गीता-विश्व को भारत का वरदान है

गीता केवल मरणोपरांत मोक्ष या मुक्ति का ग्रंथ नहीं है, बल्कि वह इसी जीवन में व्यक्ति को विषाद से प्रसाद की ओर, पलायन से पुरुषार्थ की ओेर, भागने से जागने की ओर तथा मरण से अमृतत्व की ओर ले जाने वाला ग्रंथ है। विश्व का यही एकमात्र ग्रंथ है जिसकी जयंती मनाई जाती है। यही भारत का विश्व को वरदान भी है।

वर्ष 2016 के पूर्वार्ध में समाचार पत्रों में एक समाचार ने सभी देशप्रेमियों को आनंदित किया था कि अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय (फेडरल कोर्ट) के न्यायाधीश के रूप में डी.सी.अपील्स कोर्ट के न्यायमूर्ति भारतीय मूल के श्रीयुत श्रीनिवासन की नियुर्क्ति ओबामा प्रशासन द्वारा की जा सकती है। यदि ऐसा होता है तो वह सर्वोच्च न्यायालय में पहले भारतीय मूल के अमेरिकी तथा पहले एशियाई- अमेरिकी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होंगे। किन्तु उससे भी अधिक चकित करने का समाचर यह था कि यदि अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा उनको सर्वोच्च न्यायालय के जज के रूप में नियुक्त किया गया तो श्रीयुत श्रीनिवासन गीता को साक्षी मान कर फेडरल कोर्ट के रूप में जज की शपथ लेंगे। यह बात अलग है कि श्रीयुत श्रीनिवासन की फेडरल कोर्ट के जज के रूप में नियुक्ति नहीं हुई, किन्तु इस समाचार ने भारत की वर्तमान युवा पीढ़ी को जो आजकल अमेरिका से अधिक प्रभावित है, उसे अवश्य सोचने पर मजबूर किया कि पश्चिमी देश अमेरिका में पले-बढ़े श्रीनिवासन कोे अपने जीवन में गीता में ऐसा क्या मिला कि उन्होंने डी. सी.अपील्स कोर्ट के जज के रूप में नियुक्ति के समय श्रीमद् भागवत गीता को साक्षी मान कर अपना पदभार ग्रहण किया था। श्रीनिवासन से जब लोगों ने गीता के बारे में जानना चाहा, तो उनका उत्तर था कि गीता व्यक्ति को जीवन जीने की राह दिखाती है और मेरी उपलब्धियों और सेवाओं के पीछे गीता के दर्शन का बहुत बड़ा योगदान है। दूसरा उदाहरण अमेरिका में यू एस सर्जन जनरल के पद पर नियुक्त श्री विवेक मूर्ति का है; जिन्होंने अपना पदभार श्रीमद् भगवद् गीता को साक्षी मान कर ग्रहण किया था।

तो ऐसा क्या है श्रीमद् भगवद् गीता में जिसने अमेरिका जैसे अत्यंत आधुनिक तथा पाश्चात्य जीवन शैली में रचे-बसे, पले-बढ़े, श्रीयुत श्री निवासन तथा विवेक मूर्ति जैसे अमेरिका के शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्तियों को प्रभावित किया है, और वे आज भी गीता का अध्ययन, अनुशीलन करके अपने जीवन को धन्य कर रहे हैं। सुप्रसिद्ध रचनाकार शिव ओम अम्बर की पंक्तियां उनके गीता के प्रति श्रद्धा को सही रूप में व्यक्त करती हैं-

युद्धो को परिणत कर लेता हूं यज्ञों में
क्योंकि श्रीमद् भगवद् गीता का मुझ पर प्रभाव है।

जीवन एक संघर्ष और युद्ध ही तो है, जो प्रति पल प्रति क्षण हमारे और आपके मन में निरंतर चलता रहता है। किन्तु उस संघर्ष को जो व्यक्ति अपने पुरुषार्थ और विवेक सम्मत बुद्धि से यज्ञ में परवर्तित कर देता है, उसका जीवन सार्थक हो जाता है। जीवन की यह सार्थकता श्रीमद् भगवद् गीता के अध्ययन,मनन, और चितंन तथा अनुकरण से प्राप्त होती है। कविवर राम सनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ के गीत की पंक्तियों में यह बात और भी अधिक मार्मिकता से मुखरित होती है-

यह जीवन है संग्राम प्रबल
लड़ना ही है प्रति क्षण, प्रति पल
वह हार गया रण में
जिसका लड़ते-लड़ते मन हार गया
जिसने मन में गीता गुन ली
वह हार जीत के पार गया

