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संकल्प से सिद्धि तक

संकल्प से सिद्धि तक

by डॉ. अजय खेमरिया
in जनवरी २०२० - आप क्या चाहते हैं?, सामाजिक
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ऐसे बीसियों उदाहरण है  जिनसे यह प्रमाणित होता है कि  हमारी चेतना में राष्ट्रीय दायित्व बोध आज भी स्थायी भाव नहीं बना सका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस टीम इंडिया औऱ एक भारत श्रेष्ठ भारत की बात पर जोर देते है उसकी बुनियादी सोच 125 करोड़ भारतीयों में नागरिकबोध के प्रादुर्भाव का ध्येय ही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सदैव एक आह्वान करते रहे है हमें भारत की आजादी के लिये संघर्ष करने औऱ मरने का अवसर नही मिला तो कोई बात नही है आज  राष्ट्र के लिए जीने का अवसर तो उपलब्ध है।

इस आह्वान के पीछे मूल आधार पिछले 70 बर्षो के राष्ट्रीय जीवन के वे नैराश्य से भरे अनुभव ही जो हम 125 करोड़ भारतीयों के नागरिकबोध पर सवालिया निशान खड़ा करते हैं।

हमने गणतन्त्रीय और सम्प्रभु राज्यव्यवस्था को तो आत्मार्पित और आत्मसात किया लेकिन इसके लिये नागरिकों में उत्तरदायित्व की भावना के लिये कोई प्रावधान नही किए।भारत के मूल संविधान में नागरिकों के लिए किसी प्रकार के कर्तव्यों का उल्लेख नही किया गया था।1976 में 42वे संवैधानिक संशोधन औऱ सरदार स्वर्ण सिंह की अनुशंसाओं को स्वीकार करते हुए भाग 4 में अनुच्छेद 51(क)जोड़कर पहले दस और अब 11 मूल कर्तव्यों का समावेश किया गया। भारत के लोकजीवन में प्रायः प्रतिदिन ही नागरिकों के अधिकारों को लेकर बहस होती रहती है।पिछले कुछ बर्षों में तो अभिव्यक्ति की आजादी और इससे सहसंबन्धित अन्य अधिकारों को लेकर एक चिन्हित वर्ग द्वारा ऐसा वातावरण निर्मित किया जाता रहा है मानों भारतीय राज्यव्यवस्था ही नागरिक अधिकारों को कुचलने में लगी है। कतिपय बुद्धिजीवियों द्वारा इस मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण का प्रयास भी किया जाता रहा है।

प्रश्न यह है कि क्या कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था बगैर नागरिकबोध के सफल हो सकती है? क्या सिर्फ राज्य प्रायोजित अनुदान और सुविधाओं के एकपक्षीय उपभोग से कोई राज्य लोककल्याणकारी ध्येय को प्राप्त कर सकता है?1950 से भारत के सामाजिक जीवन का सिंहावलोकन हमें इस चिंतन की ओर उन्मुख करता है  कि क्या भविष्य का भारत अपने नागरिकों की कर्तव्यविमुखता की नींव पर खड़ा होकर  उस वैश्विक स्थिति को हासिल कर पायेगा जिसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिन रात मेहनत कर रहे है।

