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यह स्थिति स्वीकार्य नहीं

यह स्थिति स्वीकार्य नहीं

by अवधेश कुमार
in जनवरी २०२० - आप क्या चाहते हैं?, सामाजिक
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दुष्कर्म के मामलों में पुलिस की सही, निर्भीक भूमिका और न्यायालय का तथ्यों और सबूतों के आधार पर त्वरित प्रक्रिया पूरी करने के चरित्र की स्थिति पैदा करने की जरुरत है। इसमें कमी है। लेकिन इन सबसे अलग विश्व की श्रेष्ठतम सभ्यता और संस्कृति के वाहक होने का दावा करने वाले समाज के रुप में हम कैसा वातावरण बना रहे हैं?

निस्संसदेह, लड़कियों और महिलाओं के साथ हो रहे बर्बर दुष्कर्मों से पूरा देश उद्वेलित एवं विचलित है। हैदराबाद में एक पशु चिकित्सिका के साथ दुष्कर्म के बाद हत्या और शव जला देने की घटना ने पूरे देश में जिस तरह का आक्रोश पैदा किया वह स्वाभाविक था। किंतु विडम्बना देखिए, गुस्से की मशाल जल ही रही थी कि उन्नाव में एक लड़की को जिंदा जल दिया गया जिसकी अंततः अस्पातल में मृत्यु हो गई। जिनने उसको जलाया उन पर लड़की ने बलात्कार का आरोप लगाया था। इसी बीच राजस्थान के टोंक जिले में एक छः वर्ष की बच्ची से बलात्कार करके हत्या कर दी गई। इसी तरह की वीभत्स घटना बिहार के मुजफ्फरपुर में घटी जहां एक लड़की को जिंदा जला दिया गया। जलाने वाले वही लड़के थे जो स्कूल जाते-आते उससे छेड़खानी करते थे और उस कारण उसने स्कूल जाना तक छोड़ दिया था। इसके पहले बिहार के बक्सर में हैदराबाद की तरह की घटना हुई। हैदराबाद घटना के दूसरे दिन तमिलनाडु में एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, झारंखड में हुआ….। न जाने यह दुष्कर्म कहां जाकर रुकेगा? किसी भी देश के लिए इस तरह की घटनाएं शर्मनाक हैं। यह कानून और व्यवस्था पर तो प्रश्न है ही हमारी समाज और संस्कृति पर भी तमाचे की तरह है। आखिर कानून के राज में कोई अपराधी या अपराधियों का समूह ऐसा दुस्साहस कैसे कर सकता है? जिस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक विधा में नारी को पूजनीय माना गया हो, जहां अपनी पत्नी को छोड़कर सभी लड़कियों-महिलाओं को माता-बहन के समान देखने का संस्कार दिया गया हो वहां इस तरह की घटनाएं हमारे अधोपतन का ही तो प्रमाण है। किंतु इसके खिलाफ पहले से जो कानून थे, उसके बाद उन कानूनों को कई बार संशोधित करके कठोर बनाया गया, उनका भय ऐसे अपराधियों के अंदर अगर पैदा नहीं हो रहा है तो इसका गहराई से विश्लेषण किया जाना चाहिए। पिछले दिनों राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा कि दुष्कर्म के मामलों में दया याचिका का प्रावधान खत्म कर देना चाहिए। यह माग लंबे से उठती रही है कि अगर एक बार उच्चतम न्यायालय ने फैसला दे दिया, पुनर्विचार याचिका तक खारिज हो गई फिर उसके बाद दया याचिका का कोई मायने नहीं है। दया याचिका के प्रावधान के कारण दुष्कर्मियों को सजा मिलने में विलंब होता है। हालांकि राष्ट्रपति ने न्याय प्रक्रिया को भी सरल और सहज बनाने की अपील की है। राष्ट्रपति ने साफ कहा है कि आज की महंगी न्यायिक प्रक्रिया में एक आम परिवार के लिए न्याय पाना कठिन है।

