते थे और ग्रामीण उद्योग जैसे धान की कुटाई, अन्नों की पिसाई, गन्ने की पिराई व गुड़ और मिश्री बनाना, तेल निकालना आदि कृषि आधारित हुआ करते थे। वहीं लोग कृषि कार्य के अतिरिक्त समय में चरखा से धागे बनाते थे और सूती व रेशमी कपड़े, चमड़े के जूते-थैले आदि तथा लकड़ी व अन्य सामान के हस्तशिल्प एवं मलमल के कपड़े आदि बनाते थे। भारत में क्षेत्रवार भी उद्योग विकसित हुए जैसे कन्नौज का इत्र, मुर्शिदाबाद, लाहौर, आगरा, सूरत के रेशमी कपड़े, ढाका, लखनऊ, नागपुर के सूती कपड़े, बनारस की साड़ियां, पुणे, नासिक, अहमदाबाद, विशाखापटट्नम व तंजौर के बने कांसे व पीतल के बर्तन, जयपुर की संगमरमर कला, मैसूर का चंदन आदि प्रसिद्ध थे। दस्तकारों या उद्यमियों को यह ज्ञान परिवार से पीढ़ी दर पीढ़ी प्राप्त होता था और वे उस कला में निष्णात हो जाते थे। यहां ग्रामीण उद्योग का स्वरूप पारिवारिक था अतएव बेरोजगारों की समस्या नहीं होती थी और वयस्क होने के बाद प्रत्येक बालक-बालिका इन पारिवारिक उद्योगों में कार्यरत हो जाता था और जीवनयापन कर लेता था।
इकॉनोमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया के अनुसार भारतीय गांव आत्मनिर्भर थे। वे सामान्यतया गांव से बाहर की वस्तु न खरीदते थे और न बेचते थे किंतु व्यापारी वर्ग उनसे बनी वस्तुएं लेकर उनका निर्यात करता था। भारतीय कपड़ा ईरान, सीरिया, अरब, ग्रीस व इटली के साथ-साथ यूरोप के अनेक देशों द्वारा खरीदा जाता था। यहां के मसाले, काली मिर्च, नील, अफीम, रेशमी वस्त्र, कसीदाकारी, जरी व धातु की कलात्मक वस्तुओं की भी विदेशों में अच्छी मांग थी। यह भी सच है कि तब गांवों को आपस में जोड़ने वाली बारहमासी सड़कों का अभाव था किंतु बड़े शहरों के बीच आवागमन की सुविधाएं उपलब्ध थीं। सड़क परिवहन के अलावा जल परिवहन का भी ग्रामीण उपयोग किया करते थे। भारत के नगरों व गांवों में सेठ लोग निजी बैंक चलाते थे और ये सेठ राजाओं को तक उधार दिया करते थे। इस प्रकार भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था स्व-संपोषित थी और ग्रामीण समुदाय का श्रम विभाजन परिवार आधारित था। किसान कृषि कार्य व पशुपालन करते थे वहीं कुम्हार मिट्टी के उपयोगी बर्तन बनाता था और घरों में मिट्टी के बर्तनों में खाना बनता था अब वैज्ञानिक शोध से यह सिद्ध हो चुका है कि मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाना निरापद होता है, वहीं एल्यूमीनियम के बर्तन में खाना खाने से पेट की बीमारियां होना निश्चित है। इसी तरह लोहे की कढ़ाई में सब्जी बनती थी, जो लोहयुक्त होती थी और आयरन’ का कुपोषण तब नहीं हो पाता था। इसी तरह बढ़ई, धोबी, सुनार, जुलाहे अपना-अपना कार्य किया करते थे और इनके कार्य के बदले में सोना-चांदी या अनाज द्वारा भुगतान किया जाता था। ईसा से २००० वर्ष पूर्व मिश्र में बने पिरामिड में रखी ममी को जिस कपड़े में लपेटा गया है वह भारतीय मलमल है जो आधुनिक शोध से सिद्ध हुआ है। इस प्रकार भारतीय ग्रामीण उद्योगों की अतरराष्ट्रीय पहचान इतने प्राचीन समय में भी थी, यह स्वत: सिद्ध है।
अंग्रेजोंें के आने के बाद हमारा हजारों वर्षों का यह आर्थिक ढांचा ढह गया और ग्राम केंद्रित अर्थव्यवस्था की जगह अब हम शहर केंद्रित बाजार अर्थव्यवस्था में शामिल हो गए हैं और अब ’स्मार्ट गांव’ बनाने के बजाए सरकारों का पूरा जोर ‘स्मार्ट सिटी’ पर हो गया है। आज बाजार में उपलब्ध प्रत्येक वस्तु पर मूल्य, उत्पादक द्वारा निश्चित किया जाता है किंतु कृषक उत्पादों का मूल्य किसान नहीं बिचौलिये एवं व्यापारी तय करते हैं, यह स्वतंत्र भारत में कितनी बड़ी विडंबना है। किसान से ४० रू. किलो खरीदा गया अरहर बाजार में २०० रू. किलो में बेचा जा रहा है। ऐसे ही प्रत्येक कृषि उत्पाद का हो रहा है जिससे लाभ व्यापारियों को मिल रहा है। भारत की कुल जनसंख्या में ६८ प्रतिशत लोग कृषि कार्य करते हैं, किंतु इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार जी. डी. पी. में कृषि का योगदान १४.