ऐतिहासिक फिल्मों का दौर…

ऐतिहासिक फिल्म का निर्माण एक तरह फिल्मी ही रहा। इतिहास के पन्नों में झांकने से ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह रहीं कि ऐसी फिल्म का कला निर्देशन या सेटस बहुत सुन्दर और बड़े होने चाहिए। फिल्म का प्रस्तुतिकरण वास्तविक जीवन से दूर रहे और उसमें नाट्यपूर्णता रहे। गीत संगीत और नृत्य की काफी भीड़ रहे। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि उसके डायलाग पब्लिक को पसंद आये।

देखा जाए तो ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण कोई नई बात नहीं है हमारे देश की पहिली फिल्म दादासाहेब फालके निर्देशित ‘राजा हरिश्चंद्र’ ऐतिहासिक ही थी। जब फिल्में बनने लगी तो शुरु के मूकपट के दौरान एक तो ऐतिहासिक फिल्म बनती थी या फिर पौराणिक  फिल्में बनती थी, हमारी फिल्में बोलने लगी तब भी शुरु के कुछ साल ऐसी ही फिल्में इसलिए बनती थी की उस समय फिल्मों के माध्यम से कहानी को लोगों तक पहुंचाना, इसी बात को महत्व दिया जाता था। इसलिए आम आदमी को जो मालुम है और जो उन्हे पसंद आयेगी ऐसी ही कहानी पर फिल्म बनाना सही लगता था।

कहने का मतलब है कि, आज ऐतिहासिक फिल्म का दौर नया नहीं है सिर्फ उसका मेंकिंग, प्रेजेन्टेशन, रिलीज और पब्लिसिटी का अंदाज अलग है, पहले हमारी फिल्में टेक्निकली कमजोर हुआ करती थी, मगर ऑडियंस कभी निराश नहीं होते थे, कृष्ण धवल याने ब्लैक अ‍ॅण्ड व्हाईट में फिल्में बनती थी, बजट की भी समस्या थी, मगर काफी प्यार और लगन से फिल्में बनती थी।

पचास और साठ के दशक में निर्माता और निर्देशक सोहराब मोदी ने काफी ऐतिहासिक फिल्में बनाकर अपनी अलग पहचान बनाई। राजहठ, मिर्झा गालिब, पुकार, झांसी की रानी, सिकंदर, पृथ्वी वल्लभ, शीश महल इत्या इसमें से ‘पुकार’ फिल्म काफी लोकप्रिय हुई। उस समय की ऐतिहासिक फिल्मों में ऑन्थेटिसिटी कम हुआ करती थी और जादा तर राजा महाराजाओं की कहानी को प्रधानता थी। सिर्फ पुराने मुगलशाहों के समय का संदर्भ लेकर ही ये फिल्में बनती थीं। एक तो कहानी अपरिचित हुआ करती थी और दर्शक वर्ग भी ऐसी फिल्मों को केवक मनोरंजन का एक माध्यम समझते थे। ऐसे में के.आसिफ निर्देशित ‘मुगल ए आज़म’ फिल्म ने काफी सफलता पाई। मूल कृष्ण धवल याने ब्लैक अ‍ॅण्ड व्हाईट फिल्म में सिर्फ शीशमहल में फिल्माया गया ‘प्यार किया तो डरना क्या … ’ गाना रंगीन था। उससे फिल्म की भव्यता दिखाई देती है। अनारकली (मधुबाला) अपने सलीम (दिलीपकुमार) के प्यार को खुले आम कबूल करती है, यह देखकर सलीम के पिता अकबर (पृथ्वीराज कपूर) और माँ जोधा ( दुर्गा खोटे) भडक उठते हैं, वैसे यह एक प्रेम कहानी है, मगर ऐतिहासिक बॅकड्रॉप की वजह से उसे असाधारण रूप मिला, जो कि दर्शकों को काफी पसंद आया और एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसी ऐतिहासिक फिल्म के रिलीज के वक्त थियेटर डेकोरेशन भव्य दिव्य हुआ करता था। मुगल-ए-आझम के वक्त मुंबई के मराठा मंदिर थियेटर पर ऐसा ही किया था और वो देखने के लिए भी काफी भीड़ जमा हुआ करती थी। ऐतिहासिक फिल्म दर्शक की नज़र से कुछ खास या बड़ी फिल्म हुआ करती है। मुगल-ए-आज़म इसमें माईल स्टोन फिल्म है, जो कि 2004 में पूरी तरह से रंगीन करके रिलीज कर दीया और इस वक्त भी इस फिल्म ने इरॉस थियेटर में अच्छी सफलता पा ली। मुगल-ए-आज़म के दोनों वक्त की रिलीज में एक बात कॉमन रही, वो कि दोनो बार फिल्म की प्रिन्ट मेंन थियेटर पर हाथी से लायी गयी।

