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हाट और ई बाजार

हाट और ई बाजार

by नृपेंद्र सिंह
in नवम्बर २०१९, सामाजिक
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गांवों की हाट तो अब बीते जमाने की बात हो गई है। उनका स्थान ई बाजार ने ले लिया है। हम अपनी मूल पहचान को ही भूलते जा रहे हैं, क्या आपको ऐसा नहीं लगता?

शॉपिंग की बात चल रही थी, कुछ बहुत बड़ी नहीं बस घर के कुछ जरूरी सामान की, राशन वगैरह की। घर बैठे ही फ़ोन निकाला और ऑर्डर करने लगे, तभी भाई ने बोला भैया फलां एप पर ऑफर अच्छे हैं, वहां से मंगा लेते हैं। मन ही मन मैं इस आधुनिक मोलभाव को देख कर मुस्कुरा उठा। ऑर्डर तो कर दिया, लेकिन अपना बचपन स्मृतियों में उभर आया कि कैसे गांव के बुध बाज़ार में जाने की चहक होती थी। दादाजी दुकान दर दुकान जाकर मोलभाव करते थे। कैसे हफ्ते भर की वह एक शाम गांव भर में चहल पहल से भरी रहती थी। उसे गांव का मेला कहे या हाट वह तो खुद की समझ होती थी। गांव भर के लोग हफ्ते भर का जरूरी राशन या सामान खरीद लेते थे।

जब भी बचपन की स्मृतियों पर जोर डालो तो कई बातें मन को उत्साहित करती हैं। इन बाजारों का जो आकर्षण था वह अद्वितीय था। अब तो लोग बस एक क्लिक का इंतजार करते हैं। मजेदार के साथ-साथ चिंताजनक बात यह है कि जो हमारा मूल है वह भूल के हम आलस्य को अपनाते जा रहे हैं। यह एक ऐसा विषय है जिस पर ध्यान नहीं दिया जाता और यह दीमक की तरह धीरे-धीरे समाज को खाते जा रहा है। यही कारण है कि गांव की तरफ से जो पलायन हो रहे हैं, नगरीकरण का जो विस्तार हो रहा है वह चिंताजनक है और जहां कभी दूध की नदियां बहती थीं और इन नदियों के स्रोत गाय भैंस के लिए जो पशु बाजार लगती थी वह भी अपना अस्तित्व खो चुका है। विश्व का सबसे बड़ा पशु मेला सोनपुर का मेला और गांवों में लगने वाला मेला आज अपना अस्तित्व खोने लगा है।

आजकल के समय में माना कि लोगों के पास बड़े-बड़े शहरों में समय नहीं है या गांव में भी लोग आजकल ई कॉमर्स के तरफ आकर्षित हो रहे हैं। कारण पूछने पर ज़वाब यही मिलता है कि समय की बचत हो जाती है।त्योहारों में जिन बाजारों की रौनक बढ़ जाती थी जहां की चहल-पहल लोगों को प्रसन्न करती थी, बच्चों को आकृष्ट करती थी आज पूरा स्वरूप ही बदल गया है।

याद आता है वह दिवाली की खरीददारी का समय जब एक बड़ी सी लिस्ट बनाई जाती थी और उसको लेकर घर का मुखिया बाज़ार जाता था और सभी वस्तुओं को बाज़ार से खरीद के लाता था। आज भी याद है, दिया वाले दद्दा (कुम्हार) दिए, मटके सब घर पहुंचा जाते थे। आजकल हर वस्तु को खरीदने के लिए तो बस एक क्लिक की आवश्यकता होती है।

अब्दुल मालिक खान ने अपनी बाल कविता में जिस प्रकार गांव की हाट का उल्लेख किया है वह अद्भुत है। गांव की हाट लोगों के लिए मनोरंजन का स्थान भी थी। परन्तु जबसे ई कॉमर्स की कम्पनियों ने देश की एक बहुत-बहुत बड़ी आबादी को घेर के रखा है। उससे तो यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि लोग आजकल बाहर निकल कर कुछ खरीद के लाने की बजाय घर में ही उपलब्ध करवाना आसान समझते हैं। ई कॉमर्स की कम्पनियों ने बस खरीददारों को ही नहीं अपितु दुकानदारों का भी व्यापार आसान कर दिया है। जो अभी तक एक बाज़ार या जिले तक सीमित थे उनको आज ई कॉमर्स की कम्पनियों के कारण राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय खरीददार भी मिलने लगे हैं, उनका मुनाफा बढ़ गया है। धीरे-धीरे हम सभी लोग इन कम्पनियों के आदि हो गए।

ई-कॉमर्स की कंपनियों ने भी बाजार को पूरी तरह से ढंक लिया है। अभी तो ग्राहक को कहीं जाने की जरूरत भी नहीं पड़ती। बस मोबाइल ऐप के माध्यम से सामान ऑर्डर करना होता है। सामान आपके दरवाजे पर आ जाएगा। इन सभी तकनीकों ने हमें आलसी भी बना दिया है। अपनी स्मृति पर जोर डालो तो बचपन में दशहरे का मेला प्रारंभ होता था और वह दिवाली तक अलग-अलग स्थानों पर लगता था। इन मेलों के लिए बच्चों का उत्साह देखते बनता था। बड़ों के लिए यह खरीदारी स्थान था। अब इन सभी का महत्व धीरे-धीरे समाप्त हो गया है।

किस तरह से इन कम्पनियों ने हमारे जीवन को प्रभावित किया है या हमें अपने मूल से दूर ले गई हैं इसका सबसे बड़ा उदहारण है कि आजकल के बच्चों से अगर पूछा जाए कि शॉपिंग के लिए कहां चला जाए तो वे या तो फ़ोन खोल के बैठ जाएंगे या मॉल जाने की बात करेंगे। उनको तो इस बात का अंदाज़ा भी नहीं है कि हाट भी कुछ होती थी।

