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सुर बिनजीवन सूना

सुर बिनजीवन सूना

by pallavi anwekar
in नवम्बर २०१४, सामाजिक
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सुर ना सधे क्या गाऊं मैं  नवरसों में से हर रस हमें संगीत में मिल जाता है। गुस्से में संगीत की कल्पना करना कुछ अजीब लगता है ; परंतु हमारे यहां भगवान शिव का रुद्र तांडव इसी कारण से प्रसिद्ध है। अर्थात जीवन के जिन – जिन कार्यों में भावों की अभिव्यक्ति होती है, वहां – वहां संगीत होता ही है।  सुर के बिना जीवन सूना

हम संगीत के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। सृष्टि के पंचमहाभूतों की तरह ही संगीत भी हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है। मनुष्य ने सदैव अपने स्वभाव के अनुरूप अपना दृष्टिकोण बनाया है और उसी के माध्यम से सारे संसार को देखा है। संगीत के प्रति भी उसका रवैया यही है। दरअसल संगीत मनुष्य को प्राप्त वह अनमोल उपहार है जिसके माध्यम से वह अपने भावों की अभिव्यक्ति कर सकता है। भावों की अभिव्यक्ति के लिए ही मनुष्य ने संगीत में निरंतर परिवर्तन किए, आविष्कार किए। विभिन्न राग -रागिनियों को खोजा। वस्तुत : इन सभी के बीच मनुष्य स्वयं को ही खोजता रहा। आज भी उसकी यह खोज जारी है। अगर हम सृष्टि को देशों की राजनैतिक सीमाओं में न बांटें तो पंचमहाभूतों के अलावा संगीत ही एक ऐसा तत्व मिलेगा जो सभी जगह व्याप्त है।

समय, स्थान के अनुरूप संगीत में परिवर्तन जरूर हुआ है परंतु मूल भाव वही है। बहुत से लोगों को कहते सुना है कि आज का संगीत विकृत हो गया है। इस बात पर जरा गौर करें। जब हम यह कहते हैं कि संगीत भी पंचमहाभूतों की तरह है तो क्या वह विकृत हो सकता है ? क्या आकाश, जल, अग्नि, वायु, और धरती विकृत हुए हैं ? जी नहीं। विकृत अगर कुछ हुआ है तो वह है मनुष्य का इन सभी की ओर देखने का और इनका उपभोग करने का दृष्टिकोण। संगीत आज भी उतना ही शुद्ध है, सामर्थ्यवान है।

व्यक्ति और संगीत का नाता तभी जुड़ जाता है जब मां के गर्भ में उसके अस्तित्व की शुरुआत होती है। उसकी पहचान मां की सांसों और उसके दिल की धड़कनों के कंपन और नाद से होती है। इसलिए स्त्री को गर्भावस्था में उत्तम संगीत सुनने की हिदायत दी जाती है। जन्म के पश् चात बच्चा कदमों की आहट और चूड़ियों की खनक से ही समझ जाता है कि मां उसके आसपास ही है। चूड़ियों की खनक से उत्पन्न संगीत से तो वह इतना परिचित हो जाता है कि शरारत करते -करते भी अगर उसे यह सुनाई दे तो वह तुरंत रुक जाता है।

धीरे -धीरे उम्र के साथ हमें संगीत के विभिन्न रूपों का परिचय होता जाता है। आरती, भजन, लोरी इन सभी के माध्यम से हमारे मन में अनायास ही संगीत अंकित हो जाता है। बिना किसी विशेष प्रयास के हम संगीतमय हो जाते हैं। इसलिए दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जो संगीत से अछूता हो। यह बात अलग है कि हम अपनी पसंद के अनुरूप संगीत की विधाओं को पसंद करते हैं। कोई गायन में रस लेता है, किसी को नृत्य करना अच्छा लगता है तो कोई वाद्यों पर अपनी पकड़ जमाता है। इन सभी के अलावा एक और वर्ग है जो इन सभी से अलग परंतु सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है और वह है श्रोता या दर्शक। वस्तुत :संगीत का आस्वाद जितना गायक, नर्तक या वादक लेते हैं उससे कहीं अधिक ये लोग लेते हैं।

संगीत का आस्वाद लेने का भी सबका अपना -अपना अलग तरीका होता है। पहले इसके लिए महफिलें हुआ करती थीं। आज हर किसी के हाथ में मोबाइल के रूप में म्यूजिक प्लेयर आ गया है। कोई भी व्यक्ति किसी भी जगह अपनी पसंद का संगीत सुन सकता है। इसके बावजूद भी शास्त्रीय संगीत के महोत्सव या लाइव म्यूजिक कांसर्ट देखने सुनने लोग जरूर जाते हैं।

