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संत एकनाथ की निस्पृहता का रहस्य

संत एकनाथ की निस्पृहता का रहस्य

by गणपत कोठारी
in फरवरी 2020 - पर्यावरण समस्या एवं आन्दोलन विशेषांक, सामाजिक
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एक भक्त ने संत एकनाथ से पूछा कि -“गुरूदेव! साधना के क्षेत्र में आपकी निस्पृहता देखकर हम सब दंग हैं। आप कृपया हमें बतायें कि ऐसी निस्पृहता एवं स्थितप्रज्ञता आप कैसे रख पाते हैं?“ संत एकनाथ ने एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए कहा कि -“वत्स! तुझे किसी दिन फुर्सत में बैठकर इस साधना का रहस्य बताऊंगा  परन्तु….“! शिष्य ने कहा-“गुरूदेव! यह परन्तु क्या है? कृपया उसे पहले बतायें”?

आदमी आधी अधूरी छोड़ी बात को जानने को बेताब हो जाता है एवं यदि गुरू भी किन्तु-परन्तु रखकर बात करें तो व्यक्ति की  जिज्ञासा एवं बेताबी बढ़ जाना और भी स्वाभाविक है। संत एकनाथ ने कहा – “वत्स! जिद मत करो! अब तुम्हें वह रहस्य बताने का कोई मकसद ही नहीं रह गया है”। उस शिष्य की जिज्ञासा तो पराकाष्टा को छू गई। उसने कहा-“गुरूदेव? ऐसी भी क्या बात है कि आप इतनी पहेलियां बुझा रहे हैं एवं मुझे मानो अधर में ही लटका रखा है।आप जो भी बात हो स्पष्ट कहें। अब और इंतजार मेरे बस का नहीं है।“ संत एकनाथ कुछ देर चुप रहे फिर बोले- “वत्स! कहना तो नहीं चाहता था, परन्तु जब तुम इस कदर मुझे मजबूर कर रहे हो तो मुझे कहने को बाध्य होना पड़ रहा है कि वत्स! तुम आज से सातवें दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे।“

शिष्य यह सुनकर और वह भी संत एकनाथ जैसे महान संत के मुुखारविन्द से, ऐसा घबराया एवं हिम्मतपस्त (हिम्मतहीन) हो गया कि उसमें जहां बैठा था वहां से उठने की हिम्मत भी जाती रही। बड़ी मुश्किल से किसी की सहायता लेकर अपने घर लौटा एवं खाट पकड ली। बात ऐसे सर्वमान्य पहुंचे हुए संत द्वारा इतने प्रभावी ढ़ंग से कही गई थी कि उस शिष्य का ही नहीं हर किसी व्यक्ति का घबराना एव ंहिम्मतपस्त हो जाना अनहोनी या आश्चर्यजनक बात नहीं थी। वह तो बिल्कुल गुमसुम रहने लगा। ना किसी को डांटता, ना किसी को फटकारता, ना किसी पर किसी प्रकार का क्रोध करता. ना किसी की बात का बुरा मानता या प्रतिक्रिया करता। उन सात दिनों में उसने मात्र प्रभु स्मरण किया एवं जो मिला उससे अपने विगत में किए गए अपराधों की क्षमा मांगता रहा।

इस तरह करते-करते, जब सात दिन पूरे गुजर गए एवं अपने को उसने अपने मन से हर अंग को हिला डुला, सांस की ध्वनि आदि सुनकर आश्वस्त कर लिया कि वह जीवित है तो एकदम शरीर में रक्त का संचार हुआ तथा अपनी जगह से उठा तथा एकदम चलकर सीधा संत एकनाथ के पास गया एवं बड़ी अश्रद्धापूर्ण मनःस्थिति में संत एकनाथ से पूछा कि- क्या आजकल संत भी झूठ बोलने लगे हैं? संत एकनाथ ने कहा कि- नहीं! संत झूठ नहीं बोलते। वह मात्र प्रश्न का उत्तर देते हैं एवं जिज्ञासा का समाधान करते हैं। अब तू बता कि इन सात दिनों में काम, क्रोध, प्रतिक्रिया, खान-पान आदि की क्या स्थिति रही?

उसने कहा- इन सात दिनों में इन सब का तो कोई मतलब ही नहीं रहा। मात्र मौत ही सामने खड़ी दिख रही थी। संत एकनाथ ने कहा- “बस! तेरी जिज्ञासा एवं प्रश्न का यही उत्तर है कि जो व्यक्ति मौत को सतत सामने खड़े देखता है वह स्वतः ही निस्पृह तथा अनासक्त हो जाता है।“ महात्मा ईसा ने कहा है कि यदि धार्मिक बनना है तो सदैव अपनी मृत्यु को अपने स्मरण में रखो।

 

 

 

गणपत कोठारी

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