पूर्वोत्तर भूगोल, सामरिक और संसाधनों की दृष्टि से

वर्तमान दिल्ली शासन द्वारा पूर्वोत्तर के संदर्भ में संवेदनशील तथा समृद्ध प्रयास किए जा रहे हैं। वैदेशिक विषयों की दृष्टि से जो ‘लुक ईस्ट’ को विस्तारित कर ‘एक्ट ईस्ट’ की नीति का रूप दिया गया है उसमें पूर्वोत्तर की इन सात बहन राज्यों की अपनी महती भूमिका होगी।

पूर्वोत्तर को शेष भारत सात बहनों के नाम से भी पुकारता है। बहन माने जाने से ये राज्य, शेष राष्ट्र हेतु स्वमेव ही, अपने महत्व को प्रकट करते हैं। कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक, भौगोलिक तथा जनजातीय आग्रहों को समेटे इन राज्यों में शेष भारत की भांति ही अनेकता में एकता के कई तत्व मिलते हैं। भारत की ओर से अपने इस पूर्वोत्तर भाग को प्राथमिकता में अग्रणी माना जाता रहा है। इस दृष्टि से सभी केंद्रीय मंत्रालय अपने वार्षिक बजट में १०% पूर्वोत्तर क्षेत्र (एनईआर) के लिए आवश्यक तौर पर निर्धारित करते हैं। ४.५५ करोड़ की जनसंख्या वाले पूर्वोत्तर क्षेत्र के विकास में तेजी लाने के लिए ही पूर्वोतर परिषद (नॉर्थ ईस्टर्न काउंसिल), नॉर्थ ईस्टर्न डेवेलपमेंट फाइनेंस कारपोरेशन लिमिटेड तथा उत्तरपूर्वीय क्षेत्र विकास मंत्रालय का गठन क्रमशः १९७१, १९८५ व २००१ में किया गया था। पर्याप्त प्रशासनिक व वित्तीय स्वायत्ता वाली इस पूर्वोत्तर परिषद् को योजना आयोग द्वारा स्वीकृत कुल बजट आबंटन में से १०% राशि दी जाती है। परिषद की वार्षिक योजना का आकार, दिशा, व इनका अनुमोदन स्वयं परिषद करती है। पूर्वोत्तर परिषद के सचिव के पास १५ करोड़ रुपए तक की परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार है। पूर्वोत्तर परिषद, पूर्वोत्तर क्षेत्र के नियोजन तथा आर्थिक और सामाजिक विकास के अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में कुछ हद तक सफल भी रही है, किन्तु पूर्वोत्तर राज्य के निवासियों का शेष भारत के साथ तादात्म्य तथा सुर-संवाद स्थापित करने में अब तक के प्रयास लगभग विफल ही माने जाने चाहिए। परिषद की प्रमुख उपलब्धियों में विभिन्नक्षेत्रीय संगठनों की स्थापना भी शामिल है, जैसे पूर्वोत्तर विद्युत शक्ति निगम, पूर्वोत्तर पुलिस अकादमी, क्षेत्रीय अर्ध-चिकित्सीय और नर्सिंग संस्थान, पूर्वोत्तर क्षेत्रीय भूमि एवं जल प्रबंध संस्थान आदि। ९८०० कि. मी. सड़क, ब्रह्मपुत्र नदी पर पुल सहित ७७ पुलों का निर्माण, ९ अंतरराज्यीय बस अड्डे, ४ अंतरराज्यीय ट्रक टर्मिनस; विमान सेवा सुधार के लिए हवाई अड्डा प्राधिकरण के माध्यम से १० हवाई अड्डा विकास परियोजनाओं के लिए वित्तिय-पोषण; ६९४.५० मेगावॉट क्षमता की पनबिजली परियोजना की स्थापना, ६४.५ मेगावॉट ताप बिजली उत्पादन; ५७ बिजली प्रणाली सुधार योजनाएं; मेघालय, असम और मणिपुर के २-२ जिलों में पूर्वोत्तर क्षेत्र समुदाय संसाधन प्रबंधन परियोजना, अरुणाचल प्रदेश के तीन जिलों और मणिपुर के बाकी के दो जिलों के लिए पूर्वोत्तर क्षेत्र समुदाय संसाधन प्रबंधन परियोजना, इत्यादि है।

