हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
सिंधी एवं भोजपुरी कहावतों में नारी-चित्रण

सिंधी एवं भोजपुरी कहावतों में नारी-चित्रण

by रविप्रकाश टेकचंदानी
in दिसंबर २०१६, सामाजिक
1

कहावतें मानव जीवन की चिर-संचित अनुभव-राशि तथा ज्ञान-गरिमा का सार समुच्चय होती हैं। कहावतें ‘गागर में सागर’ अथवा उससे भी अधिक ‘बिंदु में सिंधु’ होती हैं। भाषाएं इनमें बाधा नहीं डाल सकतीं- सिंधी हो या भोजपुरी या हो कोई अन्य भाषा- उनमें समान लक्ष्यार्थ वाली कई कहावतें मिलती हैं। नारी जीवन के पक्ष-विपक्ष में व्यक्त कहावतें भी इससे जुदा नहीं हैं।

मैं समझता हूं, सिंधी एवं भोजपुरी कहावतों में नारी-चित्रण विषय पर चिंतन मनन करते समय हमें समाज में परिवार की बुनावट पर ध्यान केंद्रित करना होगा। हम सभी इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि परिवार भारतीय समाज की आधारभूत संस्था है। इसका प्राचीन काल से ही अस्तित्व रहा है। वर्तमान परिस्थितियों में, विशेषकर शहरी संस्कृति के प्रभाव के कारण एक ही परिवार के सदस्य रोजगार की तलाश में विभिन्न शहरों में जाकर नौकरी-व्यापार करने लगे हैं, जिस कारण संयुक्त परिवार का ढांचा प्राय: टूटने लगा है। ऐसा होते हुए भी घर-परिवार के महत्व में कमी नहीं आई है; बल्कि संबंधों में प्रगाढ़ता स्थायी रूप से विद्यमान है। सिंधी भाषा में इस भाव को प्रकट करने वाली कहावतें देखें-कुडम कबीले खां शालं कुतो बि धार न थिए (अर्थात अपने कुटुंब या परिवार से काश कोई कुत्ता भी अलग न हो क्योंकि हे प्रभु, परिवार से अलग रहने पर अत्यधिक कष्ट होता है), सजणु हुजनि साणु त झंग अंदर बि सोनी खाण (अर्थात यदि परिवार के सभी सदस्य एक साथ जंगल में भी रहते हैं तो वहां भी आनंद प्राप्त करते हैं), पंहिंजा नेठि बि पंहिंजा (अर्थात संबंध में कटुता आने के बाद भी अपने सगे अपने ही होते हैं), पंहिंजे घर जहिडी का बी बादशाही (अर्थात अपने घर जैसी बादशाहत कहीं और नहीं होती)।

इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है कि नारी को भारत में देवी के रूप में पूजा जाता है, सम्मान प्रदान किया जाता है। संस्कृत में सूक्ति है ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। ऐसे ही भाव सिंधी समाज में भी विद्यमान हैं। सिंधी कहावतें देखे- ‘धीअ घर जी लछिमी आहे’ ( अर्थात पुत्री घर की लक्ष्मी है), ‘नामुराद पुट खां सुपाट धीअ भली’ (अर्थात कुपात्र पुत्र से सुपात्र पुत्री भली होती है), ‘पेईअ लेईअ धीअ कम अचे’ (अर्थात सुख व दुख दोनों परिस्थितियों में पुत्री ही मददगार सिद्ध होती है), ‘पुटु थिए माल भाई, धीअ थिए हाल भाई’ (अर्थात पुत्र सदैव माता पिता की धन -संपदा की लालसा रखता है जबकि पुत्री प्रत्येक परिस्थिति में उनकी कुशलता की कामना करती है)। भोजपुरी कहावत में उल्लिखित है कि ‘बिन घरनी घर भूत का डेरा’ (अर्थात बिना गृह-स्वामिनी के घर भूत के निवास-स्थान सा है)। ऋग्वेद में जाये दस्तम अर्थात गृहिणी ही घर है। गृहिणी के बिना घर अरण्य -सा है, का उल्लेख मिलता है तथा संस्कृत के निम्न सुभाषितों में नारी के प्रति आदर व सम्मान के भावों को प्रकट करते हुए लिखा गया है कि-

“अर्धो भार्या मनुष्यस्य, भार्याश्रेष्ठतम:सखा।
भार्या मूल त्रिवर्गस्य, भार्या मूल तरिष्यत॥”

(अर्थात भार्या पुरुष का आधा अंग है। भार्या पुरुष का सर्वप्रिय मित्र है। भार्या धर्म, अर्थ व काम का मूल है और संसार सागर से तरने की अभिलाषा करने वाले पुरुष के लिए भार्या का सान्निध्य आवश्यक है।)