५ प्रतिशत का ही है। आज भारत में कृषि भूमि का ४० प्रतिशत हिस्सा केवल ६ प्रतिशत बड़े किसानों के पास है। छोटे किसान धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं। १९९१ में १ हेक्टेयर से कम भूमि के मालिक किसान ७०.१ प्रतिशत थे जो २००२-०३ में बढ़ कर ७९.० प्रतिशत हो गए हैं। इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि हमारा देश पूंजीवादी बाजारू अर्थव्यवस्था की ओर तेजी से बढ़ रहा है। बीज, खाद व कीटनाशक के दाम बढ़ रहे हैं और छोटे किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है।
इकोनॉमिक सर्वे २०१२ के अनुसार भारत में २०१०-११ में १२६७.६५ लाख हेक्टेयर में अनाज उपजाया गया था, किन्तु २०११-१२ में यह घट कर १२५४.०२ लाख हेक्टेयर रह गया था। इससे यह लगता है कि किसान खेती छोड़ रहे हैं और खेतों में कृषि कार्य के बजाए उद्योग और कल कारखाने लगाए जा रहे हैं। प्रति वर्ष देश के विभिन्न राज्यों में हजारों किसान आत्महत्या करने को बाध्य हैं। मुझे यह लगता है कि हमें अपने विकास की अवधारणा पर पुनर्विचार करना चाहिए और किसानों को खेती करने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए।
वास्तव में ब्रिटिश शासन की नीतियों के कारण हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर विनाशक प्रभाव पड़ा है। १८५७ से १९४७ तक के उपलब्ध आंकड़ों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि १८६१ में यहां कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या ६२ प्रतिशत थी जो १९४६ में बढ़ कर ७० प्रतिशत हो गई। इसी प्रकार प्रति व्यक्ति आय में भी इन ९० वर्षों में कोई विशेष वृद्धि नहीं हुई। भारत में गरीबी बढ़ी क्योंकि अंग्रेजों ने पुरानी भूमि व्यवस्था को समाप्त कर नई जमींदारी प्रथा को जन्म दिया और ग्रामीण उद्योगों को समाप्त किया। उन्होंने कच्चे माल के उत्पादन को प्रोत्साहित किया किन्तु पक्का निर्मित माल वे अपने उद्योगों में पैदा कर ऊंचे मूल्य पर भारतीयों को ही बेच कर लाभ कमाने लगे, जिससे ग्रामों की आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई। पहले भारत का किसान खेत में गन्ना उपजाता था और गुड़ का निर्माण भी स्वयं ही किया करता था। अंग्रेजों ने गुड़ बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया तथा अपनी शक्कर फैक्ट्रियों में गन्ना बेचना अनिवार्य कर दिया, जबकि शक्कर, गुड़ की अपेक्षा अत्यंत हानिकारक पदार्थ है। आर. दत्त की इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया में लिखा है कि भारतीय मजदूर अंग्रेजों की ही फैक्ट्री में काम करने को बाध्य किए गए और उनकी फैक्ट्री से बाहर काम करने पर भारतीय मजदूरों पर भारी जुर्माना लगाया जाता था। उन्होंने भारत के विभिन्न प्रांतों में संचालित गुरूकुलों को बंद कर दिया तथा अंग्रेजी की शिक्षा देने वाली शालाएं प्रारंभ कीं। अब यह शिक्षा शास्त्र का स्थापित सिद्धांत है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने पर बच्चा सभी विषयों को जल्दी सीखता है। हम लोग छठवीं कक्षा से अंग्रेजी पढ़ना प्रारंभ किए थे किन्तु अब भारत के सभी राज्यों में पहली कक्षा से अंग्रेजी शिक्षा अनिवार्य कर दी गई है। इस प्रकार अंग्रेजों के १५० वर्ष के शासन के बाद भारत में पराधीन अर्थव्यवस्था विकसित हुई तथा गरीबी बढ़ गई।