‘बाथरूम सिंगर ’ वर्ग के लोग लगभग सभी घरों में मिल जाएंगे। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि ये लोग केवल अपने लिए गाते हैं, वहां उपलब्ध वस्तुएं बजाते हैं और शायद नाचते भी हैं। बताने का उद्देश्य केवल इतना ही है कि यह भी संगीत के आस्वाद लेने का एक तरीका है।

हमारे यहां लोकसंगीत भी बहुत प्रचलित है। हर प्रांत का लोकसंगीत अलग होता है। उसके शब्द वहां की बोलीभाषा का आईना होते हैं। किसी भाषा के खास उच्चारण, लहजे और ठेके को मिलाकर लोकसंगीत बनता है। इसमें और निखार तब आता है जब उस क्षेत्र विशेष के वाद्य भी उसके साथ सम्मिलित हो जाते हैं। कभी -कभी तो ये वाद्य प्रचलित भी नहीं होते। धान कूटती महिलाएं जब काम करते समय लोकगीत गाती हैं तो यह भी संगीत का आस्वाद लेने का ही तरीका होता है।

आजकल रेडियो, टीवी चैनल, इंटरनेट के माध्यम से विदेशी संगीत भी भारतीय श्रोताओं तक पहुंच रहा है। काफी हद तक इसे सराहा भी जा रहा है। कई लोग इसे भारतीय शास्त्रीय संगीत पर प्रभाव के रूप में दखते हैं और मानते हैं कि इससे पारंपरिक भारतीय संगीत विकृत होगा। परंतु आज फ्यूजन के रूप में बजनेवाले संगीत को अगर ध्यान से सुना जाए तो उसमें भी शास्त्रीय संगीत का पुट मिलेगा ही। वस्तुत : भारत में बजनेवाले संगीत की कल्पना बिना शास्त्रीय संगीत के की ही नहीं जा सकती। अत : विदेशी संगीत के आने से यहां के पारंपरिक संगीत को खतरा होने की सम्भावना अत्यल्प है।

संगीत में मानव मन के तारों को झंकारने की विलक्षण शक्ति होती है। हमें संगीत तब भी अच्छा लगता है जब हम खुश होते हैं और तब भी जब दुखी होते हैं। भक्त अपने देवता को खुश करने के लिए अपने आर्त भावों को संगीत में पिरोता है। प्रेमी प्रणय निवेदन करने के लिए भी संगीत का सहारा लेता है। मां अपने बच्चे को सुलाने के लिए लोरी गाती है। पिता अपनी बेटी की बिदाई करते समय गीत गाता है। दूर विदेश में बैठा कोई व्यक्ति जब ‘घर आ जा परदेसी तेरा देस पुकारे ’ सुनता है तो बरबस ही उसका मन अपने गांव की गलियों में, सरसों के खेत में, आंगन में या पीपल की छांव तले पहुंच जाता है। सफर के दौरान समय बिताने के लिए अंताक्षरी खेलना आम बात है।

नवरसों में से हर रस हमें संगीत में मिल जाता है। गुस्से में संगीत की कल्पना करना कुछ अजीब लगता है परंतु हमारे यहां भगवान शिव का रुद्र तांडव इसी कारण से प्रसिद्ध है। अर्थात जीवन के जिन -जिन कार्यों में भावों की अभिव्यक्ति होती है, वहां -वहां संगीत होता ही है।

संगीत की बात चल रही हो और प्रकृति संगीत का जिक्र न हो यह तो हो ही नहीं सकता। उंचाई से गिरनेवाले झरने की तीव्र ध्वनि, हवा के तेज झोंकों से हिलनेवाले पत्तों की सरसराहट, बारिश में बूंदों के गिरने से उत्पन्न संगीत मानव मन को प्रसन्न करनेवाले होते हैं। प्रकृति के विभिन्न रूपों पर मोहित होकर ही हमारे यहां न जाने कितने संगीतकारों ने अपनी रचनाएं उसे समर्पित कर दीं। ‘बूंद जो बन गयी मोती ’ फिल्म का ‘ये कौन चित्रकार है ’ गीत यहां बरबस ही याद आ जाता है। कवि ने अपनी रचना में भगवान को एक चित्रकार के रूप में चित्रित किया है जिसने यह सारी प्रकृति बनाई है।

