हम और हमारे जीवन-लक्ष्य

हिंदू राष्ट्र पहले से मौजूद है। वह हजारों वर्षों की परम्पराओं से स्वतः निर्माण हो गया। अफगानिस्तान से लेकर म्यांमार तक सभी इस हिंदू राष्ट्र के ही अंग हैं, चाहे फिर उनकी पूजा पद्धति कोई भी हो। कोई मंदिर में जाए, कोई मस्जिद में, कोई गिरजाघर में, कोई अग्यारी में या कोई मठ में- परंतु इससे हिंदू राष्ट्र के अभिन्न अंग होने की हमारी पहचान में कोई अंतर नहीं आता।

गाय दि मापूसांर फ्रांस के एक श्रेष्ठ कहानीकार माने जाते हैं। उनका कालखंड 1850 से 1893 तक का था। उनकी एक सुंदर लघुकथा का शीर्षक है The Piece of String अर्थात सुतली का टुकड़ा।

यह कहानी एक सामान्य किसान की है जिसे रास्ते में पड़ा हुआ एक सुतली का टुकडा मिलता है। वह उसे उठा कर जेब में रखता है परंतु उससे शत्रुता रखने वाला व्यक्ति उसे ऐसा करते हुए देख लेता है। बाद में जब वह एक होटल में बैठा होता है तब उसे मुनादी सुनाई देती है कि एक धनवान व्यक्ति का 500 फ्रैंक (फ्रेंच  मुद्रा) रखा बटुआ गुम हो गया है। जिसे वह मिले, धनी व्यक्ति को लौटा दें। उसे उचित ईनाम दिया जाएगा।

उससे शत्रुता रखने वाला व्यक्ति पुलिस को जानकारी देता है कि उस व्यक्ति (किसान) को वह बटुआ मिला है एवं उसे अपनी जेब में रखते हुए उसने देखा है। पुलिस किसान को पकड़ लेती है। वह एक सामान्य नेक किसान होता है जो पुलिस से कहता है कि बटुए के विषय में उसे कुछ भी पता नहीं है। परंतु पुलिस उस पर विश्वास नहीं करती एवं शहर में यह बात फैल जाती है कि पैसे रखा बटुआ चुराने के आरोप में पुलिस ने किसान को पकड़ लिया है।

कुछ देर बाद समाचार मिलता है कि किसी अन्य व्यक्ति को वह बटुआ मिला है एवं उसने ईमानदारी से वह उस धनी व्यक्ति को वापस भी कर दिया है। अब यह विषय यही समाप्त हो जाना चाहिए था, परंतु ऐसा न होकर एक अन्य तरह की चर्चा शुरू हो जाती है कि किसान ने उस व्यक्ति तक (जिसे यह बटुआ मिला था) वह बटुआ कैसे पहुंचाया? कुछ लोग किसान को इस बारे में पूछते हैं एवं उसकी चतुराई की तारीफ करते हैं। किसान कहता है कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है परंतु लोग कहते हैं, ”तुम्हें बताना न हो तो मत बताओ।” किसान वापस अपने घर आ जाता है।

गांव आने के बाद भी उसके विषय में बटुए की चर्चा चालू ही रहती है। वह जब भी घर से बाहर निकलता है सभी उससे उस बटुए के बारे में सवाल पूछते हैं। वह व्यक्ति बेकसूर होते हुए भी लोग उसे अपराधी समझने लगते हैं एवं उससे सावधान रहने की बात करते हैं।

साल-दर-साल यही चलता रहता है। वह निरपराध किसान बीमार पड़ जाता है एवं उसकी मृत्यु हो जाती है। मापूंसार की कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।

30 जनवरी 1948 को गांधीजी की हत्या हुई। हत्या करने वाला हिन्दू था। वह हिन्दू महासभा का सदस्य था। पं. नेहरू एवं उनके साथियों ने इसके लिए संघ को जिम्मेदार माना; जबकि गांधी हत्या से संघ का दूर-दूर तक भी संबंध नहीं था।

गांधीजी महात्मा थे। करोड़ों लोगों की उनके प्रति आस्था थी। उन लोगों को लगा कि गांधी हत्या में संघ का हाथ होना चाहिए। 1950 से मैं संघ में जाने लगा। उस समय मेरी उम्र 6 वर्ष थी। गांधी, हत्या इ. विषय हमारी समझ के बाहर के थे। हमारे एक पड़ोसी थे, धनाजी मिस्त्री। वे मुझे कहते कि तुम लोग गांधी के हत्यारे हो। कौन गांधी, कैसी हत्या यह मेरी समझ के बाहर था। दो-तीन पी़ढियों तक यह वार संघ के स्वयंसेवकों को सहन करना पड़ा। बहुत सालों बाद मापूसांर की उपरोक्त कहानी मुझे पढ़ने को मिली। इससे पता चला कि किसी निरपराध व्यक्ति को उस पर आरोप लगने पर क्या-क्या सहन करना पड़ता है।

मापूसांर की कथा का किसान निराशा से मर जाता है। परंतु संघ का जन्म निराशा में मरने हेतु नहीं हुआ है। संघ का जन्म सत्य की स्थापना, धर्म की स्थापना के लिए हुआ है। यह जिन्हें समझ में आया उन्होंने संत ज्ञानदेव के समान क्षमा का भाव रख कर समाज में कार्य करना जारी रखा। उन्हें यह विश्वास था कि आज हमारा यह कार्य लोगों की समझ में नहीं आ रहा है। क्योंकि वे नासमझी के शिकार हैं, विपरीत विचारों ने उनके मन में घर बना लिया है परंतु यह परिस्थिति हमेशा नहीं रहने वाली है, उसमें बदलाव निश्चित होगा।

परिस्थिति के विषय में कहा जाता है कि कोई भी एक व्यवस्था हमेशा नहीं बनी रहती। सालभर गर्मी या बरसात या ठंड सामान्य परिस्थिति में कभी नहीं रहती। कभी-कभी बरसात में धुआंधार पानी बरसता है परंतु पूरे माह भर वैसा ही बरसता रहे ऐसा कभी नहीं होता। प्रत्येक की मर्यादा होती है। व्यक्तियों का भी ऐसा ही है। जिस पीढ़ी के मन में संघ के विषय में झूठी बातें भरी गईं वे लोग भी बड़े लोग थे। वे लोग भी अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनके विचारों से सहमत पीढ़ी भी अब काल के गाल में समा गई है।