सर्वाधिक वर्षा वाले इन पर्वतीय राज्यों में वर्षा का समुचित उपयोग नहीं हो पाया है। विकास मार्ग में भारत की मापदंड रही हरित क्रांति, पीत क्रांति, नील क्रांति, पूर्वोत्तर राज्यों में अपना स्वरूप ही विकसित नहीं कर पाई है। भूमि कटाव ने कृषि को महंगा व दूभर किया है तो बाढ़ ने समय-समय पर इसके विकास को निगला है। स्पष्ट ही है कि संघर्षों के आदी हो गए इन राज्यों के निवासी जीवटता व जिजीविषा के सजीव राष्ट्रीय मापदंड हो गए हैं।

२,६२,२३० वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले इन्हीं पूर्वोत्तर राज्यों से लगा हुआ है पश्चिम बंगाल में स्थित सिलीगुड़ी कॉरिडोर, जो २१ किमी से ४० किमी चौड़ा है व उत्तरपूर्वीय क्षेत्र को मुख्य भारतीय भू-भाग से जोड़ता है। इस क्षेत्र में ही हिमालय पर्वतमाला का अधिकांश क्षेत्र आता है। यह पर्वतमाला पर्वतश्रेणी कश्मीर से अरुणाचल तक लगभग ३५०० किमी में फैली हुई है। विश्व की सर्वाधिक ऊंची इस पर्वतमाला में कुछ शिखर तो २७००० फुट से भी अधिक ऊँचें हैं। सामरिक दृष्टि से कंचनजंगा, धौलागिरी, नगा पर्वत, गोसाईथान, नंदादेवी गॉडविन ऑस्टिन का अपना महत्व है। यह पर्वत श्रृंखला कश्मीर में नगापर्वत से लेकर असम तक एक अभेद्य दीवार की तरह खड़ी है और भारत हेतु सदैव जागृत संरक्षण उपलब्ध कराती है। हिमालय के ही अनेक अन्य हिस्सों के साथ-साथ पूर्व में ही भारत और बर्मा के बीच के पहाड़ भिन्न-भिन्न नामों से ख्यात हैं जिनका अपना आर्थिक, सैन्य तथा सामरिक महत्व है। उत्तर में पटकई बुम की पहाड़ी है। नगा पर्वत से एक शाखा पश्चिम दिशा में असम की ओर निकलती हैं जिसमें खासी और गारो की पहाड़ियां हैं। घने और समृद्ध वनों से आच्छादित इन पहाड़ियों से सुख, समृद्धि व सुरक्षा तीनों ही मिलती हैं। इन पर्वतमालाओं के मध्य के रास्ते, जिन्हें दर्रे कहा जाता है, इस प्रकार बने हैं जैसे कि अखंड भारत वर्ष के लिए ही प्रकृति ने इन्हें डिजाइन किया हो। उत्तर-पश्चिम में खैबर और बोलन के दर्रे अब पाकिस्तान में हैं। कश्मीर से लगे हुए बहुत से दर्रों में हिमालय प्रदेश से तिब्बत जाने के लिए शिपकी ला दर्रा भी है। पूर्व में दार्जिलिंग का दर्रा है, जहां से चुंबी घाटी होते हुए तिब्बत की राजधानी ल्हासा तक पहुंचा जा सकता है। कई दर्रे हैं जिनसे होकर बर्मा जाया जा सकता है, इनमें मुख्य मणिपुर तथा हुकांग घाटी के दर्रे हैं।

