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पूर्वोत्तर की बारिश

पूर्वोत्तर की बारिश

by हिंदी विवेक
in नवम्बर २०१५, सामाजिक
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चेरापूंजी का पुराना नाम सोहरा है। चेरापूंजी के पश्चिम में ८ कि.मी. पर पश्चिम खासी पहाड़ी में करीब उतनी ही ऊंचाई पर मौसिन्राम है। यहां ७०० इंच वर्षा होती है अर्थात चेरापूंजी से अधिक। इसका अर्थ यह कि, अब दुनिया में सब से ज्यादा वर्षा का स्थल मौसिन्राम है।

हमें अपने जीवन में, नित्य सुख-दुख झेलना पड़ता है। कभी अपना मन ऊँचाई पर ले जाए- हवा से, बारिश से दोस्ती करें, ग्लोबल बन जाए। हवा को किसी देश की सीमाएं नहीं बांध सकतीं और ना ही बारिश का कोई धर्म होता है।

चेरापूंजी को ऊंचाई से देखें तो भारत का पूर्व किनारा, म्यांमार, थायलैंड का पश्चिम किनारे से बना ‘फनेल’ जैसा आकार, अंडमान से आने वाले घने बादलों को जोर की हवा बंगाल तक धकेलती है। यहां से पूर्व में खासी, पश्चिम में गारो और उत्तर-पूर्व दिशा में ‘जयंतिया’ पहाड़ियां हैं। ये पहाडियां बादलों को रोकती हैं, इससे ज्यादातर वर्षा चेरापूंजी में होती है।

बारिश के अनेक रूप- फव्वारे जैसी, आंखों को, शरीर को और मन को तरबतर कर देने वाली फुहारों जैसी, बड़ी-बड़ी बूंदों वाली, जोरों की बारिश, मूसलाधार बारिश। पूर्वांचल में अपने अनेक रूपों के साथ बारिश काफी पहले शुरू होती है। महाराष्ट्र में जेठ के महीने में याने गरमी के अंतिम दिनों में बारिश की राह हम तकते हैं। कई बार तो बेचारा आषाढ़ सूखा जाता है। (पूर्वांचल के पंचांग के अनुसार महीने का अंत पौर्णिमा होने के फलस्वरूप जेठ, आषाढ़ आदि चांद्रमास महाराष्टादि इलाके की अपेक्षा एक पखवाडा- याने १५ दिन पहले  आरंभ होते हैं।)

पूर्वोत्तर भारत में जेठ महीने में ही बारिश शुरू होती है। गुवाहाटी जैसी जगह मई महीने में ही दोपहर के बाद नियमित रूप से बारिश होती है, वह भी ऐसी, कि शाम को स्वेटर जरूरी लगता है और रात को ब्लैंकेट!

आषाढ़ में धुआंधार बारिश होने पर पूर्वोत्तर के लोगों को खुशी होती है। अब इतने बड़े इलाके में मूसलाधार बारिश होने पर नदी-नालों में पानी बढ़ता ही जाता है। उनके पानी से भर जाने पर लोहित अर्थात बह्मपुत्र जैसी नदी में तो बाढ़ आएगी ही। पूर्वोत्तर के नागरिक बारिश और बा़ढ़ के आघात सहने के सदियों से आदी हो चुके हैं।

‘ब्रह्मपुत्र में बाढ़ की वजह असम का देश के साथ संपर्क टूटा। असम बाढ़ की चपेट में, डिब्रुगढ़ पानी में।’ जैसे समाचार, समाचार पत्रों में हर बरस नियमित रूप में प्रकाशित होते है; परंतु इससे पूर्वोत्तर भारत में कहीं भी हड़बड़ी दिखाई नहीं देती। पत्रकार सनसनीखेज समाचार देने के शौक में तेजी से यह देते हैं, पाठक तनिक अफसोस करते हैं और पलभर में उन्हें भूल भी जाते हैं।

लेकिन असल में बारिश के मौसम में पूर्वोत्तर में भीषण जैसा कुछ नहीं होता। जो होता है, वह हमेशा का है। नदियों के तट पर बसे लोग अच्छी तरह जानते हैं, कि बाढ़ आते ही घर की सब से जरूरी चीजें लेकर घर छोड़ कर अन्यत्र जाना है। उनके लिए बाढ़ आने पर घर छोड़ कर निकलना और उसके उतरने पर फिर से वापस घर लौटना, साल में एकाध- दो बार का नियमित कार्यक्रम जैसा है। बारिश के मौसम और छोटी-बड़ी बाढ़ के दौरान लोगों का जीवन बिना खटके चलते रहता है।