संघ में भी तीन पी़ढियां काम कर गई हैं। पहली पीढ़ी ने बोया, दूसरी ने उसे खाद-पानी दिया, बढ़ते हुए पौधे का रक्षण किया एवं तीसरी ने उसका वृक्ष में रूपांतरण होते हुए देखा। संघ की जड़ें धीरे-धीरे समाज जीवन में बहुत अंदर तक पहुंच गई हैं। जातियों में समाविष्ट न होने वाली अनेक जमातों को आदिवासी कहा गया। जब समाज ही हिन्दू नहीं है तो राष्ट्र हिन्दू राष्ट्र कैसे होगा, ऐसा प्रश्न अनेक लोगों ने किया।

डॉ. साहब ने जिस हिन्दू राष्ट्र के सत्य की अनुभूति की थी एवं अपनी वह अनुभूति अपने अन्य सहयोगियों में संक्रमित की थी, उनके सामने उपरोक्त प्रश्न कभी भी उपस्थित नहीं हुए। हमारे देश की परंपरा है कि सत्य की प्रस्थापना कभी भी किताबी ज्ञान से नहीं होती, उसकी अनुभूति होना आवश्यक है। ज्ञानदेव, तुकाराम इन संतों के अध्यात्म के विषय में कई प्रवचनकार एवं कथावाचक बड़े ही सुंदर शब्दों में विवेचन करते हैं। परंतु उनमें से कोई भी ज्ञानदेव या तुकाराम नहीं होता। उनके पास अनुभूत ज्ञान नहीं होता। विश्वविद्यालयों में नामदेव पीठ, ज्ञानदेव पीठ इस प्रकार के पीठ होते हैं। वहां इन संतों के साहित्य का अध्ययन किया जाता है। कुछ लोग इसमें पीएच.डी. प्राप्त करते हैं। कुछ अन्य उत्तम ग्रंथों का निर्माण करते हैं। इनमें से किसी के पास भी ज्ञानदेव, नामदेव, तुकाराम का अनुभूत ज्ञान नहीं होता। वे शब्दज्ञानी होते हैं, इसलिए जनजीवन पर उनका प्रभाव लगभग नहीं होता।

अनुभव से जिसे ज्ञान प्राप्त हुआ है ऐसा कोई भी ज्ञानी वाद-विवाद या चर्चा में नहीं उलझता। वह तो अपनी साधना में रत रहता है। सत्य का अनुभव उसे जैसा हुआ है, उसी भाषा में वह उसे प्रकट करता है। जिसे वह समझ में आता है उसका भला, जिसे नहीं समझता उसका भी भला- इस प्रकार के समभाव से वह अपना कार्य करता रहता है।

संघ की हिन्दू राष्ट्र की कल्पना किताबी या तर्क-कुतर्क की नहीं है, वरन वह प्रत्यक्ष अनुभव करने की है। जिनका सम्पूर्ण जीवन मोटे-मोटे ग्रंथों के वाचन, उसके आधार पर प्रवचन तथा नया ग्रंथ लिखने में बीतता है ऐसे लोग जब संघ की हिंदू राष्ट्र की संकल्पना पर अपने विचार प्रकट करते हैं, तो उनके विषय में हम कह सकते हैं कि संघज्ञान के विषय में उन्होंने अभी पहली कक्षा भी उत्तीर्ण नहीं की है।

अनेक वरिष्ठ संघ कार्यकर्ता अपना जीवन पूर्ण कर कालवश हो गए। अभी अभी मुंबई के वरिष्ठ संघ कार्यकर्ता श्री भास्करराव मुंडले का निधन हुआ। भास्करराव न तो तत्वज्ञ थे, न बड़े विद्वान और न ही वादविवाद करने में पारंगत थे। परंतु समग्र हिन्दू समाज मेरा है और उस पर मुझे बिना किसी भेदभाव के प्रेम करना है, इस भावना से वे प्रेम करते हुए समाज जीवन में घुलमिल गए। उनके भाषणों से किसी को संघकार्य करने की प्रेरणा भले ही न मिली हो परंतु उनके आत्मीय व्यवहार से सैकड़ों कार्यकर्ता संघ से जुड़े। यह है संघ जो किसी किताबों में नहीं मिलता। कुछ लोग किताबें लिखते हैं परंतु वे किताबें मेरे जैसे संघ स्वयंसेवक के मन और बुद्धि को स्पर्श नहीं कर सकतीं।

ऐसे संघ एवं हिन्दू राष्ट्र के विषय में अपनी कुबुद्धि का उपयोग कर कुछ गलत बातें जब कोई सेवानिवृत्त न्यायाधीश करता है, तब उसके संघ के विषय में अज्ञान को जानकर तरस आता है। राजेन्द्र सच्चर दिल्ली हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश थे। हाईकोर्ट का न्यायाधीश होना, यह एक बड़े सम्मान की बात है और न्यायशास्त्र में पारंगत होने की वह रसीद भी है। राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों की स्थिति की जानकारी एकत्रित करने के लिए समिति की स्थापना की। उन्होंने अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत की जो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के नाम से जानी जाती है। इस रिपोर्ट में उन्होंने मुसलमान समाज में गरीबी, शिक्षा का स्तर, आर्थिक पिछडापन इन सबकी जानकारी एकत्रित कर उनके विकास के लिए आरक्षण और कुछ आर्थिक उपाय करने की सिफारिशें कीं।

कांग्रेस को उसी प्रकार की जानकारी चाहिए थी। कांग्रेस के लिए मुसलमान एक वोट बैंक है। उस वोट बैंक को यदि प्रसन्न रखना है तो उन्हें धर्म के आधार पर कुछ सहायता देनी होगी। परंतु हमारा संविधान इसकी अनुमति नहीं देता है। इसमें से मार्ग निकालने हेतु किसी न्यायाधीश की अध्यक्षता में समिति बना कर अपने अनुकूल रिपोर्ट बनवाना आवश्यक था। राजेन्द्र सच्चर जैसे न्यायाधीश इस हेतु हमेशा तैयार रहते हैं।

योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने पर सच्चर महोदय ने कहा था, “सन 2019 में भारत हिन्दू राष्ट्र है, ऐसी घोषणा संघ करेगा। 2019 में लोकसभा के चुनाव हैं। उससे दो वर्ष पूर्व ही योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाना, इस घटना की ओर अत्यंत सावधानी से देखना चाहिए। ऐसे समय भाजपा को पराजित करने हेतु सभी विरोधी दलों को एकत्र आना होगा। यदि ऐसा नहीं किया तो यह बेईमानी होगी और यह धर्मनिरपेक्ष लोगों के लिए अन्यायकारक घटना होगी।”