ऐतिहासिक फिल्म का निर्माण एक तरह फिल्मी ही रहा। इतिहास के पन्नों में झांकने से ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह रही कि ऐसी फिल्म का कला निर्देशन या सेटस बहुत सुन्दर और बड़े होने चाहिए। फिल्म का प्रस्तुतिकरण वास्तविक जीवन से दूर रहे और उसमें नाट्यपूर्णता रहे। गीत संगीत और नृत्य की काफी भीड़ रहे। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि उसके डायलाग पब्लिक को पसंद आये। मुगल-ए-आज़म में ऐसे संवादों का काफी योगदान है। जो कि दर्शकों को काफी पसंद आया। सलीम अपने पिता अकबर को सुनाता है। ‘तकदीरें बदल जाती हैं, जमाना बदल जाता है, मुल्लों की तारीख, इतिहास बदल जाता है, शहेनशाह बदल जाते है, मगर बदलती हुई दुनिया में मुहब्बत जिसका दामन थाम लेती है, वह इन्सान नहीं बदलता।’ ऐसे बडे बडे डायलॉग से दर्शक को बहुत आनंद मिलता था, सिर्फ डायलाग सुनने के लिए काफी दर्शक ऐसी फिल्में बार-बार देखते थे। ‘मुगल-ए-आज़म’ के बाद भी काफी ऐतिहासिक फिल्में आयी, ‘ताजमहल’ (प्रदीपकुमार और बीना रॉय) फिल्म के गाने बहुत ही सफल रहे (जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा), प्रदीपकुमार ऐतिहासिक फिल्म के सही नायक के रुप में जाने-जाने लगे।

कमाल अमरोही निर्देशित ‘रझिया सुल्तान’ यह भारी बजट की महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी ऐतिहासिक फिल्म को दर्शकों ने पूरी तरह से इसलिए नकारा किफिल्म की अफगान शैली की भाषा समझ में नहीं आ रही थी(जो कि फिल्म के थीम के अनुसार थी) और दूसरी बात यह है कि फिल्म में रंजकता काफी कम थी, हिंदी फिल्म के दर्शक सिर्फ इतिहास देखना नहीं चाहते, उनको सिर्फ एन्टरटेन्मेंन्ट, एन्टरटेन्मेंन्ट और सिर्फ एन्टरटेन्मेंन्ट ही चाहिए।

