एक ‘हादसा’… और पूरी जिंदगी का दर्द

बलात्कार किसी एक व्यक्ति विशेष की समस्या नहीं है, बल्कि यह एक मानसिक तथा सामाजिक प्रवृत्ति है। इसके लिए अभिव्यक्ति या रचनात्मकता की नैसर्गिक स्वतंत्रता की आड़ में परोसे जा रहे स्त्री-विरोधी, यौन-हिंसा को उकसाने वाले और महिलाओं का वस्तुकरण करनेवाले कंटेट (ऑनलाइन/ऑफलाइन/साहित्यिक/वाचिक आदि) पर सबसे पहले लगाम लगाने की जरूरत है।

16 दिसंबर, 2012… दिल्ली में हुआ निर्भया हादसा। शायद ही कोई ऐसा संवेदनशील इंसान होगा, जिसका खून इस घटना को जानने के बाद दिसंबर की कंपकंपाती ठंड में भी न खौला हो।

ऐसा नहीं है कि उस घटना से पहले या उसके बाद लड़कियों या महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाएं नहीं हुईं, लेकिन बवाल मचता है किसी एक या दो ही घटना को लेकर। मुंबई शक्ति मिल कांड, उन्नाव कांड, कठुआ कांड और अब हैदराबाद में डॉ प्रियंका रेड्डी के साथ हुई बबर्रता… जिसके लिए लोग एक बार फिर से सड़कों पर न्याय मांगने उतर आये हैं। पीड़िता के समर्थन में कैंडल मार्च, जुलूस और नारेबाजियों का दौर एक बार फिर से जारी है।

हालांकि लिस्ट (वैसे रेप केसेज, जिनकी एफआइआर दर्ज हुई है) में सैंकड़ों ऐसे मामले और भी हैं। उनके अलावा हजारों-लाखों मामले ऐसे भी हैं, जो लिस्ट से बाहर हैं। जो कभी, कहीं दर्ज नहीं किये जाते हैं, लेकिन होते हैं। राह चलते, बस/ट्रेन/ऑटो में सफर करते हुए, घर की चारदीवारी के भीतर… कभी जबर्दस्ती करके… कभी बातों से तो कभी नजरों की स्कैनिंग के जरिये… ऐसी हरेक परिस्थिति से किसी लड़की को उतनी ही जिल्लत, पीड़ा और खीझ महसूस होती है, जितनी तब जबकि कोई उसके साथ उसकी मर्जी के विरूद्ध शारीरिक मनमानी करता है।

पर अफसोस कि ज्यादातर मामलों में या तो लड़कियां बचपन से घर-परिवार या समाज द्वारा तथाकथित ‘इज्जत’ का लबादा ओढाये जाने की वजह से बोल नहीं पातीं या फिर कभी अगर बोल भी दें, तो भी मां-बाप तथा अभिभावक भी उसी ‘इज्जत’ के दबाव में उसे घर की चारदीवारी से बाहर नहीं आने देते।

एक ‘हादसा’… और पूरी जिंदगी का दर्द

अगर किसी लड़की की रज़ामंदी के बगैर कोई उसे छुए, तब उसे कितनी खीझ होती है, इसका अंदाज़ा लड़कियां तो लगा सकती हैं, मगर पुरुष शायद नहीं लगा सकें। और फिर अगर कोई किसी लड़की के बार-बार मना करने के बावज़ूद, उसकी ‘ना’ को बिना कोई तवज्जो दिये, बस अपनी इच्छा और मतलब के मुताबिक उसके शरीर का इस्तेमाल करे, तब उसकी खीझ और पीड़ा किस कदर बढ़ जाती होगी, जरा कल्पना करके देखिए।

बलात्कार सिर्फ बलात्कार पर खत्म नहीं हो जाता। एक बलात्कार किसी की पूरी जिंदगी को स्याह बना सकता है। कुछ लड़कियां भूल कर आगे बढ़ जाती हैं और कुछ अपने वज़ूद का सबसे कीमती हिस्सा हमेशा-हमेशा के लिए उस लम्हे से मिले दर्द के नाम सौंप आती हैं। साल-दर-साल कैलेंडर और तारीखें बदलती जाती हैं, बस नहीं बदलता, तो उसके सीने की गहराई में कही छिपा वो दर्द, जो हर साल उस खास दिन, उस खास लम्हें में उसके जख्मों को फिर से हरा कर देता है। पर आखिर, वह करे भी तो क्या करे, क्योंकि कैलेंडर को तो वह बदल नहीं सकती और न ही बीते वक्त को। किसी खास दिन, कुछ पलों का वह दर्द उसके लिए जिंदगी भर का नासूर बन कर रह जाता है।

पूरी दुनिया में होता है महिलाओं का यौन उत्पीड़न

यौन हिंसा किसी एक देश की महिलाओं की समस्या नहीं है। पूरी दुनिया की महिलाएं इस समस्या से जूझ रही हैं। अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और ब्रिटेन जैसे सबसे विकसित देशों में रेप की सबसे ज्यादा घटनाएं हुई हैं। दुनिया भर में करीब 36 फीसदी महिलाएं शारीरिक या यौन हिंसा की शिकार बनी हैं। अमेरिका में 12 से 16 साल की 83 फीसदी लड़कियों का किसी ना किसी रूप में यौन उत्पीड़न किया गया है। इंग्लैंड में हर 5 में एक महिला किसी न किसी रूप में यौन हिंसा का शिकार हुई हैं। दक्षिण अफ्रीका रेप की घटनाओं के मामले में दुनिया में सबसे ऊपर है। यहां हर दिन औसतन 1400 रेप की घटनाएं होती हैं। इनमें करीब 20 फीसदी घटनाओं में पुरुष भी शिकार बनते हैं।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो-2014 की रिपोर्ट के अनुसार देश में हर एक घंटे में रेप के चार वारदात होते हैं, यानी हर 14 मिनट में 1 रेप हुआ है।