राजेन्द्र सच्चर का उल्लेख करते हुए हमारे यहां की मुख्य धारा की तथाकथित मीडिया उन्हें न्यायमूर्ति, 93 वर्ष के, लोकतंत्र एवं संविधान की चिंता करने वाले इस प्रकार के विशेषणों का प्रयोग करता है। पाठकों के मन पर उसका अनजाने में दबाव पड़ता है। जिसके बारे में लिखा जा रहा है वह व्यक्ति बड़ा लगने लगता है। परंतु ऐसे विशेषणों से हम भ्रम में न रहे। जो व्यक्ति सच्चर आयोग की रिपोर्ट लिख सकता है उससे अन्य किसी अलग बात की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हमारे मन में तो यह विचार उठना चाहिए कि ऐसी विचारधारा का व्यक्ति हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश कैसे बना? हमारी व्यवस्था में कहीं कोई गडबड़ी तो नहीं है?

ऐसे ही दूसरा बड़ा नाम फली नरिमन का है। वे भारत के महान संविधान विशेषज्ञ हैं। पारसी हैं। मैंने जब संविधान का गंभीर अध्ययन शुरू किया तब नरिमन की पुस्तकों ने मेरा बहुत मार्गदर्शन किया। उनके द्वारा लिखित “स्टेट ऑफ नेशन, बिफोर मेमोरी फेड्स’ और ‘गॉड सेव द सुप्रीम कोर्ट’ ये किताबें संविधान का बहुत अच्छी तरह से ज्ञान कराती हैं। इसके लिए मैं उनका ऋणी हूं।

योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद फली नरीमन ने कहा, “यह हिंदू राज्य का प्रारंभ है। संविधान खतरे में आ गया है। आदित्यनाथ की नियुक्ति के पीछे का मंतव्य हमें समझना चाहिए। प्रधानमंत्री कुछ भी कहें, आदित्यनाथ की मुख्यमंत्री पद पर नियुक्ति धार्मिक राज्य के प्रचार का प्रारंभ है। एक पुजारी की मुख्यमंत्री पद पर नियुक्ति कर नरेंद्र मोदी ने हिंदू राज्य का प्रारंभ कर दिया है।”

नरिमन के विषय में आदरभाव व्यक्त करते हुए मैं नम्रतापूर्वक कहना चाहता हूं,“मि. नरिमन, आप संविधान विशेषज्ञ भले ही हों, परंतु संघ के विषय में आपका ज्ञान पहली कक्षा के बराबर भी नहीं है। योगी आदित्यनाथ जैसा एवं संन्यासी मुख्यमंत्री बनने से हिंदू राज्य का निर्माण नहीं होता। इसके विपरीत और कुछ वर्षों के बाद वे मुख्यमंत्री नहीं भी रहे तो हिन्दू राज्य समाप्त हो जाएगा ऐसा भी नहीं है। एक व्यक्ति के आसपास हिन्दू राज्य की कल्पना, तर्कशास्त्र की दृष्टि से फैलेसी (बहुत बड़ी गलती) है।”

सन 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार पूर्ण बहुमत प्राप्त कर सत्तारूढ़ हुई। तब अनेक लोगों को लगा था कि भाजपा भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करेगी।

महाराष्ट्र से एक मासिक पत्रिका का दिवाली अंक निकलता है। उस दिवाली अंक के लिए, ‘संघ का हिंदू राष्ट्र’ इस विषय पर अनेक लेखकों से लेख मंगाए गए थे। मुझ से भी लेख मंगाया गया था। भाजपा की सरकार आने से हिंदू राष्ट्र-प्रत्यक्ष में आएगा क्या? कुछ इस प्रकार का वह विषय था। उस लेख में मैंने लिखा कि यह हिंदू राष्ट्र है, यह घोषणा संघ ने सन 1925 में ही की थी। अब फिर से वह करने की कोई आवश्यकता नहीं है। भाजपा की जीत से उसका कोई संबंध नहीं है। भारत हिंदू राष्ट्र था और भाजपा सत्ता में आने के बाद भी वह हिंदू राष्ट्र ही रहेगा। पं. नेहरू जब प्रधानमंत्री थे तब भी यह हिंदू राष्ट्र ही था और इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए भी यह हिन्दू राष्ट्र ही था। हिंदू राष्ट्र की कल्पना दलों से आगे जाकर है।

इसका कारण यह है कि हिंदू राष्ट्र की संकल्पना राजनीतिक संकल्पना नहीं है। राजनीतिक दलों का काम राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना होता है। सत्ता प्राप्त करने के लिए ये दल जनता के सामने अपने कार्यक्रम रखते हैं। एक दूसरे से वे कैसे भिन्न हैं यह बताने के लिए अपनी विचारधारा लोगों के सामने प्रगट करते हैं। सामान्यत: राजनीतिक दलों के कार्यक्रम एवं विचारधारा में कोई लक्षणीय अंतर नहीं होता। सभी राजनीतिक दलों को संविधान की मर्यादा में ही काम करना पड़ता है। कोई भी राजनीतिक दल राष्ट्र बना नहीं सकता और न ही राष्ट्र नष्ट कर सकता है। हमारे देश में राष्ट्र बनाने का काम ऋषि, साधुसंत, महात्मा, महाकवि, महान दार्शनिक करते हैं। दल बनते हैं, कुछ समय तक अस्तित्व में रहते हैं एवं बाद में उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। प्रजा समाजवादी पार्टी इस देश में थी यह यदि आज की तरुण पीढ़ी को बताया जाए तो उन्हें ऐसा लगेगा जैसे कुछ नया बताया जा रहा है।

राष्ट्र कोई निर्माण नहीं कर सकता। राष्ट्र निर्माण होता है। राष्ट्र निर्मिति की प्रक्रिया हजारों वर्ष चलती रहती है। राष्ट्र यह राजनीतिक संकल्पना न होकर भावनात्मक संकल्पना है। एक भूप्रदेश में लोग रहते हैं, उस भूप्रदेश से उनका भावनात्मक संबंध निर्माण होता है। हजारों वर्ष एक ही भूमि में रहने के कारण वह भूमि हमारी माता एवं हम उसके पुत्र हैं ऐसी भावना निर्माण होती है। भूमि पर स्थित नदियां, पर्वत, वृक्ष इन सबके विषय में आत्मीयता निर्माण होती है। वे हमारे भाव विश्व का एक भाग बन जाते हैं। अनेक रूपों में मातृत्व देखने की हमारी यह परंपरा है। गंगा, यमुना, सरस्वती, कावेरी ये हमारे लिए केवल पानी देने वाली नदियां न होकर माताएं हैं। नदी का उल्लेख माता इस शब्द से ही किया जाता है। उसकी प्रतिमा तैयार कर उसकी पूजा की जाती है। यह पद्धति असम से लेकर कच्छ तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक समान है।