गणतंत्र पर्व के आलोक में हमारें राष्ट्रीय चरित्र के आत्मवलोकन के लिए हमें जापान और हमारी राष्ट्रीय संपत्ति के प्रति चेतना के उदाहरण को समझना होगा। कुछ वर्ष पूर्व एक भारतीय  ने  देखा कि जापान के टोकियो  शहर में एक बुजुर्ग  ट्रेन की सीट के फटे हुए हिस्से की सिलाई सुई धागे से कर रहे है कौतूहल वश भारतीय महाशय ने जब उस बुजुर्ग से इस सबन्ध में चर्चा की तो उन्होंने बताया कि वह एक रिटायर्ड शिक्षक है और यह सोचकर सीट की सिलाई कर रहे है कि कोई विदेशी अगर इस ट्रेन में सफर करेगा तो उसके मन मे मेरे जापान की क्या छवि बनेगी। अंदाजा लगा सकते है कि जापानी चरित्र में किस उच्च कोटि की राष्ट्रीयता का तत्व विद्यमान है। इसके उलट आईआरसीटीसी की पिछले वर्ष जारी एक रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2017 में हमारी  सुपरफास्ट ट्रेनों से 1 लाख 95 हजार तौलिया 81 हजार736 बेड शीट,55 हजार से ज्यादा तकिए के खोल,7 हजार कम्बल,1000 से अधिक शौचालय की टोंटियां,200 मग्गे हम भारतीय चुराकर अपने घरों में ले गए। भारतीय रेल जापान की तरह हमारी भी राष्ट्रीय सम्पत्ति है और संविधान के प्रावधित मूल कर्तव्य संख्या 9 कहता है कि हम सभी को अपने राष्ट्रीय स्मारक,सम्पति की सुरक्षा करनी चाहिए। जापानी नागरिक बोध को दुनिया में सबसे ऊंचे स्थान पर रखा जा सकता है यह ऐसे नागरिकों का राष्ट्र है जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की बर्बादी के बाद आज खुद को तकनीकी और राष्ट्रीय उत्पादन के मामले में शिखर पर स्थापित कर लिया है खासबात यह है कि इस देश मे कोई प्राकृतिक संसाधन नही है।इसके उलट प्राकृतिक संपदा से भरी हमारी धरती को हम 70 साल बाद भी  अपने ही कल्याण के लिये सुनिश्चित नही कर सके है। असल मे हमारी लोकचेतना के केंद्र में राष्ट्र का भाव आज वोट बैंक की राजनीति ने तिरोहित करके रख दिया है।मुफ्तखोरी की चुनावी सियासत ने सत्ता का सर्जन तो  एक चिन्हित वर्ग के लिए निरन्तर किया लेकिन भारत के वैभव औऱ सम्रद्धशाली विरासत को इसने तिरोहित करके रख दिया।यह तथ्य है कि एक नागरिक समाज के रूप में हम आज दुनिया में बहुत ही कृपण वर्ग का प्रतिनिधित्व करते है जहां एक ओर हर जापानी दिन में एक बार अपने राष्ट्र के बारे में सोचता है वहीं हमारे करोडों लोग पूरा जीवन बगैर देश की चिंता और योगदान के गुजार देते है।चीन के तानाशाही आवरण में भी राष्ट्रीय तत्व आम जीवन में इस सीमा तक है कि वहाँ आयोजित किसी भी अंतर्राष्ट्रीय आयोजन में शिरकत करने आये विदेशी को हवाई अड्डे पर ही चीनी भाषा मंदारिन का दुभाषिया किराए पर लेना पड़ता है ताकि उसके देश की भाषा का सम्मान तो बना ही रहे साथ ही राष्ट्रीय आय में भी बढ़ोतरी हो।इजरायल  के लोगों ने रोमन अत्याचार के अंतहीन  दौर को सहन कर अपनी भाषा हिब्रू को सहेज कर रखा और जब नया देश इजरायल बसा तो उसे 50 साल में तकनीकी,व्यवसाय, शोध,प्रशासन की प्रमुख भाषा बना दिया।बहुलता और विविधवर्णी साझी विरासत के नाम पर आज हमारे जेहन में अपनी किसी भाषा के प्रति ऐसा अनुराग नही है।पिछले सरकारी भाषा सर्वेक्षण में महज 24हजार 597 लोगों ने ही मातृभाषा के रूप में संस्कृत को रिकॉर्ड पर दर्ज कराया है।