लगन और निष्ठा की मिसाल – जयवंतीबेन

गांधीजी ने कहा था-जब कोई स्त्री किसी काम में जी-जान से लग जाती है तो उसके लिए कुछ भी नामुमकीन नहीं होता। इसी हकीकत को बयां करता है जयवंतीबेन मेहता का जीवन। उन्होंने जो ठाना वह करके ही दम लिया। सीमित साधनों और सामाजिक बाध्यताओं के बावजूद राजनीति के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई। अपने मजबूत इरादों की बदौलत उन्होंने न सिर्फ अपने जीवन को नई दिशा दी बल्कि दूसरों के लिए भी मिसाल बनीं।

जीवन और संस्कार

मराठवाठा की राजधानी माने जाने वाले औरंगाबाद में 20 दिसम्बर 1938 में जयवंतीबेन मेहता का जन्म हुआ। उनकी बुआ ने बडे प्यार से उनका नाम जयवंती रखा। जब जयवंती सिर्फ डेढ़ साल की थी तब उनकी माता का देहांत हो गया। उनका पालन-पोषण उनकी बुआ ने किया। बुआ ने उन्हें मां की कमी महसूस होने नहीं दी। औरंगाबाद में ही उनकी शिक्षा हुई। कुशाग्र बुद्धि, अध्ययन के प्रति रुचि एवं सुंदर लिखावट के कारण मुख्याध्यापिका श्रीमती प्रतिभाताई की वह प्रिय छात्रा थीं। स्कूल में जिस तरह वह हर किसी का दिल जीत लेती थी उसी प्रकार शादी के बाद उन्होंने ससुराल में भी हर व्यक्ति के मन में अपने लिए खास जगह बना ली थी। उनका मानना था कि हर स्त्री बाहर से जितनी सुंदर होती है अंदर से उतनी ही दॄढ़निश्चयी होती है और ऐसा कोई कार्य नहीं है जो वह सोचे और न कर सके।

औरंगाबाद जैसे छोटे शहर से मुंबई जैसे बड़े शहर में आकर बसना मुंबई की संस्कृति में एकरूप होना आसान बात नहीं थी। लेकिन वक्त के साथ यहां के तौरतरीकों में वे रम गई थीं। समय के साथ बदलना तो सृष्टि का नियम है। इस नियम से वे शीघ्र ही मुंबईकर बन गई थीं।

आज की दुनिया में हर कोई पैसे के पीछे भाग रहा है; क्योंकि पैसा ही सबकी नज़र में सामाजिक स्तर और कामयाबी मानी जाती है। ऐसा हमें हर उस व्यक्ति में दिखाई देता है जो एक खुशहाल जिंदगी का दिखावा करने के लिए अपने साधनों से कहीं ज्यादा आगे चला जाता है। वे भूल जाते हैं कि मिट्टी, सीमेंट की चारदीवारी को परिवार का प्यार ही घर बनाता है और अपनों का प्यार सब से बढ़ कर है। जयवंतीबेन मेहता संयुक्त परिवार में रहीं, परंतु परिवार के हर व्यक्ति की भावना का आदर करते हुए पूरे परिवार साथ लेकर चलती रही।

जयवंतीबेन का व्यक्तित्व था ही इतना प्रभावशाली कि कोई भी व्यक्ति एक ही मुलाकात में उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उनसे मिल कर बात करते तो ऐसा लगता कि मानो वे मां की ममता लुटा रही हो। अपने जीवन में उन्होंने इतना कुछ हासिल किया था; लेकिन उस बात का अहंकार उन्हें लेशमात्र भी नहीं था। उनके बोलने की शैली, सरलता, निर्मलता, विनम्रता से परिपूर्ण थी, जो एक ही पल में किसी को अपना बनाने के लिए काफी थी। हिंदी, गुजराती के साथ मराठी भाषा पर उनकी पकड थी।

राजनीतिक सफर

अपने जीवन के 46 वर्ष उन्होेंने राजनैतिक जीवन में व्यतीत किए। वे राजनीति में सत्ता की लालच में नहीं आई थीं; बल्कि समाज के लिए वे कुछ करना चाहती थीं। इसी कारण जो कहना है उसे वे सब के सामने साफ-साफ रखती थी। उन्हें घुमाफिराकर बेवजह मीठी-मीठी बात करना या चापलूसी करना बिल्कुल पसंद नहीं था। समय के साथ वे बदलती रहीं, लेकिन उन्होंने स्वाभिमान कभी नहीं छोड़ा। स्वाभिमान और अभिमान के फर्क को हमेशा समझा है। हर एक व्यक्ति में अनंत संभावनाएं होती हैं, परंतु जयवंतीबेन किसी की भी कल्पनाओं से कहीं आगे थीं। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की एक सीमा होती है पर जयवंतीबेन के लिए तो मानो कोई सीमा ही नहीं थी। सन 1968-78 मनपा सदस्य बनीं। 1978-85 विधायक बनीं। 1880 से भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में रहीं। 1980-85 महाराष्ट्र विधान सभा की आश्वासन समिति, 1988-92 भाजपा की अ.भा. कार्यवाह, 1989-99 लोकसभा मेें चुनी गईं। 1989-91 में नागरिक आपूर्ति एवं कोष पर स्थायी समिति की सदस्य, 1990-95 भाजपा महिला मोर्चा अध्यक्ष, 1993-95 भाजपा उपाध्यक्ष, 1996 में वे पुनः लोकसभा के लिए चुनी गईं। 1996-97 में उद्योग समिति सदस्य, गृह मंत्रालय की सलाहकार समिति की सदस्य, संविधान संयुक्त समिति सदस्य की सदस्य रहीं। 1996 में उन्होंने महिलाओं को 33% आरक्षण देने के लिए विधेयक प्रस्तुत किया। वे राजभाषा समिति की भी सदस्य रहीं। 1999 में वे फिर से लोकसभा के लिए निर्वाचित गईं और बिजली राज्यमंत्री बनीं। अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने 18 देशों की यात्राएं की हैं। सांसद के रूप में उन्होंने आस्ट्रेलिया, आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया, फ्रांस, हंगरी, पोलैण्ड, अमेरिका और ब्रिटेन की यात्राएं की थीं।
जयवंतीबेन को भी जीवन में कई संकटों का सामना करना पड़ा। लेकिन वे संकटों का सामना पूरे धैर्य के साथ करती थी। सत्ता की चकाचौंध में नहीं बहती थीं और किसी भी कार्य के लिए तत्पर रहती थीं। परिवार के लोगों की पसंद-नापसंद का ख्याल रखती थीं। साथ ही जनता की पीड़ा को भी खूब समझती थी। कभी भी किसी भी विकट स्थिति में पलायन नहीं किया। इसी कारण लोग उन्हें ‘भुलेश्वर की भवानी’ कहते थे। वे एक सफल बेटी, सफल पत्नी, सफल मां और सफल राजनेता थीं।

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