नदी माता के रूप में कैसी प्रकट होती है इसकी अनेक भाव कथाएं प्रचलित हैं। कृष्ण का जन्म मथुरा के कारागृह में हुआ। जन्मते ही उन्हें लेकर उनके पिता वसुदेव यमुना नदी से निकले। उस समय यमुना में बाढ़ आई थी, परंतु यमुना ने वसुदेव को रास्ता दिया। जन्म लिए हुए बालक के चरणस्पर्श करने हेतु यमुना प्रकट हुई, ऐसी कथा सालों से बताई जा रही है। अब वह हमारे भावविश्व का भाग बन गई है। अब वृथा तर्क नहीं चलते। भावनाओं के विश्व में बुद्धि का काम नहीं है।

कहने को तो नर्मदा नदी अन्य नदियों के समान ही एक नदी है। परंतु भारत में नर्मदा नदी को छोड़ कर अन्य किसी भी नदी की परिक्रमा नहीं की जाती। यह सम्मान केवल नर्मदा नदी को प्राप्त है। उसे माता नर्मदा (नर्मदा मैया) कहते हैं। हजारों वर्षों से यह परिक्रमा की जा रही है। इस परिक्रमा में हिस्सा लेने वाले कई बार एक दूसरे की भाषा भी नहीं जानते। देश के कोने कोने से वे आते हैं। परिक्रमा करने वाले किसी पर भी अन्याय नहीं होता। उनको कोई लूटता भी नहीं है। स्त्रियों पर भी कोई अनाचार नहीं होता। यह है हमारा भावविश्व!

इस भावविश्व से यह संपूर्ण देश आपस में जुड़ा है। राम मनोहर लोहिया कहते थे कि, राम कृष्ण और शिव के खड़े-आड़े धागों के कारण भारत बचा है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर कह गए हैं कि सांस्कृतिक एकता के विषय में भारत की बराबरी कर सके, ऐसा कोई भी देश विश्व में नहीं है। हिंदू राष्ट्र निर्माण करना याने यह सब निर्माण करना है और संघ यह कभी नहीं कहता कि ये सब उसने निर्माण किया है। यह तो हजारों वर्षों की परंपरा है।

इस देश का चित्र जब आंखों के सामने आता है तो अफगानिस्तान से लेकर म्यांमार (बर्मा) तक एक विशाल एवं अखंड प्रतिमा मन में आकार लेती है, यह है भारत माता।उसका यह विशाल रूप संघ ने निर्माण नहीं किया है। वह हमें हजारों वर्षों की परंपरा और पैतृक हक से प्राप्त हुआ है। यह रूप परमेश्वर ने ही निर्माण किया है। यदि परमेश्वर की कल्पना किसी को अमान्य हो तो कहें कि यह रूप प्रकृति ने निर्माण किया है।

हिमालय की संरक्षक दीवार- उत्तर में काराकोरम पर्वत श्रृंखला, दक्षिण में समुद्री सीमा से संरक्षित, सब प्रकार की विविधता, सब प्रकार की वनस्पतियां, विपुल खनिज संपदा, श्रम एवं बुद्धि का मेल, मानव समूह ये सारी बातें प्रकृति प्रदत्त हैं। इसमें से एक भी वस्तु संघ निर्मित नहीं है। संघ क्या, विश्व की कोई भी सत्ता या संगठन इसे निर्माण नहीं कर सकता। ये सब प्रकृति सिद्ध हैं। इन सब का समुच्चय याने हिंदू राष्ट्र। इसका सुंदर वर्णन भगवान गौतम बुद्ध की एक कथा में है।

आत्मबोध प्राप्त होने के पूर्व भगवान बुद्ध प्रगाढ़ निद्रा में लीन हो गए। उन्हें एक स्वप्न दिखाई दिया। उसमें उन्होेंने देखा कि उनका मस्तक कश्मीर में है, पैर समुद्र को छू रहे हैं, एक हाथ गांधार देश (अफगानिस्तान) में है और दूसरा हाथ तिब्बत में है। अखंड हिन्दू राष्ट्र का यह दर्शन है। वह सनातन है, इस कारण शाश्वत है। उसका निर्माता कोई नहीं है। अत: वह नष्ट नहीं हो सकता। वह सिकुड़ सकता है (जैसा आज हुआ है); परंतु उसका नाश नहीं हो सकता। क्योेंकि वह एक ऊर्जा है। ऊर्जा का सिद्धांत है कि ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती। ऊर्जा का रूपांतर होता है। विज्ञान में यह शाश्वत सिद्धांत समझा जाता है। वैसा ही हिन्दू राष्ट्र का है। हिन्दू राष्ट्र का विचार जो लोग राजसत्ता के साथ जोड़ कर करते हैं उन्हें वैसा करने दें। कुछ लोगों की आदत होती है कि कुछ सिद्धांत स्वीकार कर उनके आधार पर बाकी सब बातों का नियोजन करना। गोलाकार खांचा यदि बना है तो वर्गाकार वस्तु उसमें नहीं समा सकती। परंतु जो ऐसा करने का प्रयास कर रहे हैं उन्हें हम रोक भी नहीं सकते।

हमारे देश का वर्णन अनेक विदेशियों ने अत्यंत भावपूर्ण एवं काव्यमय भाषा में किया है। मैक्समूलर यह नाम हम सभी को परिचित होगा ही। वे जर्मन थे। उन्होंने वेद, उपनिषद और भारत के प्राचीन संस्कृत साहित्य का गहन अध्ययन किया था। उन्होंने ये ग्रंथ अंग्रेजी में प्रकाशित किए। उनका यह कार्य इतना विराट है कि हमारे जैसा सामान्य व्यक्ति उसे देख कर अचंबित ही नहीं होता वरन विनम्र भी हो जाता है।