पिछले कुछ सालों में जो ऐतिहासिक फिल्में आयी उससे लगता था कि उसमें शूरवीरों के शौर्य, पराक्रम की गाथा देखने को मिलेगी, ऐसा इसलिए लगता था कि अब पटकथा लेखक और निर्देशक कुछ हटके और इतिहास की सही तस्वीर प्रस्तुत करने में रुचि रखनेवाले है ऐसा लग रहा था, मगर आज की ऐतिहासिक फिल्म के पीछे मल्टीप्लेक्स का बहुत बड़ा परदा, नयी प्रगत टेक्निकली सादरीकरण, काफी देशों में हिंदी फिल्म का रिलीज और ऐसी ऐतिहासिक फिल्म के लिए बहुत बड़ी आर्थिक ताकत लगाने की कार्पोरेट कंपनी की व्यावसायिक रुची, इन सब की वजह से अब बहुत बडी ऐतिहासिक फिल्में परदे पर आ रही है, और हम इस पर ठीक तरह से फोकस डाले तो एक बात सामने आती है कि यह सारी फिल्में लोगों का मनोरंजन करने और व्यावसायिक सफलता से काफी करोड़ का लाभ उठाने का लिए बन रही है। पहले ऐतिहासिक फिल्म में बडी स्टार कास्टिंग, गीत-संगीत और नृत्य की रेलचेल और जोरदार डायलागबाजी भरी रहती थी वो ही आज की ऐतिहासिक फिल्म में भी दिखाई देती है, सिर्फ परदा बडा हुआ है, काफी मिडिया हाईप मिल रही है और फिल्म के किसी भाग को लेकर कुछ सामाजिक संगठन (करणी सेना), राजनैतिक पार्टियां आवाज उठा रहे हैं, उससे सिर्फ उन आंदोलकों और फिल्म को पब्लिसिटी मिल रही है, और कुछ हासिल नहीं हो रहा है, ऐसी फिल्म के निर्माण में पटकथा लेखक और निर्देशक ने कुछ खास डिटेल्स में जाकर जानकारी ली है, स्टडी की है ऐसा वातावरण तैयार करने में सफलता पा रहे हैं। मगर जब यह फिल्में परदे पर आती है तो साफ रुप से दिखाई देता है कि ऐसी ऐतिहासिक फिल्म का निर्माण दर्शको के सिर्फ और सिर्फ एन्टरटेन्मेंन्ट, एन्टरटेन्मेंन्ट और सिर्फ एन्टरटेन्मेंन्ट के लिए किया है। जब कोई ऐसी एक फिल्म काफी सफलता पा लेती है तब और फिल्मवाले ऐसी ही फिल्म बनाना चाहते हैं, इसमें सिर्फ एक बात स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि अब व्हीएफएक्स का याने डिजिटल टेक्निक का काफी योगदान रहता है, और अब इतिहास के अलग अलग पन्नों पर फिल्मवालों की नज़र पड रही है इसलिए फिल्म माध्यम से काफी इतिहास सामने आ रहा है, कभी ज्यादा मनोरंजन करने के चक्कर में कोई फिल्म निराश करती है या तो फिर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म है ऐसा शुरु में कहकर सिनेमॅटीक लिबर्टी ली जाती है।

इस दशक की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक फिल्म के नाम कहे तो, आशुतोष गोवारीकर निर्देशित ‘जोधा अकबर’, ‘मोंहन जो दड़ों’, ‘पानीपत’, केतन मेंहता निर्देशित ‘मंगल पांडे ’, राकेश ओमप्रकाश मेहरा निर्देशित ‘रंग दे बसंती’, संजय लीला भंसाली निर्देशित ‘बाजीराव मस्तानी ’, ‘पद्मावत’ (इन दो फिल्मों ने काफी सिनेमॅटीक लिबर्टी ली, मगर इन्ही दो फिल्मों ने ऐतिहासिक फिल्म के लिए एक सकारात्मक वातावरण तैयार करने में सफलता पा ली), राज सिंह निर्देशित ‘केसरी’, ओम राऊत निर्देशित ‘तानाजी’ …. इसमें कोई फिल्म इतिहास की परिपूर्ण रचना नहीं, सिर्फ  एक ऐतिहासिक घटना पर आधारित है और ऐसा रहा तो ही ऐसी बड़ी फिल्मों की लागत वसूल करने के लिए सही रहेगा और अगर फिल्म निर्माण एक व्यवसाय है ऐसा आप मानते हैं तो ऐतिहासिक फिल्में ऐसी ही मनोरंजन का एक चेहरा रहेगी अन्यथा वो डॉक्यूमेंटरी हो जाएगी।

 

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