जैवविविधता संरक्षण का अतुलनीय प्रयोग

जैवविविधता पर गहराते संकट को लेकर पूरी दुनिया में मच रहे शोर के बीच राजस्थान के जयपुर जिले की दुुदु तहसील के लापोडिया गांव में गांव वालों ने घने जंगल का निर्माण कर पक्षियों की 135 प्रजातिया तथा वृक्षों, पौधों और अन्य प्राणियों की हजारों प्रजातियों को नवजीवन प्रदान किया है।

पिछले कुछ समय से घरेलू गौरैया और अन्य पक्षियों की देसी प्रजातियों की घटती संख्या प्रकृति प्रेमियों के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। लेकिन हकीकत में विषय बहुत अधिक गंभीर है। आज हमारे देश में पक्षियों की ऐसी लगभग 176 प्रजातियां हैं जो वैश्विक स्तर पर अस्तिव के लिए संघर्ष करने वाले पक्षियों की श्रेणी में आती हैं। इसके अलावा फूलों एवं कीट- पतंगों की भी हजारों प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं। विशेषज्ञों की मानें तो जैवविविधता के लिए खतरा सिर्फ उतना भर नहीं है जितना हम अपनी आंखों से देख पा रहे हैं। ये तो महज आने वाले गंभीर खतरों के संकेत हैं। भविष्य में खतरे अनेक रूपों में हमारे सामने आएंगे। तब जाकर हम सही मायने में समझ पाएंगे कि जैवविविधता को खतरा वास्तव में सम्पूर्ण मानवता को खतरा है। जैवविविधता संरक्षण मनुष्यों, वन्य प्राणियों तथा फसलों में सही संतुलन के लिए भी जरूरी है क्योंकि हमारी फसलों का 15-18 प्रतिशत उत्पादन कीट परागण के माध्यम से होता है। बागवानी में तो करीब 50 प्रतिशत उत्पादन कीट परागण से ही होता है जबकि बादाम जैसे पौधों में यह 100 प्रतिशत कीट परागण से होता है। मधुमक्ख्यिों व तितलियों जैसे कीटों की परागण में बहुत बड़ी भूमिका रहती है।

इस स्थिति में राजस्थान के जयपुर जिले की दुदु तहसील के लापोडिया गांव में किए गए जैवविविधता संरक्षण के अद्भुत प्रयासों को देख कर मन को काफी संतोष होता है। लापोड़िया गांव जयपुर-अजमेर राष्ट्रीय राजमार्ग पर जयपुर से 86 किमी दूर है। इस परिवर्तन का नेतृत्व किया है इसी गांव के लक्ष्मण सिंह लापोडिया ने जिन्होंने गांव के लोगों को इस बदलाव हेतु तैयार किया। इसके परिणामस्वरूप पक्षियों की 135 प्रजातियों को बचाया जा सका है। इस प्रयास से जिन कीटों, पौधों एवं वृक्षों की प्रजातियों को नवजीवन मिला उनकी संख्या तो हजारों में है। इस प्रयास का इसी तहसील के 58 अन्य गांवों में अनुसरण हो रहा है।

खुला चिड़ियाघर

लापोडिया गांव में मानवता के संरक्षण का कार्य करीब 30 साल पहले शुरू हुआ। सबसे पहले गांव के 230 साल पुराने एक तालाब को पुनर्जीवित किया गया। इससे गांव वालों में उत्साह का संचार हुआ और फिर उन्होंने गांव की गोचर भूमि को अवैध कैंजे से मुक्त कराया। तत्पश्चात् गांव में एक जंगल तैयार किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में कई साल लगे। जंगल को विकसित करते समय विशेष प्रयोग यह हुआ कि उसमें पेड़-पौधों को प्राकृतिक रूप से उगने दिया गया और उसमें बकरिया, गायों, अन्य पशुओं तथा मनुष्यों का प्रवेश पूर्णत: वर्जित किया गया। आज 30 साल बाद उस जंगल में लाखों वृक्ष, पौधें तथा दूसरी वनस्पतियां हैं। इसके अलावा लाखों कीट-पतंगे और वन्य प्राणी हैं। गोचर भूमि पर ‘देवबणी’ नाम से कुछ कुछ ‘ईको पार्क’ भी विकसित किए गए हैं। उन देवबणियों में वन्य प्राणी पूर्णत: प्राकृतिक रूप से बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के विचरण करते हैं। चूंकि पक्षियों के लिए रहने की सब से पसंदीदा जगह वृक्ष हैं इसलिए ग्रामवासियों ने वृक्षारोपण का वृहत्तर अभियान चलाया। सार्वजनिक स्थलों जैसे सड़कों, गांव के मोड़, आदि पर वट, नीम, पीपल आदि के वृक्ष लगाए गए हैं। गांव में कुछ कड़े नियम बनाए गए हैं जिनका पालन प्रत्येक ग्रामवासी करता है। जैसे एक नियम है कि किसी भी प्राणी को परेशान नहीं किया जाएगा और कीट-पतंगों तथा वन्य प्राणियों सभी का समान रूप से संरक्षण किया जाएगा। दूसरा नियम यह है कि गांव में जल, भोजन और आवास हर किसी को यानि पक्षियों, पशुओं व मनुष्यों सभी को सुनिश्चित किया जाएगा। वन्य प्राणियों के लिए कुछ आवास उनकी सुविधा के अनुसार पूर्णत: प्राकृतिक ढंग से बनाए गए हैं। गांव मेंं किसी प्राणी को तंग करने पर जुर्माने का प्रावधान है। जैसे एक वृक्ष को काटने का जुर्माना है दो वृक्ष लगा कर उनका संरक्षण। गांव वालों ने अब एक खुला चिड़ियाघर भी तैयार किया है। यह वास्तव में 80 एकड़ का एक भूखंड है जिसके चारों तरफ बाड़ लगाई गई है। वहां अनेक प्रकार के पक्षी आते रहते हैं। गांव में घरों की छत पर मोर भी अक्सर दिखाई देते हैं। कठफोड़वे वृक्षों से लिपटे हुए दिखाई देते हैं। कबूतर गुटरगूं करते हैं और कोयल कू कू करती सुनाई देती है।