भारत की प्रशासकीय सेवा में शामिल होने हेतु अंगे्रज युवक परीक्षा पास कर आते थे। उनके सामने मैक्समूलर के ‘इंडियाः व्हाट कैन इट टीच अस’ इस विषय पर भाषण हुए। अंग्रेज व्यक्ति स्वभावतः साम्राज्यवादी होता है। साम्राज्यवादी व्यक्ति दूसरे को तुच्छ समझता है। मेरा जन्म शासन करने के लिए ही हुआ है, ऐसा वह समझता है। ऐसा समझने वाले सभी अंग्रेज विद्यार्थी मैक्समूलर का भाषण सुनने के लिए बैठे थे। (इस भाषण की पुस्तक ऊपर दिए गए शीर्षक से उपलब्ध है)

मैक्समूलर भारत का वर्णन करते हुए कहते हैं, (सारांश एवं भावानुवाद) “पृथ्वी पर यदि नंदनवन के रूप में किसी का वर्णन करना हो तो वह भारत है। प्रकृति ने इस भारत भूमि पर विशेष मेहरबानी की है। मनुष्य को यदि प्रकृति की उत्कृष्ट देन कोई है तो वह है मन। इस मन का समग्र विकास भारत में हुआ है। मानवी जीवन को ग्रसित करने वाली समस्याओं पर यहां गहराई से चिंतन हुआ है। यहां के मनीषी केवल चिंतन करके ही नहीं रुके  वरन उन्होंने उन समस्याओं के उपाय भी खोजे। प्लेटो जैसे दार्शनिकों  का जिन्होंने अध्ययन किया है वे भी वैचारिक अध्ययन के लिए भारत की ओर आकृष्ट हुए हैं। हम यूरोप के लोग ग्रीक और रोमन लोगों की वैचारिक विरासत पर जीवित हैं। हम सब सेमेटिक वंश के हैं एवं उसमें यहूदी वंश के लोग भी शामिल हैं। यदि हमें हमारा आंतरिक जीवन अधिक परिपूर्ण करना हो, अधिक व्यापक करना हो, अधिक वैश्विक करना हो तो हमें भारत की ओर मुड़ना होगा। वैसे ही यदि हमें हमारा जीवन वास्तव में सार्थक करना है या केवल यह जीवन ही नहीं वरन पारलौकिक जीवन भी अर्थपूर्ण बनाना है तो हमें भारत की ओर ही मुडना पड़ेगा।”

(फ्रेंडिक मैक्समूलर,‘इंडिया: व्हॉट कैन इट टीच अस’ केंब्रिज विश्वविद्यालय में व्याख्यानमाला)

जैसे हमारा हिंदू राष्ट्र है वैसे ही इंग्लैण्ड का इंग्लिश राष्ट्र है, फ्रांस के लोगों का फ्रेंच राष्ट्र है, जर्मनों का जर्मन राष्ट्र है। ये राष्ट्र कैसे बने उनका अपना इतिहास है। लेख का विस्तार होने के डर के कारण यहां केवल इंग्लैण्ड का विचार करते हैं। इंग्लैण्ड की आत्मा किसमें बसती है? तो वह उनके संविधान में। वहां का संविधान लिखित नहीं है। उनका संविधान केवल यह नहीं बताता कि शासन कैसे चलाना है, नागरिकों के अधिकार कौन से हैं, शासन पद्धति कौनसी होना चाहिए इ.। यह संविधान देश की नीतिमत्ता, धर्मव्यवस्था, समाजव्यवस्था, न्यायव्यवस्था, नागरिकों के कर्तव्य ऐसी अनेक बातें स्पष्ट करने वाला है।

इंग्लैण्ड का संविधान ठीक से समझने के लिए इंग्लैण्ड का संवैधानिक इतिहास पढ़ना होगा। उसके लिए ब्लॅकस्टोने डायसे बॅनथेम आदि के लेख भी पढ़ने पड़ेंगे। संविधान और ब्रिटेन राष्ट्र अलग नहीं किए जा सकते। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ब्रिटिश राष्ट्र याने संविधान कैसे विकसित होता गया इसका इतिहास बताने वाली मार्टिन लोफलिन की एक सुंदर पुस्तक है ’द ब्रिटिश कांस्टिट्यूशन’। वहां राजा एक संस्था है। संसद, मंत्रिमंडल, न्यायपालिका, परंपरागत कानून, परंपरा इन सबको मिला कर ब्रिटिश राष्ट्र तैयार होता है, उसका लिखित संविधान नहीं है। याने अपने यहां जैसे विभिन्न धाराओं का एक मोटा ग्रंथ नहीं है। परंपरा से आए हुए कानून, संसद द्वारा निर्मित कानून इ. सब यदि एकत्रित किए जाएं तो एक अकल्पनीय बड़ा ग्रंथ निर्माण हो सकता है। राष्ट्र ऐसी परंपरा से निर्मित होता है।

हमारी परंपरा कौनसी है? तो हमारी परंपरा अध्यात्म की है। राजा, राज्य, राजसंस्था के कानून हमारे यहां भी थे। परंतु हमने इन सब विषयों को ब्रिटेन के समान केवल और केवल एकमात्र महत्व नहीं दिया। समाज चलाने के लिए, न्याय करने के लिए, संरक्षण करने हेतु शासन व्यवस्था आवश्यक है। वह काम शासन व्यवस्था को करना चाहिए। परंतु इसके आगे भी मनुष्य जीवन है। मनुष्य कोई राजनीतिक प्राणी नहीं है। यह थी अरस्तू की परिभाषा। यदि राजनीतिक प्राणी कहा जाए तो राज्य आया, सत्ता आई, सत्ता के प्रति प्रतिबद्धता आई, कानून आया, कानून बनाने की बाध्यता आई, ऐसी सैंकड़ों बातें शुरू हुईं। हमारे हिंदू राष्ट्र ने एक सनातन सत्य सामने रखा है कि मनुष्य कोई राजनीतिक प्राणी नहीं है, वह आध्यात्मिक प्राणी है। आध्यात्मिक प्राणी याने मनुष्य केवल भौतिक प्राणी नहीं है। शरीर की आवश्यकताएं याने मनुष्य नहीं, उसके आगे भी मनुष्य का अस्तित्व है। इस राष्ट्र का एक अध्यात्म है।