भारत में हर 6 घंटे में एक महिला बन जाती है रेप का शिकार

भारत के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2010 के बाद से महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 7.5 फीसदी वृद्धि हुई है। साल 2012 के दौरान देश में 24,923 मामले दर्ज हुए, जो 2013 में बढ़कर 33,707 हो गये। रेप पीड़ितों में ज्यादातर की उम्र 18 से 30 साल के बीच थी। हर तीसरे पीड़ित की उम्र 18 साल से कम है। वहीं, 10 में एक पीड़ित की उम्र 14 साल से भी कम है। भारत में हर छह घंटे में एक लड़की का रेप हो जाता है। महिलाओं के साथ रेप के मामले में 4,882 की संख्या के साथ 2017 में मध्य प्रदेश सबसे आगे था। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2017 में देश में 28,947 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनायें दर्ज की गईं। इस मामले में उत्तर प्रदेश 4,816 और महाराष्ट्र 4,189 रेप की घटनाओं के साथ देश में दूसरे व तीसरे स्थान पर था। नाबालिग बच्चियों के साथ रेप के मामले में भी मध्य प्रदेश देश में सबसे ऊपर है। राज्य में ऐसे 2,479 मामले दर्ज किए गए, जबकि महाराष्ट्र 2,310 और उत्तर प्रदेश 2,115 ऐसी घटनाओं के साथ दूसरे व तीसरे स्थान पर रहे। पूरे देश में 16,863 नाबालिग बच्चियों के साथ रेप के मामले दर्ज किए गए थे।

आखिर क्या होती है रेप की मानसिकता

आज हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहां इंटरनेट क्रांति और स्मार्टफोन की सर्वसुलभता ने पोर्न या वीभत्स यौन-चित्रण को सबके पास आसानी से पहुंचा दिया है। कल तक इसका उपभोक्ता समाज के उच्च-मध्य वर्ग या मध्य-वर्ग तक ही सीमित था, किंतु आज यह समाज के हर वर्ग के लिए सुलभ है और लगभग फ्री है। अब तो की-वर्ड लिखने की भी जरूरत नहीं, आप मुंह से बोल कर गूगल को आदेश दे सकते हैं। फिर सब कुछ आपके सामने आसानी से उपलब्ध है, ‘सबकुछ’। यही कारण है कि समाज के रूप में हमारी यौन-प्रवृत्तियां बद से बदतर होती जा रही हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम यू-ट्यूब पर अंग्रेजी में ‘रेप सीन’ लिखकर सर्च करें तो 21 लाख परिणाम आते हैं। ऐसी चीजें हमारी काल्पनिक यौन-इच्छाओं की संतुष्टि का साधन बनते हैं।

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें, तो जिन चीजों को हम बार-बार देखते हैं या जिन बातों के बारे में हम बार-बार देखते, सुनते और सोचते हैं, वे हमारे मन, वचन और कर्म पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। फलत: हमारे कर्म और निर्णय भी उससे प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि बलात्कार की प्रवृति किसी खास आय वर्ग, आयु वर्ग, पेशा, क्षेत्र या शिक्षित-अशिक्षित होने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें इन सभी की संलिप्तता पायी गयी है। अत: इसे एक सभ्यतामूलक समस्या की संज्ञा दी जा सकती है, जिसके समाधान के लिए हम सबको मिल कर कोशिश करना होगी।

समाज का कोढ़, समाज ही निदान

रेप या बलात्कार किसी एक व्यक्ति विशेष की समस्या नहीं है, बल्कि यह एक मानसिक तथा सामाजिक प्रवृति है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रही है। इसके लिए अभिव्यक्ति या रचनात्मकता की नैसर्गिक स्वतंत्रता की आड़ में परोसे जा रहे स्त्री-विरोधी, यौन-हिंसा को उकसाने वाले और महिलाओं का वस्तुकरण करनेवाले कंटेट (ऑनलाइन/ऑफलाइन/साहित्यिक/वाचिक आदि) पर सबसे पहले लगाम लगाने की जरूरत है।

हालांकि दुनिया की कोई भी सरकार पोर्न, साहित्य और सिनेमा को बैन करने में पूरी तरह से सफल नहीं हो सकता। न ही बैन या सेंसरशिप इस समस्या का वास्तविक समाधान है। वास्तव में यह एक सभ्यतामूलक चुनौती है, जो व्यक्ति की सहानुभूति, संवेदना तथा उसकी चेतना को कुंद कर देता है और  किस सीमा को छूने या पार करने के बाद यह मनोरोग की श्रेणी में आ जाता है, इसे मनोवैज्ञानिक स्तर पर समझने की जरूरत है।

साथ ही, देश की कानून-व्यवस्था तथा न्यायिक प्रक्रिया को ईमानदार और कठोर बनाना होगा। फास्ट ट्रैक के जरिये ऐसे मामलों की त्वरित सुनवायी करके उचित दंडात्मक कार्यवाही करनी होगी। मूल्यपरक सामाजिक और शैक्षणिक बदलाव की दिशा में आगे बढ़ना होगा। जन-जागरूकता अभियान चलाना होगा। और इन सारे कामों के लिए केवल सरकार का मुंह देखने से काम नहीं चलेगा, हमें भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए अपनी हिस्सेदारी निभानी होगी। तभी हम उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले कल में हमारी बच्चियां खुली हवा में बेफिक्री की सांस ले सकें।

 

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