सुप्रसिद्ध चिंतक विचारक तथा साहित्यकार आचार्य श्री विष्णुकांत शास्त्री ने आधुनिक जिंदगी के यथार्थ को और गीता के मर्म को स्पष्ट करते हुए कहा कि “हमारा जीवन एक सतत युद्ध है। विषय, भोग, निषिद्ध आचरण ….हमें अपनी ओर खीचते हैं। भगवान की कृपा से उस समय हम सचेत रहें। सावधान रहें। हम तो बिगड़ने के लिए हमेशा तैयार रहते है। भगवान की कृपा ही हमेें बचाती है। लेकिन हम भी भगवान की इस कृपा का अबलम्बन प्राप्त करने योग्य अपने को बनाएं। रात दिन, बाहरी और भीतरी संसार के आकर्षण से दुष्कर्मों की ओर आकृष्ट न होने के लिए हम युद्ध करते रहें। सत्कर्म के लिए अपने मन को प्रेरित करते रहें-यह युद्ध से कम नहीं है।

‘तस्मात सर्वेषु कालेबु मामुनुस्मर युद्ध च’

यह गीता का महावाक्य है। इस वाक्य को हमें स्मरण रखना है। वास्तव में यही गीता का बोधवाक्य है, जिसका अनुपालन अमेरिका जैसे अति भौतिकवादी देश में जाकर श्री निवासन और श्री विवेक मूर्ति जैसे लोगों ने किया और वे आज अपने जीवन की सफलता के शिखर पर हैं। श्री मद् भगवद् गीता से मानव का कितना बड़ा कल्याण हो सकता है, इसका निरूपण भगवान शंकराचार्य ने किया कि-

भगवद् गीता किंचिदधीता गंगा जल लव कणिका पीता।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यम: किं कुरुते चर्चाम॥

अर्थात जिसने एक बार किंचित मात्र भी श्री भगवद् गीता का अध्ययन कर लिया, जिसने एक बार भी दो-चार बूंदें गंगा जल का पान कर लिया, जिसने एक बार भी मुरारी की अर्चना कर दी, यम उसका क्या कर सकता है? तथापि गीता केवल मरणोपरांत मोक्ष या मुक्ति का ग्रंथ नहीं है, बल्कि वह इसी जीवन में व्यक्ति को विषाद से प्रसाद की ओर, पलायन से पुरुषार्थ की ओेर, भागने से जागने की ओर तथा मरण से अमृतत्व की ओर ले जाने वाला ग्रंथ है।

कुरुक्षेत्र के रणांगण में, जब कौरवों और पांडवों की सेनाएं आमने- सामने थीं, रणभेरी बज रही थी, तलवारे म्यान से निकल चुकी थीं, धनुष पर बाण चढ़ चुके थे, तब अचानक अर्जुन विषाद ग्रस्त होता है और उसके रथ के सारथी श्रीकृष्ण अर्जुन के मन में उत्पन्न विषाद को समाप्त करने के लिए जो उपदेश देते हैं वह गीता आज के इस संघर्ष पूर्ण युग में संपूर्ण मानवता को राह दिखा रही है और जीवन को नवचैतन्य प्रदान कर रही है। वेदव्यास द्वारा रचित पंचम वेद के रूप में जाना जाने वाला महाकाव्य महाभारत जैसे महाकाव्य का एक भाग होने के बावजूद श्रीमद् भगवद् गीता को एक अलग ग्रंथ के रूप में मान्यता मिली है। महाभारत के मध्य में भीष्म पर्व के अध्याय 25 से 42 तक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन में संवाद के अठारह अध्याय हैं। सात सौ श्लोकों के इस ग्रंथ में कृष्ण ने 620, अर्जुन ने 57, संजय ने 22 और धृतराष्ट्र ने एक श्लोक कहे हैं। लगभग पांच हजार दो सौ पचास वर्ष पहले कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में मार्गशीर्ष महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन गीता का यह महान और अनुपम संदेश श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था। अतः मार्गशीर्ष कीे इस एकादशी को मोक्षदा एकादशी, साथ ही इसे गीता जयंती के रूप में जाना जाता है। गीता समरत विश्व का एकमात्र ग्रंथ है, जिसके जन्म की जयंती मनाई जाती है। साक्षात परमात्मा के मुख से निसृत यह वाणी संपूर्ण मानवता के कल्याण तथा लोकमंगल के लिए है। अत: इसका चिंतन, अध्ययन तथा मनन व्यक्ति को अद्भुत ऊर्जा से भर कर जीवन को पूर्णता के साथ जीने तथा अंत में मृत्यु को प्रसन्नता से स्वीकार करने का आश्वस्त संदेश देता है।

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै:शास्त्रविस्तरै:।
या स्वयं पद्मनामस्य मुख पद्याद्विनि:सृता॥