बात सही है। अनके दुष्पीड़िताओं के परिवार कानून के पूरी तरह उनके पक्ष में होने के बावजूद महंगे न्याय और पुलिस के चक्कर से बचने के लिए मामला दर्ज कराने से बचते हैं। जिनने कराया वो भी एक सीमा के बाद कमजोर पड़ने लगते हैं। जिस तरह हैदराबाद में चारों दुष्कर्मियों को मुठभेड़ में मार गिराया गया उसने एक नई बहस छेड़ दी है। पूरे देश के बहुमत ने उसका स्वागत किया। लोगों में पुलिस के प्रति जितना गुस्सा था वह समर्थन में बदल गया। वही जनता जो एक दिन पहले पुलिस के खिलाफ नारे लगा रही थी वह इस तरह जय-जयकार करने लगी जैसा शायद ही कभी देखा गया हो। मुठभेड़ हुई तो कानूनी तौर पर उसकी जांच हो रही है। पुलिस का कहना है कि घटनास्थल पर ले जाने के बाद अपराधी उनका हथियार छीनकर भागने लगे और उनके पास गोली मारने के अलावा कोई चारा नहीं था। कुछ लोग आरोप लगा रहे हैं कि पुलिस ने उन आरोपियों को मारकर मुठभेड़ का रुप दे दिया है। हम जांच रिपोर्ट की प्रतीक्षा करेंगे। लेकिन इसमें मूल बात है जनता की प्रतिक्रिया। जनता का बड़ा वर्ग कह रहा है कि पुलिस ने अगर जानबूझकर कर योजनापूर्वक मारा तो भी ठीक किया। ऐसे दुष्कर्मियों के साथ ऐसा ही होना चाहिए ताकि दूसरे के अंदर भय पैदा हो। यह एक माहौल उस घटना के बाद बना है। उस माहौल का असर है कि उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने कह दिया कि हमारी प्रदेश की पुलिस को हैदराबाद से सीख लेनी चाहिए। हालांकि हर विवेकशील व्यक्ति यह कहेगा कि न्याय हमेशा निर्धारत प्रक्रिया में ही होना चाहिए।

इसी बीच मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे ने जोधपुर के एक कार्यक्रम में कहा है कि हाल की घटनाओं ने नए जोश के साथ पुरानी बहस छेड़ दी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आपराधिक न्याय प्रणाली को अपनी स्थिति पर पुनर्विचार करना चाहिए और आपराधिक मामलों को निपटाने में ढिलाई के रवैये में बदलाव लाना चाहिए। लेकिन, मुझे नहीं लगता कि न्याय तुरंत हो सकता है या होना चाहिए और न्याय कभी भी बदला नहीं हो सकता है। मेरा मानना है कि अगर बदले को न्याय समझा जाता है तो न्याय अपना चरित्र खो देता है। उनकी बात को हैदराबाद मुठभेड़ कांड से जोड़कर देना जाना स्वाभाविक है। हमारी शीर्ष न्यायपालिका के प्रमुख होने के कारण उनकी यह जिम्मेदारी है कि लोगों का विश्वास न्याय प्रक्रिया मेंं बनाए रखने का हर संभव प्रयत्न करें। इस तरह उन्होंने देश को सचेत किया है कि न्याय और गुस्से में बदले की भावना से की गई कार्रवाई में मौलिक अंतर है। हालांकि उन्होंने न्याय प्रणाली पर भी पुनर्विचार की बात कही है। उनको भी पता है कि समय पर न्याय न होने या संसाधनों के अभाव में सामान्य व्यक्ति के न्याय से वंचित होने की स्थिति भारत में भयावह है। इससे निकलना कठिन हो रहा है।