माजुली जैसे द्वीप पर हर दो-चार बरसों बाद बड़ी भारी बाढ़ आती है। पूरा गांव चार-छह दिन कमर तक पानी में डूबा होता है। सारी दुनिया से सम्पर्क वाकई कट जाता है। फिर भी ऐसी घटनाओं की लोगों को इतनी आदत हो गई है कि, उन्हें उसकी भीषणता महसूस ही नहीं होती। उनका कामकाज जारी रहता है। केवल इतना ही होता है कि उन दिनों में लोगों का आवागमन नौकाओं से होता है! हाथों से खेने की नौकाएं तो बहुतों के पास होती हैं।

डिब्रुगढ़ में ब्रह्मपुत्र का पात्र विशाल अर्थात १३ कि.मी. चौड़ा है। बारिश के मौसम में बाढ़ के चलते वह और चौड़ा हो जाता है। चार-छह दिनों तक पानी अगर बरसता रहा, तो पूरा डिब्रुगढ़ जलमय हो जाता है – मानो न हिलने वाला जहाज हो! लोग छोटे से टीले पर जाकर बिना चीखे-चिल्लाए अपना समय काटते हैं। हमारी ओर तो यह प्रश्न होगा कि, ‘ऐसी विपरीत अवस्था में ये लोग आखिर इतने  शांत कैसे रह पाते हैं?’

और तो और चेरापूंजी की मूसलाधार बारिश का हर किसी को कम से कम एक बार तो अनुभव लेना ही चाहिए। गारो, खासी और जयंती इन तीन छोटी पहाड़ियों के त्रिकोणी झूले में बसा चेरापूंजी का परिसर मानो इन तीन पहाडियों का लाडला नन्हा शिशु ही है। इस नन्हे को नलहाने गारो, खासी और जयंती ये पहाडियां दक्षिण-पश्चिम से आते बादलों को जबरन रोकती हैं। सिर्फ रोकती ही नहीं, तो उनसे पूरी वसूली  करती हैं।

बंगाल के उपसागर के ऊपर से लाया हुआ सारा बाष्प अपने नन्हे को नहलाने हेतु इस्तेमाल करने को मानो उन बादलों को मजबूर करती हैं। बेचारे ये बादल अपने पास का सारा बाष्प यहां उंडेल देते हैं, यह ठीक है, लेकिन उससे इन रिक्त बादलों को काफी गुस्सा आता है। फिर ये बादल भी गारो, खासी, जयंती इस इलाके को सात्विक गुस्से से शाप देते हैं, ‘‘हमारे यहां से विदा होते ही यहां अकाल फैलेगा!’’

इस जोर-जबरदस्ती से जल तल क्रोधित होता है। इससे चेरापूंजी का ज्यादातर पानी बंगाल में जाता है। नदियां, झरने उसकी मदद करते हैं। परिणामस्वरुप बारिश के बाद चेरापूंजी में पानी की तंगी होती है।

पृथ्वीतत्त्व सब सहता है। उसे क्या पता कि कब कैसा आकार धारण करना है। इस गुण के कारण प्रकृति ने उसे दूसरा वर दिया, इस क्षेत्र में कोयला, लोहा, चूना बड़ी मात्रा में है। अंग्रेजों से पहले यहां से कोलकाता के साथ लोहे का व्यापार चलता था, इसका प्रमाण मिलता है। ये पहाडियां हिमालय से पुरातन होगी ऐसा विद्वानों का मत है। यहां की घाटियों में फलों की पैदावार विपुल होती है। संतरा, अनानस, कटहल, केला, सुपारी, तमालपत्र प्रचुर मात्रा में है। शहद जमा किया जाता है। इन दिनों काजू के पेड़ भी लगाए जाते हैं।

चेरापूंजी का पुराना नाम सोहरा है। आजकल यही प्रचलित किया है। चेरापूंजी के पश्चिम में ८ कि.मी. पर पश्चिम खासी पहाड़ी में करीब उतनी ही ऊंचाई पर मौसिन्राम है। पहले यहां जाना मुश्किल था। यहां ७०० इंच वर्षा होती है। यानी अब दुनिया में सब से ज्यादा वर्षा का स्थल मौसिन्राम है। शिलांग से पर्यटन-विभाग की चेरापूंजी दर्शन बस निकलती है। निजी या गैर-सरकारी गाड़ी लेकर जाना हो तो पहले पूछताछ करें। लूट-पाट का डर है। शिलांग से १० कि.मी. पर दो रास्ते जाते हैं। ५० कि.मी. पर पूर्व की ओर चेरापूंजी, आगे ५० कि.मी. पर शेला, पश्चिम में ५० कि.मी. पर मौसिन्राम। बीच से उमियान नदी बह कर जलप्रपात के रूप में बांग्लादेश में जाती है। जाते समय दुवाबसिंग स्थित पुल से दिखने वाली घाटी का दृश्य बड़ा सुहावना है।