पॉल ब्रेन्टन नामक अंग्रेज युवक भारत के आध्यात्मिक रहस्य को जानने के लिए भारत आया। सन 1898 में जन्मे पॉल ब्रेन्टन ने तीन चार वर्ष भारत में सर्वत्र प्रवास किया। महर्षि रमण के सानिध्य में वह दीर्घकाल तक रहा। उसे कुछ आध्यात्मिक अनुभूतियां हुईं। भारत के इस आध्यात्मिक खजाने के विषय में वह कहता है, “एक महान अस्तित्व से मानव महानता से जुड़ा है और उस अस्तित्व ने उसका उसकी माता से अधिक पोषण किया है। जिस क्षण वह जानकर हो जाता है उसी समय उसकी अनुभूति उसे होती है।

मानव में वह अविनाशी सत्य है। मानव उसके वास्तविक ‘स्व’ की ओर से पूरी तरह से ध्यान हटा सकता है पर इसके कारण उस अविनाशी सत्य की महानता की चमक पर उसका कोई असर नहीं होगा। उसकी चमक फीकी नहीं पड़ेगी। मनुष्य यह सत्य भुलाकर गहरी निद्रा के अधीन हो सकता है। परंतु जिस दिन वह अपने हाथ लंबे कर मानव को स्पर्श करेगा, उसी दिन उसे याद आएगा “वह कौन है”और उसकी आत्मा उसे प्राप्त होगी।” (संदर्भ- आध्यात्मिक भारत की रहस्यमय खोज – पॉल ब्रेन्टन)

अध्यात्म हमें बताता है कि ब्रम्हांड की निर्मिति एक ही तत्व से हुई है। वह पहले एक ही था, बाद में उसके मन में विचार आया कि मैं अनेक रूपों में प्रकट होऊंगा और फिर वह अनेक रूपों में प्रकट हुआ। आज का क्वांटम सिद्धांत विज्ञान की भाषा में यही प्रकट करता है। एक मूल तत्व था, उसकी घनता असीम थी, उसमें विस्फोट हुआ और फिर ब्रह्मांड का निर्माण हुआ। इसे बिग बैंग थ्योरी कहते हैं। स्टिफन हॉकिन्स की पुस्तक में बड़ी ही सरल भाषा में इसका विश्लेषण पढ़ने को मिलता है।

क्वांटम सिद्धांत और भारतीय अध्यात्म ब्रह्मांड की उत्पति के विषय में समान बातें कहते हैं परंतु उसमें एक मूलभूत अंतर है। असीमित घनत्व वाले मूल द्रव्य में विस्फोट क्यों हुआ, यह क्वांटम सिद्धांत नहीं बताता। परंतु हमारा अध्यात्म कहता है कि प्रथम वह एक ही था। उसके मन में विचार आया। इसका अर्थ है जो वह एक था उसे मन था। मन केवल सजीव प्राणियों में ही होता है। पदार्थ का मन नहीं होता। मन याने चेतना। अर्थात सृष्टि निर्मिति के समय ही एकसाथ पदार्थ और चेतना की निर्मिति हुई। चेतना याने शरीर में स्थित रासायनिक प्रक्रिया न होकर उसका अस्तित्व पदार्थ के समान स्वतंत्र है। पदार्थ शास्त्र के नियम हैं, चेतना के भी नियम हैं। उसकी खोज करने वाला शास्त्र याने अध्यात्म।

इसलिए हमारा हिन्दू राष्ट्र कहता है कि विश्व इस चेतना का फैलाव है। मैं और तुम अलग नहीं हैं। एक ही चेतना का संचार हम दोनों में है, वह विश्वव्यापी है। उसका विकास होते जाना चाहिए। विकास क्रमश: होता है। पहले स्वयं के अंदर की चेतना को जानिए। दूसरे के साथ भी स्वत: जैसा व्यवहार करें। उसके सुख-दुख में सहभागी बनें। उससे जो आनंद प्राप्त होगा उसकी मिठास कुछ अलग ही होगी। इशोवास्योपनिषद का पहला श्लोक महात्मा गांधी को पसंद था। वह श्लोक इस प्रकार है-

“ईशा वास्थमिदं सर्व यत्किंच जगत्या जगत

तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम”

इसका अर्थ है कि जो विश्व हम देखते हैं, वह है उसमें मौजूद पदार्थ। यह सब ईश्वर निर्मित है। इस जगत में रहते हुए कुछ बातों का हमें उपयोग करना पड़ता है, उपभोग करना पड़ता है, पर उस समय भावना ऐसी होनी चाहिए कि इसका निर्माता मैं नहीं हूं, यह ईश्वर निर्मित है। इसलिए उसका त्यागपूर्वक उपयोग करना ही मेरे हाथ में है। दूसरे किसी के धन की वासना मन में न रखे। इसका अर्थ बहुत गहरा है। पूरा ‘मार्क्स’ इस एक श्लोक में समाया है। दूसरे का धन नहीं लेना अर्थात दूसरे की मेहनत की कमाई किसी भी प्रकार से नहीं छीनना है। मेरे पास पैसा अधिक है। मुझे तीन-चार कमरे वाले घर की आवश्यकता है परंतु मैं दस बारह कमरों का मकान ले लेता हूं। इसका अर्थ है कि दूसरे के कमरों पर मैंने कब्जा कर लिया है। आज मुंबई में 20 लाख से अधिक चौपहिया वाहन हैं। एक गाड़ी 10×10 फुट की जगह घेरती है। इन सबका यदि गुणा किया जाए तो वह एक बहुत बड़ा आंकड़ा होगा। सजीव व्यक्ति को 10×10 के कमरे में 5-6 लोगों के साथ रहना पड़ता है और निर्जीव गाड़ियां कई लाख वर्ग फुट जमीन पर कब्जा किए हुए हैं। मा गृध: कस्य स्विद्धनम इस वाक्य का यही अर्थ होता है। जिस प्रकार इंग्लैण्ड राष्ट्र ये वहां का अलिखित संविधान है, उसी प्रकार भारत याने यहां का अध्यात्म है। इस अध्यात्म को ही सनातन धर्म कहते हैं। धर्म याने एक ईश्वर, एक ग्रंथ, एक पैगम्बर, एक ही प्रकार का धार्मिक कर्मकांड यह हमारा अर्थ नहीं है। धर्म का हमारा अर्थ है सृष्टि संचालन करने वाले हमारे शाश्वत नियम। मानव के आपसी संबंध संचालित करने वाले शाश्वत नियम, इन शाश्वत नियमों का पालन करना याने धर्माचरण करना। उदाहरण के लिए – हिंसा न करें, असत्य न बोलें, क्रोध के वशीभूत न हो, यह है मानव -मानव के बीच व्यवहार करने के नियम। ये शाश्वत हैं। उपनिषदों से लेकर भगवान गौतम बुद्ध एवं सभी संत अपनी-अपनी भाषा में इन नियमों का पालन करने की नसीहत देते हैं। इस प्रकार जीवन जीना याने धर्माचरण करना है। यह सनातन धर्म, यह भारत की आत्मा है।