अंग्रेजों के जाने के बाद भी भारत उन्हीं की नीतियों पर चलता रहा और अब हम पुन: मेक इन विलेज की ओर जा सकते हैं तथा अंग्रेजों और अंग्रेजों के मानस पुत्रों से अलग ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित कर सकते हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने वर्ष २०१४-१५ से अलग कृषि बजट देना प्रारंभ किया एवं ब्याजमुक्त ॠण किसानों को उपलब्ध कराया गया। इस वर्ष २०१६-१७ के बजट में भारत सरकार ने भी कृषि तथा किसानों हेतु ३५,९८४ करोड़ का आबंटन किया है। देश की ६८.८४ प्रतिशत आबादी की आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि है और सरकार द्वारा २८.५ लाख हेक्टेयर कृषि भूमि को सिंचित बनाने का लक्ष्य प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना में इस वर्ष रखा गया है। देश की प्रत्येक सरकार ने गांव, गरीब, किसान और मजदूर के विकास की बात पिछले ६८ वर्षों में की है किन्तु आज भी देश का ५५ प्रतिशत कृषि क्षेत्र वर्षा पर ही निर्भर है। आज आवश्यकता है कि सभी नदी-नालों पर जगह-जगह पक्के चेक डेम बनाये जाए, पुराने तालाबों का गहरीकरण किया जाए और नए तालाबों के निर्माण को प्राथमिकता दी जाए। आजादी के २०० वर्ष पहले मद्रास प्रेसीडेन्सी में ५३,००० तालाब थे और मैसूर राज्य में ३९,००० तालाब थे। छत्तीसगढ़ की तत्कालीन राजधानी रतनपुर में ७०० तालाबों का उल्लेख मिलता है, जबकि नए शहरों में तालाब और नहर पाट कर कालोनियां एवं सड़कें बनाई जा रही हैं।
भारत सरकार की पशुधन संगणना २०१२ के आंकड़ों के अनुसार सन् २०१२ में गौवंशीय, भैंस वंशीय, भेड़ों, बकरियों, सुअरों, घोड़ों और ऊंटों की कुल संख्या में पिछली पशुधन संगणना से ३.३३ प्रतिशत की कमी आई है, जिनमें दूध देने वाले पशुओं (गाय, भैंस, मिथुन और याक आदि) की संख्या में १.५७ प्रतिशत की कमी आई है। यदि हम १८०० के पहले के भारत को देखें तो किसान के पास दुधारू पशु के रूप में गाय होती थी और बैल तथा घोड़े प्रमुख पशु के रूप में पाए जाते थे जबकि अब भैंसों की संख्या में वृद्धि हो रही है। यहां यह उल्लेखनीय है कि भैंस के दूध में वसा अधिक होता है और भैंस का दूध पीने से मोटापा बढ़ता है जो भारत की कुल जनसंख्या में ७ प्रतिशत लोगों में बीमारी के रूप में फैल गया है तथा २४ प्रतिशत लोग ‘‘मोटापे’’ के कगार पर हैं। अत: राष्ट्रीय स्वास्थ्य संवर्धन की दृष्टि से भी ‘‘गौपालन’’ को बढ़ावा देने से ‘‘मेक इन विलेज’’ कार्यक्रम के तहत हम मक्खन, गौघृत, पनीर एवं चीज निर्मित कर सकते हैं, जो महाभारत काल में भी भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था का महती आधार था और हमारे प्रभु श्री कृष्ण तो माखन चोर के रूप में गौ-पालन संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए विख्यात हैं।
वर्तमान में भारतीय ग्रामों को उन्नत बनाने के लिए प्रभावी जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम, रोजगारमूलक शिक्षा, कौशल विकास एवं मजबूत सहकारी संस्थाओं का निर्माण किया जाना अत्यावश्यक है। मेक इन विलेज की अवधारणा को साकार करने के लिए ग्रामीण परिस्थितियों के अनुरूप छोटे उद्योग स्थापित किए जाए जो कि सौर ऊर्जा से संचालित हो, गांव के ही संसाधनों का उपयोग करें जिसमें उसी ग्राम के लोगों को स्वामित्व और रोजगार प्रदान किया जाए। उत्पादन का कुछ निश्चित हिस्सा उन ग्रामवासियों के लिए तथा शेष आसपास के गांव एवं शहरों के बाजारों में विक्रय किया जाए। इससे परिवहन की लागत भी कम होगी, ग्रामीणों को रोजगार प्राप्त होगा, ग्राम में निर्णय प्रक्रिया में उनकी भागीदारी होगी तथा स्थानीय उपज का स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार उपयोग करने वाली इकाइयां होंगी जिससे उत्पादन के खराब होने की आशंका समाप्त हो जाएगी और सबसे बड़ी बात कि हमारे ग्रामवासी स्वयं अपने उद्योगों के स्वामी होंगे, जिससे गांव पुन: आत्मनिर्भर बन सकेंगे।

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