“भार्यान्वत: क्रियावन्त: सभार्या गृहमेधिन:।
भार्यावन्त: प्रमोदन्ते, भार्यावन्त: श्रियान्विता:॥

(अर्थात सपत्नीक पुरुष ही यज्ञ आदि कर्म कर सकते हैं; वे सच्चे गृहस्थ होते हैं, वे सुखी व प्रसन्न रहते हैं तथा लक्ष्मी से संपन्न होते हैं)
संस्कृत सुभाषितों के ऐसे भावों के साथ-साथ कहावतें नारी के प्रति सकारात्मक व नकारात्मक दोनों प्रकार के भावों को प्रकट करती हैं। माता-पिता के संबंध में सिंधी कहावतें देंखे-

“माउ सा माउ,बियो सभु दुनिया तो वाउ।
मासी थिए न माउ, तोडे कढीडिए साहु॥”

(अर्थात मां से ही मां जैसा स्नेह प्राप्त होता है मौसी से नहीं)।

‘माउ मारीन्दी पर माराईन्दी कान’

(अर्थात मां बालक की उन्नति हेतु स्वयं तो पीट सकती है किंतु किसी अन्य को यह अधिकार नहीं दे सकती)।

‘माउ डिसे पेटु जाल डिसे खीसा’

(अर्थात मां सदैव चिंता करती है कि बेटा भूखा न रहे जबकि पत्नी चिंता करती है कि पति का जेब कभी खाली न रहे)।

‘माउ जी दिल मखणु, औलाद जी दिल कठिणु’

(अर्थात मां का हृदय मक्खन की भांति होता है तथा पुत्र का हृदय कठोर होता है)।

‘ऊन्हारे जी लुक ,मोयेली माउ जी मुक, अंधे जी थुक, जाते लगे ताते सुक’

(अर्थात गर्मी की लू, सौतेली मां का घूसा, अंधे की थूक, जहां भी लगे कष्ट देती है)।

भोजपुरी कहावतों में भी माता की ममता व करुणा को दुर्लभ वस्तु माना गया है-

‘माई के मनवां गाई अइसन, पूत के मनवां कसाई अइसन’

(अर्थात मां का हृदय गाय की तरह सरल सीधा और पुत्र का मन कसाई की भांति क्रूर होता है।)

‘माई निहारे ठठरी, जोइया निहारे गठरी’

(अर्थात परदेसी पुत्र के घर लौटने पर मां पुत्र की भूख प्यास की चिंता करती है जबकि पत्नी गठरी, मोटरी अर्थात उपार्जित धन देखती है।)

‘माई -बाप के लातन मारे मेहरी देख जुडाय,
चारो धाम जो फिरि आवै तबहुं पाप न जाय।’

(अर्थात जो व्यक्ति माता पिता से दुर्व्यवहार करता है और सिर्फ पत्नी के प्यार में तृप्त रहता है, वह पाप का भागी बनता है, उसका पाप चारों धाम की यात्रा के बावजूद नहीं कटता है)।

पारिवारिक जीवन में एक तरफ मां ईश्वर का वरदान है तो दूसरी तरफ सौतेली मां प्राय अभिशाप सिद्ध हुई है-

‘गोंयडा के खेती, सिरंबा के सांप, मैया कारन बैरी बाप।’

(अर्थात गांव के समीप की खेती, बिछावन पर का सांप और सौतेली मां के कारण बैरी बने हुए बाप इन तीनों को दुखद कहा गया है।)
भोजपुर क्षेत्र में बहुपत्नीत्व प्रथा हाल तक प्रचलित रही है। यह प्रथा धनी वर्ग में प्रचलित थी। कहावतों में भी बहुपत्नी प्रथा के नकारात्मक परिणामों की ओर संकेत किया गया है-

‘तीन बैल, दूइगो मेहरी, गइल घर ओ खेती ओकरी।’

(अर्थात जिसके पास तीन बैल और दो पत्निया हैं उसकी खेती और घर समाप्तप्राय: हैं।)

‘सौत’ बहुपत्नी प्रथा की देन है। वह परिवार में पति के प्रेम और संपत्ति की द्वितीय अधिकारिणी के रुप में प्रवेश करती है। अत: सौतों के मध्य डाह तो समाज प्रसिद्ध है-

‘मूअल सौत सतावेले, काठे के ननद बिरावले।’

(अर्थात मृत सौत भी सताती है और काठ की ननद भी (भाभी के ) मुंह चिढ़ाती है।) उक्त कहावत में भी ननद और भाभी के ईर्ष्यापूर्ण संबंधों का चित्र प्राप्त होता है।