उत्तरपारा के अपने भाषण में योगी अरविंद ने कहा,”सनातन धर्म यही हमारे लिए राष्ट्रवाद है। सनातन धर्म के साथ ही हिदू राष्ट्र का जन्म हुआ और वह उसी के साथ आगे बढ़ रहा है। वृद्धिगत हो रहा है। जब सनातन धर्म का पतन होता है तब राष्ट्र अधोगति की ओर जाता है और यदि सनातन धर्म डूबेगा तो यह राष्ट्र भी डूबेगा। सनातन धर्म यही राष्ट्रवाद है और यही संदेश मुछे आपको देना है। “ सनातन धर्म एवं राष्ट्रवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

प्रत्येक राष्ट्र का एक जीवन-लक्ष्य होता है। हम इंग्लैण्ड से प्रारंभ करें। इंग्लिश राष्ट्र का जीवन-लक्ष्य विश्व को संसदीय पद्धति की शासन व्यवस्था विकसित कर देने का है। मनुष्य समाज में रहता है और समाज को नियमित रखने हेतु नियमों में बांध कर रखना पड़ता है। नियमों में बांध कर रखते समय यह ध्यान में रखना पड़ता है कि व्यक्ति के विकास को पूरा-पूरा मौका मिले। राज्य की सार्वभौम सत्ता अबाधित रखते हुए व्यक्ति के सार्वभौम जीनव को यथायोग्य स्थान देना पड़ता है। यह इंग्लैण्ड ने कर दिखाया है। अमेरिका का वैश्विक लाभ है, विश्व को लिबर्टी देने का। लिबर्टी का एक अर्थ होता है स्वतंत्रता और दूसरा अर्थ होता है मुक्तता।

अमेरिका का इतिहास धार्मिक एवं राजसत्ता के जुल्मी नियमों से मुक्त होने का है। यूरोप के देशों से जो लोग अमेरिका में आए वे धर्म एवं राज्य के अत्याचारों से परेशान होकर आए थे। उन्हें लिबर्टी याने मुक्तता चाहिए थी। उसके लिए उन्होंने इंग्लैण्ड से संघर्ष किया। स्वतंत्रता प्राप्त की। यह स्वतंत्रता या लिबर्टी विश्व को देना यह अमेरिका का वैश्विक विषय है। ‘स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी’ यह उसका प्रतीक है। यह लिबर्टी देने के लिए अमेरिका कई बार दादागिरी करता है, डराता है, युद्ध करता है परंतु उसके कारण अमेरिका का ध्येयवाद धूमिल होता है।

भारत का याने हिंदू राष्ट्र का वैश्विक लाभ है, विश्व को मानव धर्म की सीख देना। विश्व में मानव ही मानव को मारता है। अर्थात चैतन्य से चैतन्य धारण करने वाले की हत्या होती है। यह अधर्म है। यह बताने के बाद भी कोई सुनता नहीं है। आज विश्व में महात्मा गांधी का नाम शांतिदूत, शांति के महासागर के रूप में लिया जाता है। उनके विषय में अच्छा लिखा जाता है, बोला जाता है। अच्छा लिखना या अच्छा बोलने से किसी का कोई नुकसान नहीं होता परंतु क्या व्यक्तियों का आचरण वैसा होता है? उत्तर नकारात्मक आता है।

विश्व धर्म का अनुसरण यदि पूरे विश्व में कराना हो तो वह करवाने की क्षमता हिंदू राष्ट्र में उत्पन्न होनी चाहिए। गत 90 वर्षों से यह शक्ति उत्पन्न करने का काम संघ कर रहा है। हिंदू राष्ट्र के निर्माण का काम नहीं करना है; क्योंकि वह तो पहले ही से अस्तित्व में है। उसकी निर्मिति नहीं हो सकती। कल यदि कोई कहे कि मैं गंगा अवतरित करने का काम कर रहा हूं तो लोग उसे पागल कहेंगे। इस हिन्दू राष्ट्र को यदि प्रखरता से प्रकट होना होगा तो उसे शक्तिसंपन्न होना होगा। राष्ट्र की शक्ति उसके संगठित होने में है, एकात्मता में है, ऐक्यभाव में है। ये बाते संस्कृति से निर्माण होती हैं। संस्कृति भी कानून से नहीं आती। कानून बनाना शासन का काम है। भावात्मक एकता एवं संस्कृति के क्षेत्र में सत्ता का कोई काम नहीं है।

भारत याने हिंदू राष्ट्र का आध्यात्मिक विचार प्रत्यक्ष समाज जीवन में जिस गति के साथ फैलेगा उतने ही बड़े प्रमाण में सभी सामाजिक प्रश्नों, जातिभेद, अस्पृश्यता तथा उपासना पद्धति के भेदों को (जिन्हें हमारे सेक्यूलर पंडित धर्म भेद कहते हैं) समाज तिलांजलि देगा। भारत में रहने वाले, फिर चाहे उनकी उपासना पद्धति कोई भी हो, वह चर्च में जाने वाला ईसाई हो, मस्जिद में जाने वाला मुसलमान हो, अग्यारी मे जाने वाला पारसी हो, सभी हिन्दू हैं। हिंदू राष्ट्र के अंग हैं। सबका वंश एक है। सबकी भारत माता एक है। सबकी संस्कृति एक है। सन 1947 के बाद जो भारत निर्माण हुआ है उस खंडित भारत में सबके लिए संविधान एक है। सबके लिए शासन व्यवस्था एक है। सबको समान सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक अधिकार प्राप्त हैं।