पक्षियों के लिए घरौंदे

इस असंभव दिखने वाले काम को संभव बनाने के लिए ग्रामवासियों ने सब से पहले अपने खेतों में रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का प्रयोग पूरी तरह बंद किया। उन्होंने खेती का भी प्राकृतिक तरीका अपनाया जिसमें जीव-जंतुओं को किसी प्रकार की परेशानी न हो। सवाल उठता है कि आज बिना रासायनिक खाद व कीटनाशक का प्रयोग किए भला खेत में फसल कैसे पैदा हो सकती है? इस सवाल का जवाब लक्ष्मणसिंह लापोडिया इस प्रकार देते हैं, “यह सोच ही गलत है कि कीट-पतंगे फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। वे तो फसलों की रक्षा करते हैं। वास्तव में बिना कीटों के व्यक्ति एक भी फसल नहीं ले सकता है। लोग इस वास्तविकता को भूल गए हैं। हरित क्रांति के नाम पर हमने जो विनाशकारी कृषि पद्धति अपनाई है वह कीटों को मारने का काम करती है। इसके माध्यम से ऐसी व्यवस्था का निर्माण हुआ है जो धीरे-धीरे किसान और धरती के सभी मित्र कीटों को नष्ट कर रही है। यह लाखों-करोड़ों रुपये का घपला है। जो रासायनिक कीटनाशकों का हम फसलों पर छिड़काव करते हैं वे तो उन्हें बरबाद करते हैं। हकीकत यह है कि धरती में जो जीव-जंतु पाए जाते हैं उन सब को नष्ट करने का काम रासायनिक कीटनाशक करते हैं।”

तीस साल से प्रयोग चल रहा है। इसलिए अभी तक पक्षियों अथवा कीटों की कितनी प्रजातियों का संरक्षण लापोडिया में किया गया है? इसका जवाब लक्ष्मण सिंह इस प्रकार देते हैं, “करीब पांच साल पहले हमने वन विभाग से कुछ विशेषज्ञों को गांव में आमंत्रित किया था ताकि वे अध्ययन करके हमें भी इस सवाल का जवाब दे सकें। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने कहा कि लापोडिया में उन्हें पक्षियों की 135 ऐसी प्रजातियां मिली हैं जो सामान्यत: गांव में नहीं मिलती हैं। कीटों, पौधों तथा वृक्षों की प्रजातियां तो हजारों में हैं। जिन गांवों में पक्षियों एवं कीटों के संरक्षण हेतु इस प्रकार का कोई प्रयास नहीं होता वहां सामान्यत: 25-30 प्रकार के पक्षियों की प्रजातियां ही मिलती हैं। हमारे गांव लापोडिया में ऐेसे कीट-पतंगों, तितलिया और पक्षियों की प्रजातियां दिखाई देती हैं जो पहले कभी नहीं देखी गईं। गौरैया बहुत से क्षेत्रों से भले ही गायब हो गई हो, परंतु यहां उनकी संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। गौरैया ही नहीं, बल्कि कौओं, तोतों, कबूतरों आदि की संख्या भी बहुत तेजी से बढ़ रही है। वैसे तो सभी प्रकार के पक्षी अपने घोंसले स्वयं बनाते हैं परंतु लापोडिया में हमने भी बहुत से पक्षियों एवं प्राणियों के लिए आवास बनाए हैं। हमने बहुत से वृक्षों पर मोरों के लिए मोरघर बनाए हैं जहां मोर ही नहीं, बल्कि अन्य पक्षी भी आनंद से रहते हैं।

लक्ष्मण सिंह से जब पूछा कि उन्हें इस काम को करने की प्रेरणा सही मायने में मिली कहां से तो वे बताते हैं, “हमारा गांव, गांव के कुछ लोगों की गलत आदतों के कारण आस-पास के इलाके में काफी बदनाम था। हमारे गांव का नाम सुन कर लोग मजाक उड़ाते थे और उसे खराब, बेकार लोगों का गांव कहते थे। उनकी बातें मुझे चुभ गईं। मैंने तय किया कि हमें अपने गांव की इस नकारात्मक छवि को बदलना है और अपने गांव को ऐसा बनाना है कि जो लोग आज इसके नाम से भी दूर भागते हैं, वे सब इस गांव से प्रेरणा लें। जब हमने जैवविवधिता संरक्षण का कार्य शुरू किया तो गांव के बारे में सब तरफ सकारात्मक चर्चा होने लगी। इसके कारण न केवल हमारे बदनाम गांव की छवि सुधरी बल्कि उन लाखों जीव-जंतुओं को नई जिंदगी मिल गई, जिनके अस्त्तिव पर संकट के बादल मंड़रा रहे थे।”

जैवविविधता को हो रहे नुकसान को लेकर किसी प्रकार का शोर मचाने की बजाए लापोडिया वासियों ने प्रत्यक्ष काम करके दिखाया है कि जैवविविधता का संरक्षण इस प्रकार किया जा सकता है। उन्हाने सम्पूर्ण देश के समक्ष ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसका अनुसरण लोग अपने-अपने स्थान पर कर सकते हैं।

 

 

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