इस अद्भुत व प्राकृतिक सुरक्षा ढांचे वाले क्षेत्र के लिए शेष भारत की अपनी संवेदनशील चिंताएं तथा सरोकार सदा रहें हैं। स्वातंत्र्योत्तर समय में एक दीर्घ काल ऐसा रहा जब पूर्वोत्तर को समझने तथा उससे तादात्म्य स्थापित करने के सुलझे हुए प्रयास कम ही हुए। प्राथमिकताओं का निर्धारण भी कुछ इस प्रकार हुआ कि पूर्वोत्तर की सात बहनों का अपने घर अर्थात शेष राष्ट्र में आना जाना तथा संवाद कमतर ही रहा। इस दृष्टि से वर्तमान दिल्ली शासन द्वारा पूर्वोत्तर संदर्भ में संवेदनशील तथा समृद्ध प्रयास किए जा रहे हैं। वैदेशिक विषयों की दृष्टि से जो ‘लुक ईस्ट’ को विस्तारित कर ‘एक्ट ईस्ट’ की नीति का रूप दिया गया है उसमें पूर्वोत्तर की इन सात बहन राज्यों की अपनी महती भूमिका होगी। केवल सैन्य और सामरिक विषयों के स्वार्थों से हटकर संवेदनशील संवाद स्थापित करने की दिशा में ही इस वर्ष मणिपुर की राजधानी इम्फाल में एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस सम्मलेन में म्यांमार, वियतनाम, नेपाल, भूटान, मालदीव, थाईलैंड सहित भारत भर के कई विद्वान् व अकादमिश शामिल हुए थे। इस सम्मेलन में दक्षिण-पूर्वी एशिया को प्रभावित करने वाले जल प्रबंधन, ऊर्जा, पारदेशीय नदी जल बंटवारे, सीमा व्यापार, सांस्कृतिक रिश्ते, सामरिक भागीदारी और भू राजनीति जैसे अनेक विषयों पर मंथन हुआ। इस महत्वपूर्ण बैठक में वैचारिक विकास की दिशा यह रही कि  पूर्वोत्तर राज्यों को ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के परिप्रेक्ष्य में केवल आर्थिक सहयोग और व्यापार एवं वाणिज्य के गलियारे के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसे भारत व दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच आर्थिक सहयोग में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी चाहिए। यह भी सहमति हुई कि इस नीति से लाभान्वित होनें वाले अन्य देशों की दृष्टि में भी पूर्वोत्तर राज्यों के विकास की दृष्टि विकसित हो क्योंकि इन समझौतों की जीवनरेखा इन सात राज्यों से निकलने वाले दर्रे और गलियारे ही हैं। पूर्वोत्तर की सीमा बांग्लादेश, म्यांमार, चीन, नेपाल और भूटान की सीमाओं से जुड़ी है। यह क्षेत्र शेष भारत के साथ २२ किलोमीटर चौड़े एक कॉरिडोर से जुड़ा है जो ‘चिकन नेक’ या ‘सिलीगुड़ी नेक’ के नाम से जाना जाता है। पिछले एक हजार वर्षों के इतिहास में सदा इन क्षेत्रों के निवासियों में भारत के प्रति स्वाभाविक प्रेम व अपनत्व रहा है और साथ-साथ यहां सदा से कुछ अलगाववादी संगठन भी सक्रिय रहें हैं जो भारत के विरूद्ध यहां की जनता को भड़काते रहे हैं। इतनें लम्बे समय तक इन अलगाववादी संगठनों के सक्रिय रहने के बाद भी इस क्षेत्र की जनता का भारत के साथ मानस बनाए रखना उनकी दृढ़ राष्ट्रीयता का ही परिणाम माना जा सकता है।

अब जब भारत अपने नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूर्वोत्तर की बात को कुछ अधिक ही अपनत्व की दृष्टि व भाव से रख रहा है तब आशाएं बढ़ गईं हैं। पूर्वोत्तर सम्बंधित नीतियों में यह स्पष्ट माना जा रहा है कि भारत की महत्वाकांक्षी व बहुचर्चित ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ तब तक निरर्थक है जब तक इस इलाके को मुख्य धारा से नहीं जोड़ा जाएगा। भारत, चीन और अन्य आसियान देशों के साथ अपनी विदेश नीति को नए आयामों में ढाल रहा है। अब दिल्ली की नीतियां, पूर्वोत्तर विकास को केन्द्रित करके बनाई जा रही हैं। इस दृष्टि से ही म्यांमार और बांग्लादेश के रास्ते प्राचीन ‘रेशम मार्ग’ को फिर से प्रारम्भ करने हेतु कुनमिंग और कोलकाता के बीच एक हाई स्पीड रेल लाइन बिछाने की योजना पर भी विचार चल रहा है।

इन पर्वतीय राज्यों की अपनी अलग प्रकार की समस्याएं हैं। दुरूह मार्गों और अभेद्य भौगोलिक परिस्थितियों में रहने वाले यहां के रहिवासी लम्बे समय तक देश की मुख्य धारा से कटे रहे हैं। इन राज्यों में देश के विरुद्ध अनेक संगठन सक्रिय रहे। कई  ख़त्म हुए और फिर नए भी बने हैं। किन्तु अब परिस्थितियां भिन्न हो गई है। पूर्वोत्तर की नई पीढ़ी भारत की मुख्य धारा में सम्मिलित होनें हेतु न केवल तत्पर है अपितु इस दिशा में नई नई पहल भी कर रही है और राष्ट्रीय कार्यक्रमों में सक्रियता से भूमिका भी निभा रही है। एक समय पर राज्य सत्ता की कमजोरी के कारण जो विद्रोही संगठनों की समानांतर सरकारें यहां चला करती थीं उस युग की अब समाप्ति हो चली है।

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