दक्षिण कोरिया के नागरिकों ने भी कमोबेश अपनी राष्ट्र भक्ति के दम पर आज अपने देश को दुनिया के सबसे तरक्कीपसंद तकनीकी देश के रूप में स्थापित कर लिया है।बेशक भारत ने 70 सालों में हर क्षेत्र में प्रगति की है लेकिन यह भी सच है कि विपुल मानव संसाधन और असीम प्राकृतिक संसाधनों की तुलना में हमारी प्रगति यात्रा बहुत ही मंथर औऱ अधोगामी है।इसका मूल कारण हमारे अवचेतन में राष्ट्रीयता के प्रधानतत्व की कमी ही है।हमारे लोकजीवन में दैनंदिन कार्य आपवादिक रूप से ही राष्ट्रीयता का भाव धारण करते है।  हम क्रिकेट में अपनी जीत पर जश्न मनाते है और कुछ पल बाद  ही यह विजयोन्माद काफूर हो जाता है।हम अटारी बाघा बार्डर पर जब परेड देखते है तो देशभक्ति के उन्मादी से ज्वार में डूब जाते है लेकिन जब वहाँ से लौटते है तो ढेर सारा कचरा अपनी सीट के नीचे छोड़ आते है उसी भारतमाता के सीने पर जिसकी जयकार कुछ मिनिट पहले ही बीएसएफ के साथ कर रहे होते है। ऐसे बीसियों उदाहरण है  जिनसे यह प्रमाणित होता है कि  हमारी चेतना में राष्ट्रीय दायित्व बोध आज भी स्थाई भाव नही बना सका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस टीम इंडिया औऱ एक भारत श्रेष्ठ भारत की बात पर जोर देते है उसकी बुनियादी सोच 125 करोड़ भारतीयों में नागरिकबोध के प्रादुर्भाव का ध्येय ही है। कल्पना कीजिये अगर हर भारतीय अपने जीवन मे सामाजिक रूप से बर्ष भर में एक काम करने का संकल्प ले तो तस्वीर क्या होगी?ऐसा नही है कि प्रधानमंत्री मोदी की अपील दूसरे शासकों की तरह निष्प्रभावी है आज भारत गंदगी से मुक्ति की ओर मानसिक रूप से उन्मुख हो रहा है लोग अपने आसपास गंदगी करने से पहले सोचने लगे है यह एक शुभ संकेत है।लोकजीवन में इसे हम राष्ट्रीयता के पुनर्स्थापना की शुरुआत कह सकते है बाबजूद भारतीय गणतंत्र को इजरायल,चीन,जापान,कोरियाई चरित्र में ढलने के लिये अभी लंबी यात्रा करनी होगी क्योंकि राज्य प्रायोजित मुफ्तखोरी और गैर जबाबदेही जीवन हमारे मन मस्तिष्क में गहरे तक समाया हुआ है। गांव के सरपंच और सचिव पर ही गांव के विकास की ठेकेदारी थोपने की मानसिकता से लड़ना है। नगर निगम और सांसद ,विधायक पर थोपी जाने वाली विफलताओं से बचने के जतन खुद से करने होंगे। गणतंत्र में तंत्र को हर समस्या और समाधान के लिए आरोपित करने की मनःस्थिति को बदलना होगा।समझना होगा कि तंत्र भी गण से निकलता है और उसका कोई अलग वैशिष्ट्य नही है।भारत एक लोककल्याणकारी राज्य केवल तंत्र के भरोसे नही बन सकता है इसके लिये हम सभी को तंत्र के साथ टीम इंडिया बनकर काम करना होगा।बिजली,टैक्स,या राष्ट्रीय सम्पत्ति की चोरी,और कर्तव्यविमुखता भी उतना ही बढ़ा कदाचरण है जो देश के दुश्मन करते है।इसलिये गणतंत्र को अगर महाजनपदीय गौरव के साथ स्थापित करना है तो अधिकारों के समानान्तर कर्त्तव्य के अबलंबन को भी आत्मार्पित करना ही होगा।देश का मौजूदा शासन भारत को जबाब देह नागरिक गणराज्य बनाने के लिए संकल्पित है तो हमें भी इस संकल्प को सिद्धि तक ले जाने में अपना योगदान क्यों नही देना चाहिये?

 

डॉ. अजय खेमरिया

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