वास्तव में न्यायिक प्रक्रिया को कठघरे से बाहर नहीं कर सकते। अप्रैल 2018 में संशोधित कानून के अनुसार 12 साल से कम की लड़की के साथ बलात्कार में फांसी की सजा का प्रावधान किया। इसी वर्ष यही सजा बच्चों के साथ दुष्कर्म के मामले में भी निर्धारित कर दी गई। पश्चिम बंगाल के धनंजय चटर्जी के बाद पिछले डेढ़ दशक से कोई दुष्कर्मी फांसी पर चढ़ाया नहीं गया है। अगर सजा फांसी की हो गई तो उसे क्रियान्वित किया जाना चाहिए। न्यायिक स्थिति को समझने के लिए एक उदाहरण देखिए। निर्भया मामले के समय दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश से एक एनजीओ पार्टनर्स फॉर लॉ इन डेवलपमेंट ने केन्द्रीय विधि मंत्रालय एवं यूएनडीपी के साथ मिलकर एक अध्ययन किया। इस एनजीओ को उच्च न्यायालय ने 16 बलात्कार के मामलों को मॉनिटर करने के लिए कहा। फास्ट ट्रैक न्यायालयों में 60 दिनों के अंदर सुनवाई पूरी करने का प्रावधान सीआरपीसी में है। इसने अध्ययन में पाया कि कोई भी मुकदमा 60 दिनों में पूरा नहीं हुआ। बहुचर्चित निर्भया मामला ही नौ महीनों में पूरा हुआ। जब निर्भया जैसे देश को सबसे ज्यादा उद्वेलित करने वाले मामले में ट्रायल कोर्ट में नौ महीने लग गए तो अन्य मामलों की क्या दशा होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। ट्रायल  कोर्ट में फोरेंसिक लैब से लेकर अनेक मामलों के लंबित होने जैसे कई कारण सामने आए। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली की मृत्युदंड संबंधी 2015 में किए गए अध्ययन में सामने आया कि पिछले 15 वर्षों में निचले न्यायालय द्वारा मृत्यु दंड में से केवल पांच प्रतिशत ही उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में टिक सके। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी ने एक अध्ययन में पाया कि 2018 में 162 को मृत्युदंड दिया गया जिसमें से केवल 23 ही उच्च न्यायालय में टिक पाए। उच्चतम न्यायालय ने 2018 में मृत्युदंड के 12 मामले सुने जिनमें से केवल एक को स्वीकार किया। यह भी एक समस्या है। जो लोग बलात्कारियों को फांसी पर चढ़ाने की मांग करते हैं उनको ये तथ्य ध्यान रखने होंगे। हमारे यहां फांसी के लिए न्यायपालिका ने विरलों में विरलतम का आधार बनाया हुआ है। उसे जो मामला इस श्रेणी का लगेगा उसी में फांसी की सजा दे सकता है। एक न्यायालय की नजर में यदि मामला विरलों में विरलतम का है तो दूसरे में नहीं भी हो सकता है। निर्भया बर्बर दुष्कर्म कांड के बाद गठिन न्यायमूर्ति वर्मा समिति ने यह कहते हुए मृत्युदंड की अनुशंसा नहीं की थी कि इसका अपराध रोकने या कम होने से कोई संबंध नहीं है।

तो यह एक पक्ष है जिसका हमें दुष्कर्म और लड़कियोंं-महिलाओं के साथ यौन बर्बरता के कानूनी और न्यायिक पहलुओं पर विचार करते समय ध्यान रखना होगा। अब आइए न्याय में विलंब के पहलू पर। राजधानी दिल्ली के पिछले 11 वर्षों के तीन बहुचर्चित मामले को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। 16 दिसंबर 2012 के निर्भया मामले ने पूरे देश को झकझोर दिया था। इसके बाद ही कानून में बदलाव हुए और फास्ट ट्रैक न्यायालय का गठन हुआ। इसमें छः लोग पकड़े गए जिनमें से एक नाबालिक था जो सजा काटकर बाहर आ चुका है। एक राम सिंह ने जेल में आत्महत्या कर लिया। लेकिन शेष चार को फांसी पर लटकाए जाने का देश ने लंबे समय इंतजार किया। 2018 में उच्चतम न्यायालय उनकी पुनर्विचार यायिका खारिज कर चुका है। इन सब पर हत्या, बलात्कार, अप्राकृतिक अपराध, जान से मारने की कोशिश, अपहरण, डकैती आदि की धाराएं लगी थीं। इसी तरह टीवी पत्रकार सौम्या विश्वनाथन को 30 सितंबर 2008 को कार्यालय से घर लौटते समय गोली मार दी गई थी। इसमें तीन लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ था। ये तीनों आईटी कर्मचारी जिगिशा घोष की हत्या के भी दोषी पाए गए। अभी तक साकेत के जिला न्यायालय में इनकी सुनवाई चल रही है। एक आरोपी रवि कपूर जुलाई में पेरोल पर बाहर भी आ गया। नोएडा में नौकरी करनेवाली जिगिशा घोष की 18 मार्च 2009 को वसंत विहार में हत्या हो गई थी था। शव तीन दिन बाद सूरजकुंड से मिला था। आरोपी सोने के आभूषण, दो फोन और डेबट-क्रेडिट कार्ड ले गए थे। ट्रायल न्यायालय द्वारा तीन दोषियों में से दो (रवि कपूर, अमित शुक्ला) को मौत की सजा और बलजीत मलिक को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने रवि और अमित की सजा को भी उम्रकैद में बदल दिया था। अब मामला उच्च न्यायालय में चल रहा है। जब इतने बहुचर्चित मामले का यह हाल है तो फिर अन्यों का क्या होता होगा इसकी केवल कल्पना की जा सकती है।