गीता का यह महान ग्रंथ सार्वकालिक, सार्वजीवन तथा सार्वदेशिक है। मानव जीवन अपने प्रारंभिक काल से ही सदैव समस्यायों से ग्रस्त रहा है। मानव जीवन की समस्याएं आज से पांच हजार वर्ष पहले थीं, वे आज भी हैं, संभवत: अधिक तीव्रता के साथ हैं। मानव आज भी चिंता, भय, शोक, मोह आदि व्याधियों से ग्रस्त है, जो वह पांच हजार वर्ष पहले भी था। जीवन में अशांति, दुविधा, संघर्ष और मृत्यु का भय आज भी मानव मन को सदैव उद्वेलित करता रहता है। गीता का संदेश व्यक्ति को इन सभी व्याधियों से मुक्त करता है। ये व्याधियां मनुष्य जीवन को जो दुखमय करती हैं, उसे निराशा से भर कर उसके चित्त में विषाद उत्पन्न करती है। यही कारण है कि गीता का प्रारंभ विषाद से होता है। गीता का प्रथम अध्याय ‘विषाद योग’ है। कुरुक्षेत्र के संग्राम में अर्जुन विषाद से ग्रस्त होता है। तब श्रीकृष्ण उसे अपने वचनोें से उसके विषाद को नष्ट करते हैं। वह अर्जुन को कृष्ण का सदुपदेश अपने कर्तव्य पथ पर पूरी निष्ठा से आगे बढने और युद्ध करने की प्रेरणा देता है। अर्जुन भगवान से कहते हैं कि आपकी अमृतमयी वाणी सुन कर मेरे सभी संशय दूर हो गए हैं। जीवन के प्रति मेरी दृष्टि बदल गई है अब ‘करिप्ये वचन तव’ जो आप कहेंगे वही मैं करूंगा।

नष्टो मोह स्मृतिर्लब्धा त्व प्रसादान्यया व्यत।
स्थितोऽस्मि गत सन्देह,करिये वचन तव॥

यह संदेह और मोह का नष्ट होना तथा पुन: अपनी स्मृति को प्राप्त करके अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक पूर्ण करने का संकल्प ही गीता का प्रतिपाद्य है। जीवन के समरांगण में जब व्यक्ति विषाद और अवसाद से ग्रस्त होता है, तो महापुरूषों और विचारकों का मत है कि गीता का अनुशीलन उसे पुन: कर्तव्य पथ पर आरुढ़ कर देता है। इसीलिए महात्मा गांधी, विनोबा भावे जैसे आध्यात्मिक दृष्टि से परिपक्व महापुरुष तथा भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस, तिलक जैसे महान क्रांतिकारी समान रूप से गीता माता की गोदी का आश्रय लेते हैं। महात्मा गांधी जैसे अहिंसा के सिद्धांतों का अनुसरण करने वाले और दूसरी ओर महात्मा तिलक, हुतात्मा भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी विचारों वाले व्यक्ति इन दोनों को ही गीता समान रूप से भारत को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपना सबकुछ न्योछावर करने की प्रेरणा देती है। गीता के संदेश से समन्वित इन सभी महापुरुषों ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को पूर्णता तक पहुंचाने का जो कार्य किया था उसी के फलस्वरुप भारत स्वतंत्र हुआ। अतएव गीता का प्रत्येक शब्द व्यक्ति को जीवन पथ पर चलने का सुमार्ग दिखाता है और अंधेरे में प्रकाश प्रदान करता है। हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि अरुण प्रकाश अवस्थी की निम्न पंक्तियां गीता के मर्म को प्रकट करती हैं-

गीता तो यदुवंश-शिरोमणि वासुदेव की वाणी है
यह आचार संहिता पावन सुरसरि सी कल्याणी है
जीवन रण में विजय दिलाने वाली यह जगदंबा है
स्वर्ग और अपवर्ग इसी में यह हीरक अवलंबा है
गीता कर्म ज्ञान का संगम यह तम में दिलमान है
गीता का आदर्श ग्रहण कर जीवित हिन्दुस्थान है।

अत: आज आवश्यकता इस बात की है। कि भारत की युवा पीढ़ी गीता के तत्वज्ञान को सही तरह से जानने और समझने की कोशिश करें। विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा गीता को विद्यालय के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करने का निर्णय एक स्वागत योग्य कदम है। गीता के अध्ययन और अनुकरण से व्यक्ति का व्यक्तित्व निखरता है। उसमें स्वयं के लिए, साथ ही समाज, राष्ट्र तथा संपूर्ण विश्व के कल्याण की भावना विकसित होती है। गीता का अनुशीलन करने वाला व्यक्ति संशय से मुक्त होकर, आत्मविश्वास से भरपूर, श्रद्धाभाव से मानवीय मूल्यों को आत्मसात कर अपने जीवन को सार्थक करता है, जिसकी आज के युग में बहुत अधिक आवश्यकता है।
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