वर्तमान कालखंड राजनीतिक एकता, राष्ट्रीय एकता से एकरूप करने का कालखंड है। इस मार्ग में अनेक अड़चनें हैं। भारत में मुसलमानों की संख्या बहुत बड़ी तादाद में है। अंग्रजों ने उनमें भेद निर्माण किए। नेहरू, कांग्रेस ने ये भेद और बढ़ाने का काम किया। मुसलमानों के मन में हिंदुओं के विषय में डर पैदा किया। मुसलमानों ने उसे सच समझ लिया। कश्मीर में उनके लिए संविधान के विरोध में जाकर विशेष अधिकार लागू किए गए। कश्मीरी मुसलमानों को शेष भारत से अलग किया गया। भारत के साथ उनकी एकात्मता नहीं होने दी गई। भारत में रहने वाला मुसलमान अरब संस्कृति की गुलामी में जीता है। अरब देशों मे झुलसाने वाली गर्मी होती है। इसलिए वहां पूरा शरीर ढंकने वाले कपड़े पहनने पड़ते हैं। पुरूषों के कपड़े भी वैसे ही होते हैं एवं स्त्रियों को भी बुरखा पहनना पड़ता है। भारत की स्थिति अलग है। यहां गर्म, आर्द्र, अतिआर्द्र एवं ठंडा मौसम होता है। वास्तव  में मौसम के हिसाब से लिबास होना चाहिए। लिबास का धर्म से क्या संबध? धर्म का संबंध मनुष्य एवं परमेश्वर से है। इस गुलामी से भारत के मुसलमानों को मुक्त होना होगा और इस मुक्ति की लड़ाई उन्हें स्वयं लड़नी होगी। अन्य कोई भी यह लड़ाई नहीं लड़ सकता।

उन्हें अपनी पहचान जागृत करनी होगी। उन्हें यह ध्यान में लेना होगा कि बलूचिस्तान से बांग्लादेश तक भारत एक है। भारत की संस्कृति एक है। यह एक राष्ट्र है, यह हिन्दू राष्ट्र है। इसका उपासना पद्धति से कोई भी संबंध नहीं है। यहां गीता को मानने वाले, बाइबिल एवं कुरान पर श्रद्धा रखने वाले परस्पर बंधुभाव से सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

हमारे प्राचीन साहित्य में समन्वय एवं सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने की अनेक कथाएं हैं। उनमें एक कथा इस प्रकार है- एक जंगल में एक हिरण पानी पीने हेतु तालाब पर जाता है। वहां एक कछुआ रहता है। दोनों की मित्रता हो जाती है। वहां कौवा भी अपना भोजन ढूंढने आता रहता है। इन तीनों की आपस में मित्रता हो जाती है। अपने सुख दुख वे आपस में बांटने लगे, अच्छी बातें एक दूसरे को देने लगे।

एक दिन शिकारी ने तालाब के किनारे अपना जाल फैलाया। पानी पीने आने वाला हिरण उसमें फंस गया। कछुए के ध्यान में यह बात आती है। वह हिरण से कहता है, “तुम घबराओं मत, शिकारी के आने के पहले ही मैं तुम्हें छुड़ा लूंगा। उसने जाल काटना शुरू किया, परंतु कछुए की गति धीमी होती है, फिर भी उसने न थकते हुए काम चालू रखा। सुबह शिकारी तालाब की ओर आने को निकलता है। कौवा उसे देख लेता है एवं उसके सिर पर विष्टा कर देता है। यह अपशकुन है ऐसा मानकर शिकारी घर चला जाता है। थोड़ी देर घर में रुक कर वह पुन: पिछले दरवाजे से बाहर निकलता है। कौवा वहीं होता है वह उसके सिर पर चोंच मार देता है। पुन: शिकारी घर के अंदर चला जाता है।

ऐसा दो तीन बार हुआ। अंत में शिकारी तालाब के पास आता है। तब तक कछुआ जाल को कुतर चुका होता है; परंतु थकने के कारण वह वहीं रुक जाता है। शिकारी को देख कर हिरण भाग जाता है। शिकारी कछुए को पकड़ लेता है। हिरण नहीं तो कछुआ ही सही ऐसा कह कर वह कछुए को थैली में डाल कर वापस जाने लगता है। हिरण यह देख लेता है। मित्र का प्राण बचाने हेतु वह मरे हिरण के रूप में रास्ते में पड़ा रहता है। शिकारी कछुए वाली थैली जमीन पर रख कर धीरे-धीरे हिरण के पास जाता है। इधर कौवा थैली का मुंह खोल देता है और कछुआ दौड़ कर तालाब में चला जाता है। शिकारी की आहट पाकर हिरण भी उठता है एवं तेज गति से भाग जाता है।

कछुआ, कौवा एवं हिरण अर्थात पहला जलचर, दूसरा नभचर एवं तीसरा भूचर। यदि इन तीनों में मित्रता हो सकती है एवं वे बंधुभाव से रह सकते हैं तो बुद्धि एवं भावना वाला मनुष्य एकत्रित क्यों नहीं रह सकता? यह कथालेखक द्वारा न पूछा गया प्रश्न है।

इस राष्ट्र के लिए राष्ट्रीय विचार करने वाले लोग सत्ता पर काबिज होने के कारण, सत्ता के माध्यम से जो कर सकते हैं वह करना उन्होंने प्रारंभ कर दिया है। तीन तलाक पर प्रतिबंध, कश्मीर का स्वतंत्र आस्तित्व समाप्त करना, यदि किसी ने हमें छेड़ा तो उसका उत्तर उसी की भाषा में देना प्रारंभ कर दिया है। सत्ता अपना राष्ट्रीय तेज प्रकट कर रही है यह आनंद का विषय है।

परंतु इतने से ही संतुष्ट होने का कोई कारण नहीं है। यह सनातन हिन्दू राष्ट्र है। इसका सर्वांगीण वैभव यदि प्रकट करना है तो इसका प्राण याने आध्यात्मिक विचार यह जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रकट होना चाहिए। सामाजिक जीवन में समरसता के माध्यम से, आर्थिक जीवन में आर्थिक न्याय के माध्यम से, उपासना पद्धति में समन्वय के माध्यम से, जातिवाद के संबंध में स्वीकार, समन्वय और सम्मान इन माध्यमों के द्वारा वह प्रकट होना चाहिए। केंद्र में राष्ट्रीय विचारों की सरकार होना यह एक महत्वपूर्ण कदम है परंतु वह अंतिम नहीं है। अभी हम कुछ कदम ही चले हैं परंतु हमें कई मील और चलना है। रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता के माध्यम से कहें तो..

The woods are lovely, dark and deep

But I have promises to keep

And miles to go before I sleep

And miles to go before I sleep

हमने प्रकृति से, नियति से समझौता किया है राष्ट्र तेज जागृत करने का। कांटों की राह पर चल कर यहां तक की यात्रा पूरी की है। परंतु हम रुक नहीं सकते, अंतिम ध्येय का विस्मरण नहीं हो सकता। इसलिए चिरनिद्रा जब कभी लेनी हो तब लेंगे, अभी अनेकों मील चलते ही रहना है। रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता का यही भावार्थ है।

 

 

Leave a Reply