भारतीय समाज में विधवा स्त्री को अत्याधिक कष्टों का सामना करना पड़ता था। यह स्थिति वर्तमान में भी देखने को मिल जाती है। यद्यपि समाज में इस कुप्रथा के विरोध में जागरुकता के भाव तो दिखते हैं परंतु आज भी विधवा स्त्री के बारे में कहा गया है –

‘भगीअ बांहं जा न साहुरा न पेका’

(अर्थात विधवा स्त्री को न तो ससुराल में और न ही मायके में सम्मान मिलता है)।

काशी में मोक्षाभिलाषिणी विधवाओं की संख्या बहुत है। यहां पहले से कई ऐसे मंदिर या मठ थे, जहां विधवाएं, विशेषत: बंगाल राज्य की विधवाएं अपनी धनराशि जमा करती थीं और उसी से काशी में अपना शेष जीवन काटती थीं। इन विधवाओं में कितनी दुराचार में भी फंस जाती थीं। भोजपुरी की निम्न कहावतों में ऐसी ही विधवाओं (रांडों) की ओर संकेत हैं-

‘रांड, सांड, सीढी सन्यासी एह से बचे तऽ सेवे काशी’ या
‘रांड, सांड, सन्यासी इ तीनों कासी के वासी’

(अर्थात रांड (बदचलन विधवाओं या स्त्रियों), सांड, सीढ़ी व संन्यासी -इनकी चपेट में आने से जो बच जाता है, वह निर्भय होकर काशी में रहता है)।

‘सिकी सिकी मुडिसु कयाई, बी जा बधाई सगी।
अगे खाधाई थे लोढ मछी, हाणे लुडण लगी॥’

(अर्थात एक तो तरस-तरस कर बड़ी आयु की महिला को शोभा नहीं देता)।
भोजपुरी कहावत में भी नारी के अशोभनीय रहन-सहन पर व्यंग्य किया गया है-

‘बुढवा भतार पर पांच टिकुली’

(अर्थात बूढे पतिवाली स्त्री पांच टिकुलियां सिर पर चिपकाती हैं)।

भारतीय कहावतों में नारी के मान सम्मान अस्तित्व के संबंध में जिस प्रकार की धारणा लक्षित होती है, उसने प्राय: नारी के प्रति उच्च भावना का बोध नहीं होता। कदाचित एक ओर ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता:’ कहा गया है तो दूसरी ओर ‘लुगाई री अकल खुडी में हुया करै’ (अर्थात औरत की बुद्धि घुटने में होती है) कहा गया है। उसे पराधीन कहते हूए जीने के लिए सदैव पुरुष के साथ की आवश्यकता पर बल दिया गया है-

‘पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने
पुत्रो रक्षति वार्धक्ये, न स्त्री स्वातंत्रतयम अर्हति॥’

(अर्थात नारी जब बालिका होती है तो उसकी रक्षा पिता करते हैं। विवाह के पश्चात पति व वृद्धा हो जाने पर पुत्र रक्षा करता है। इस प्रकार नारी को सदैव अन्य के सहारे ही अपना जीवनयापन करना पड़ता है)।

परंतु वर्तमान काल में सामाजिक ढांचे के ताने-बाने में ऐसी लिखित या मौखिक भावना में परिवर्तन आ रहा है। आज की नारियां समाज के विभिन्न कार्यक्षेत्रों में पुरषों के समकक्ष व कंधे से कंधा मिला कर कार्य कर रही हैं। न सिर्फ इतना अपितु पुरुषों को पीछे छोड़ कर जीवन की गाड़ी को निरंतर आगे बढ़ाती जा रही हैं। यदि कहा जाए कि वर्तमान में समाज के चहुंमुखी विकास में नारी पुरुष से अधिक योगदान कर रही है तो अतिशयोक्ति न होगी।

(प्रस्तुत आलेख में सिंधी कहावतें डॉ.एम.के जैतली द्वारा संपादित ‘सिंधी मुहावरें व कहावत कोश’ से तथा भोजपुरी कहावतें डॉ. शशिशेखर तिवारी द्वारा लिखित ग्रंथ ‘भोजपुरी लोकोक्तियां’ से संकलित व उद्धृत की गई हैं।)
———-

रविप्रकाश टेकचंदानी

Next Post
लगन और निष्ठा की मिसाल – जयवंतीबेन

लगन और निष्ठा की मिसाल - जयवंतीबेन

Comments 1

  1. प्रोफेसर रविप्रकाश टेकचंदानी says:
    3 years ago

    सिंधी विषयक आलेख प्रकाशित करने पर आभार प्रकट करता हूँ।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0