2017 के सामूहिक बलात्कार के 90.1 प्रतिशत मामले लंबित ही हैं। लंबित मुकदमों की संख्या घटने की बजाय बढ़ती जा रही है। देश की जिला व तालुका न्यायालयों में कुल 3 करोड़ 17 लाख 35 हजार 214 मामले लंबित हैं। इनमें से 2 करोड़ 27 लाख 95 हजार 420 मामले आपराधिक हैं। नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के आंकड़ों के अनुसार 41,682 आपराधिक तथा 30,156 दीवानी मामले तीन दशक से लंबित हैं। जब इतने मुकदमों का दबाव न्यायालयों पर हों तो फिर कहां से तीव्र सुनवाई और त्वरित फैसला हो सकेगा। दुष्कर्म और बच्चों से दुष्कर्म जैसे गंभीर अपराधों के मामलों में फास्ट ट्रैक न्यायालय के गठन की बात थी। सरकार के अनुसार देश भर में 704 फास्ट ट्रैक न्यायालय काम कर रहे हैं। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के अनुसार और 1023 फास्ट ट्रैक न्यायालय गठित करने का प्रस्ताव है। इनमें से 400 पर सहमति बन गई है और 160 शुरू हुए हैं। इतने फास्ट ट्रैक मामले के होते हुए भी 1,66,882 दुष्कर्म व पॉस्को कानून के मामले इनमें लंबित हैं। उत्तर प्रदेश की बहुत आलोचना होती है लेकिन सबसे ज्यादा 218 फास्ट ट्रैक न्यायालय वही गठित की गई। फिर से राज्य सरकार ने भारी संख्या में फास्ट ट्रैक न्यायालय गठित करने की घोषणा की है।

मुख्य न्यायाधीश की बात ठीक है लेकिन गुस्से में लोग आरोपियों से बदला लेने की ही मांग करते हैं। यह तभी नहीं होगा जब न्याय प्रक्रिया तीव्र एवं पूरी तरह विश्वसनीय हों। यहां तक समस्या नहीं है। लेकिन यहां एक महत्वपूर्ण पहलू और ध्यान रखने की है। 2014 से 2017 तक के आंकड़े बताते हैं कि जितने मुकदमे दायर हुए उनमें से अधिकतम 30 प्रतिशत में दोषी सिद्ध हो पाए। 2017 में देशभर में बलात्कार के कुल 1 लाख 46 हजार 201 मामलों में मुकदमा चला। इसमें से सिर्फ 31.8 प्रतिशत में दोषसिद्धि हुई। सामूहिक बलात्कार से जुड़े मामलों में भी स्थिति ऐसी ही थी। ऐसा क्यों हुआ? न्यायालय के फैसले बताते हैं कि ज्यादातर मुकदमे झूठे थे, या उनमें कोई सबूत नहीं था। अनेक मामले सहमति से संबंध के थे, जिन्हें संबंध बिगड़ने पर बलात्कार का मुकदमा बना दिया गया। हम मुकदमा होते ही सबको अपराधी मानने लगें और जैसा मुख्य न्यायाधीश ने कहा बदले की भावना से त्वरित न्याय का दबाव बढ़ाएंगे तो फिर  निर्दोष भी इसकी भेंट चढ़ जाएंगे।

कड़े कानून बनने के बाद से कई ऐसे बड़े मामले सामने आए जिसमें स्थानीय लोग कहते रहे कि आरोप झूठा है लेकिन आरोपी के लिए अपने को निर्दोष साबित करना कठिन हो गया। कुल मिलाकर दुष्कर्म के मामलों में पुलिस की सही, निर्भीक भूमिका और न्यायालय का तथ्यों और सबूतों के आधार पर त्वरित प्रक्रिया पूरी करने के चरित्र की स्थिति पैदा करने की जरुरत है। इसमें कमी है। लेकिन इन सबसे अलग विश्व की श्रेष्ठतम सभ्यता और संस्कृति के वाहक होने का दावा करने वाले समाज के रुप में हम कैसा वातावरण बना रहे हैं? भारतीय समाज व्यवस्था में चरित्र बल परिवार और समाज के वातावरण से पैदा और सुदृढ़ होता था। परिवारों के बिखरने, शहरों की ओर पलायन, एकल परिवार आदि ने सदियों से स्थापित समाज व्यवस्था के स्वतः संचालित तंतुओं को बिखरा दिया है। यह स्थिति बिगड़ती ही जा रही है। पूरी शिक्षा प्रणाली में चरित्र निर्माण, नैतिक और सदाचारी जीवन के ज्ञान का कोई स्थान ही नहीं है। उसके बाद टीवी के माध्यम से घर-घर में प्रवेश कर चुका मीडिया जो कुछ परोस रहा है उसमें मर्यादाओं और सीमाओं के लिए अत्यंत कम स्थान है। इन सबके बीच समाज को कैसे स्त्रियो के प्रति सम्मानजनक व्यवहार के लिए मानसिक रुप से तैयार किया जाए यह सबसे बड़े प्रश्न के रुप में हमारे सामने खड़ा है।

 

अवधेश कुमार

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