मुझे जहां तक याद है गांव में बाज़ार के समय लगाने वाली जलेबी, चाट के ठेले, खिलौनों की दुकानें जिन्हें देखकर अक्सर हमारा जी मचल जाता था और हम उन्हें लेने की जिद कर बैठते थे, दो चार थप्पड़ भी खा लेते थे इस जिद के कारण से लेकिन वो खिलौना लेकर मानते थे। फिर सब्जी की दुकान से मुफ्त की धनिया और मिर्ची मिलना इन सब यादों के सहारे ही हम बस जी सकते हैं। दुकानों पर जो मोलभाव के समय थोड़ी बहस होती थी वो आजकल के समय में ऑफर के रूप में परिवर्तित हो गयी है।

आंकड़ों को अगर देखने बैठ जाए तो बहुत कुछ फायदे देखने को मिल सकते हैं इन ई कॉमर्स कम्पनियों के परन्तु जो भावनाएं और जो लगाव होता था गांव के उन बाजारों में या मेलों में वह इन ऑनलाइन स्टोर्स पर नहीं मिल सकता। जैसे टीवी पर पिक्चर देखते वक़्त आने वाले प्रचार की उत्सुकता को इन ऑनलाइन माध्यमों ने पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया है। क्योंकि हमारे देश में भावनाओं का जो स्थान हुआ करता था वो आजकल खोने लगा है। हम अपने जीवन में इतने व्यस्त होने लगे हैं, इतने मशगूल हो गए हैं कि हम भूल गए हैं कि हमने क्या-क्या देखा था अपने बचपन में, कैसे हम बड़े हुए, हमारी परवरिश में किन कारकों ने अपनी भागीदारी दी। हम उन सभी से दूर हो गए हैं। हमें बस आज आसानी चाहिए कि कैसे हमारा कोई भी काम कम समय में पूरा हो जाए, कैसे हम जल्दी सफल हो जाए।

मेरा यह कहना नहीं है कि बस हमारे बाज़ार का स्वरूप ही बदला है या हम ऑनलाइन की तरफ बढ़ने लगे हैं। मेरा कथन यह है कि हम भारतीय धीरे-धीरे अपनी उन मूल पहचानों को भूलते जा रहे है, जो कभी हमारी शान हुआ करती थीं।

बादशाह अकबर ने मीना बाज़ार का निर्माण करवा दिया ताकि उनके हरम और राज्य की महिलाएं खरीददारी कर सकें। कितनी पुरानी बाजारों का उल्लेख इतिहास में आता है, आज जिनका अस्तित्व ही समाप्त होने की कगार पर है या समाप्त हो गया है।

ऐसा नहीं है कि इन ई कॉमर्स कम्पनियों ने बस हाट का स्थान ले लिया, बल्कि इन ई कॉमर्स कम्पनियों ने धीरे-धीरे गांव की गुणवत्तापूर्ण वस्तुओं का स्थान भी हटा दिया। अब इन ई कॉमर्स कम्पनियों में जो वस्तुएं मिलती हैं वे रासायनिक और कृत्रिम रूप से बनी हुई होती हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सभी को मुनाफा कमाना होता है और सभी को आजकल ग्राहक बहुत ज्यादा मिलते हैं और उन ग्राहकों की मांग को पूरा करने बाज़ार की होड़ में सफलता पाने के लिए सब आजकल गुणवत्ता के साथ समझौता कर रहे हैं। इन सब के साथ-साथ ही इन ई कॉमर्स ने आजकल युवाओं को आश्रित बना दिया है अगर आज किसी को एक छोटी से छोटी चीज चाहिए तो वो सीधे ऑनलाइन स्टोर पर जाता है।

इन ई कॉमर्स कम्पनियों ने वस्तुओं के साथ-साथ खाने में भी हमारे हाथों को पकड़ लिया है और ना जाने कितनेऑफर के साथ उन्होंने हमें हमारे रसोईघर से भी दूर कर दिया है। हमें जिस प्रकार का भोजन जब भी चाहिए वह तभी हमारे पास उपलब्ध होता है बस जरूरत होती है तो एक क्लिक की।

इन कम्पनियों ने हमारे जीवन को पूर्ण रूप से घेर लिया है, जीवन की हर छोटी बड़ी जरूरत के लिए ये हर समय उपलब्ध रहती हैं और जब इन्होंने अपने पैर ज़माने शुरू किए थे तब इनका मूल उद्देश्य था लोगों के जीवन में शामिल होना जिसमें ये सफल रहीं। इन कम्पनियों ने ग्राहकों को आराम के साथ साथ दुकानदारों/ विक्रताओं को अपना व्यापार बढाने का अवसर दिया, सभी ने इनके प्रयोग से खुद को लाभान्वित किया और आजकल तो त्यौहारों के समय इनके मनमोहक ऑफर के कारण इनके ग्राहकों में बढ़ोत्तरी हो जाती है।

गांव के वे बाज़ार अब ज्यादातर बस कहानियों में ही रह गए हैं, जहां कहीं बचे भी हैं तो अपने वजूद को बचाने का असफल प्रयास कर रहे हैं। उन बाजारों में भी अब लगाने वाली दुकानों की संख्या कम हो गई है। इन सब को देख कर बस यही प्रतीत होता है कि आने वाली पीढ़ी के लिए ये सब एक इतिहास मात्र रह जाएगा और वह भी किसी को याद नहीं रहेगा।

तात्पर्य यह कि हमें आधुनिकता से परहेज न हो, लेकिन अपने मूल भावों, संस्कृति और पहचान को नहीं भूलना चाहिए।

 

 

नृपेंद्र सिंह

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