इस सुहाने दृश्य का मजा लेने के लिए गैलरी बनाई गई है। आसमान साफ होने से ‘शेला’ से सिल्हट जिले के सुमानगंज, छटक जैसे गांव, बांग्लादेश के हरे-भरे खेत दिखते थे। नदियों की धारा भी स्पष्ट और चमकीली दिखाई दे रही थी। पुरातन काल में कोलकाता-ढाका, सिल्हट की घाटी से वस्तुओं का लेन-देन होता था। यह घाटी सह्याद्री की तरह मुश्कील नहीं है। २०० साल पहले स्थानीय इंजीनियरों की बनाई गई पत्थर की सडकें, पानी के पुल पाटने वाली डगर आज भी है। चेरापूंजी और मौसिन्राम के दरमियान कई पहाडों पर बनी सुंदर पत्थर की चोटियां, जलप्रपातों की भरमार है। कुछ जलप्रपात बरसात के मौसम में तो कुछ सालभर बहने वाले हैं। यहां का मौसमाई जलप्रपात तो बहुत ही सुंदर है। यहां से नौ किलोमीटर पर ‘मौसमाई गुफा’ है। बिजली की सुविधा होने के कारण अंदर से भी देखी जा सकती है। कई विविध रंगों के, विविध आकार के, विशिष्ट पत्थर के बड़े-बड़े लवण फानूस- लवण पत्थर के बीच में से सतर्कता से चलते हुए पंद्रह-बीस मिनट के बाद गुफा के बाहर आने पर हम चैन की सांस लेते हैं।

मेघालय में कुल ७८० गुफाएं हैं। कुछ गुफाओं का ध्यानपूर्वक निरीक्षण अभी बाकी है। मेघालय पर्यटन-विभाग इस प्रकार की गुफाएं देखने के लिए मार्गदर्शन करता है। एक ओर सुंदर जलप्रपात यानी ‘नोह का लिकाई’ की कहानी है। लिकाई नामक विधवा ने पुनर्विवाह किया। पति लिकाई की पहली बेटी से नफरत करता था। लिकाई काम पर जाने के बाद इस दुष्ट ने बेटी की हत्या कर दी और उसका रस्सा बनाया। सुपारी की टोकरी में उसकी ऊंगली मिली। लिकाई को लगा कि उसने ही बच्ची को खा लिया। इस आघात से उसने इस चोटी से नीचे छलांग लगा दी। नोह-ऊंची कूद- इससे जलप्रपात का नाम ‘नोह का लिकाई’ पड़ा है। जैव अभियांत्रिकी जगत का एक आश्चर्य यहां देखने को मिलता है। वह है ‘सजीव जड़ों के पुल’ रबर के पेड़ों की मुख्य जड़ को छोड़ कर एक जड़ अलग कर, उसका विकास कर, नदी के दूसरे किनारे पर लगाना। आगे चलकर उसकी और भी कई जड़ें निकलती हैं, फिर उनका पुल बनाया जाता है। ऐसा पुल बनाने के लिए साधारण तीस साल लगते हैं, पर एक बार बन जाते हैं तो अनेक सालों तक टिकते हैं। २०० साल पूर्व के पुल आज भी विद्यमान हैं। वे देखने के लिए पथरीले रास्ते से डेढ़-दो हजार फुट उतर कर खाई में जाना पड़ता है। कभी-कभी ये पुल दुमंजिला भी होते हैं।

खासी, गारो व जयंतिया जैसे पहाड़ी भूभाग की जनजातियां प्राकृतिक वातावरण में आत्मनिर्भर होती हैं। वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखना चाहती हैं। इसी से आगे चल कर ‘मेघालय’ राज्य का निर्माण हुआ। अंग्रेज भी उन पर अपना पूरा वर्चस्व नहीं रख सके। इन जनजातियों में ‘मातृसत्ताक पध्दति’ है। महिलाएं ही परिवार की प्रमुख होती हैं। अतिथियों की आवभगत वे ही करती हैं। दुकान, होटल चलाती हैं, पर बोलचाल का तरीका सीदा-सादा, रहन-सहन भी सादा होता है। बच्चे अपने नाम के आगे मां का नाम लगाते हैं। पति का महत्त्व कम है। पुरुष को ‘मामा’ के रिश्ते से सारे अधिकार होते हैं। बाहर के काम पुरुष-वर्ग करता है। पिता की संपत्ति में सबसे ज्यादा हिस्सा छोटी बेटी का होता है।

पूर्वांचल का भूभाग अनेक वर्षों से अलग-थलग लगता था। अब वहां पर कई लोग जाते हैं। बड़ी संख्या में लोगों को वहां जाना चाहिए। पूर्वांचल को चाहिए आपका प्यार और भाईचारा।

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