फिल्म संगीत सदैव ही लोगों के दिलों के नजदीक रहा है। शास्त्रीय संगीत को समझने या उसे दोहराकर आनंद प्राप्त करने की कमी को फिल्मी संगीत ने पूरा किया। लोगों को ऐसे गीत मिले, ऐसा संगीत मिला जिसने उनके मन के अंदर के सारे भावों को भांप लिया। लोगों को फिल्मों का संगीत उनके जीवन का आईना लगने लगे। संगीतकारों ने भी कालानुरूप संगीत पेश किया। जैसे -जैसे समय बदलता गया संगीत भी बदलता गया। आज की युवा पीढ़ी को पुरानी फिल्मों के गीत कम पसंद आते हैं और पुराने लोगों को आज का संगीत शोरगुल लगता है। इस ‘जनरेशन गैप ’ ने संगीत को भी नहीं बख्शा। लेकिन आश् चर्य करनेवाली बात यह है कि पुरानी फिल्मों के गीतों को जब रीमिक्स करके आज की युवा पीढ़ी के सामने रखा जाता है तो वे उसे तुरंत अपना लेते हैं। रीमिक्स में मुख्यत : कुछ नोट्स, वाद्ययंत्रों, या गति में परिवर्तन किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि आज की युवा पीढ़ी को हर काम में गति अपेक्षित होती है। वे पुरानी धुनों, शब्दों या उसकी मैलोडी को तो पसंद करते हैं परंतु कुछ गति के साथ। ठीक वैसे ही जैसे दाल में जीरा लहसुन का तड़का लगाने से वह ज्यादा स्वादिष्ट हो जाती है।

आज संगीत में जो बदलाव देखने को मिलते हैं वे मुख्य रूप से तकनीक पर आधारित हैं। इलेक्ट्रानिक उपकरणों के आने से आज के संगीत में बहुत परिवर्तन दिखाई देता है। कई नऐ वाद्य आ गए हैं। केवल उंगलियों के निर्देश पर एक उपकरण से कई वाद्यों की ध्वनियां निकाली जा सकती हैं।

संगीत को हम तक पहुंचाने के माध्यमों में भी बहुत परिवर्तन हुआ है। संगीत ने ग्रामोफोन से लेकर आज सीडी और पेनड्राइव तक की यात्रा की है। रेकॉर्डिंग तकनीक में हुए इन बदलावों के कारण संगीत की कई पुरानी रचनाओं को संजोना हमारे लिए आसान हो गया है। पुराने जमाने में ग्रामोफोन की डिस्क को संभालकर रखना बहुत मुश्किल काम था। रेडियो सिलोन के जनमाने में रिकार्ड हुए कई गीतों की डिस्क हमारे पास नहीं हैं। इनमें उन लाइव शो की भी डिस्क शुमार हैं जिनमें उस समय लता मंगेशकर, आशा भोसले, मो .रफी जैसे दिग्गज कलाकरों ने अपनी प्रस्तुति दी थी।

संगीत के मानसिक और शारीरिक परिणामों को देखते हुए ही संगीत चिकित्सा भी की जाती है। किसी विशिष्ट प्रकार की ध्वनि तरंगों की उत्पत्ति का मानव शरीर पर क्या प्रभाव पडता है और उसकी प्रतिक्रिया क्या होती है, यही चिकित्सा का आधारबिंदु होता है। अधिक वैद्यकीय भाषा का उपयोग ना भी करें तो संगीत के परिणाम हम स्वयं महसूस कर सकते हैं। किसी तेज गतिवाले गीत संगीत को सुनते ही हमारी उंगलियां अपने आप चुटकी बजाने लगती है। ढोल पर थाप पड़ते ही हमारे पैर अपने आप थिरकने लगते हैं। यह तो तात्कालिक और क्षणिक प्रभाव होता है। परंतु संगीत का दीर्घकालीन असर भी बहुत होता है। किसी विशिष्ट प्रकार के संगीत को सतत सुनने से व्यक्ति के स्वभाव में भी परिवर्तन होता है। व्यस्त जीवन शैली और भूतकाल के कटु अनुभवों के कारण स्वयं ़को जड़ या पत्थर समझनेवाले व्यक्ति भी संगीत के विविध पहलुओं के संपर्क

में आने के कारण जीवन में तरलता का अनुभव करने लगते हैं। दौड़भाग में स्वत : को सतत व्यस्त रखने की जगह शांति का अनुभव करने लगते हैं। कविता रचने या इस तरह की किसी कलात्मक रुचि को फिर से अपनाना शुरू कर देते हैं। और अंतत : उन्हें एक नया सुर मिलने का समाधान मिलता है।

संगीत की इस सार्वभौमिकता और सर्वव्यापकता के कारण ही वह मानवीय जीवन के हर पहलू, हर भाव में समाहित होने की या इनको स्वत : में समाहित करने की शक्ति रखता है। कहने को तो यह केवल तीन शब्द का ही है परंतु इन तीन शब्दों में सारा संसार निहित है। ॐकार से उत्पन्न होनेवाले संगीत के साथ ही मानव के जीवन की शुरुआत होती है और यह संगीत अंत तक उसके साथ रहता है। ईश् वरीय गुणों से परिपूर्ण इस लौकिक शक्ति को नमन !

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