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मुकुंदजी, यूं बिना बताये कैसे चले गए….

मुकुंदजी, यूं बिना बताये कैसे चले गए….

by रमेश पतंगे
in दिसंबर -२०१५, व्यक्तित्व
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मुकुंदजी, आप इस तरह बिना बताएचले गए! यह आपने ठीक नहीं किया। अचानक विदा लेना आपका स्वभाव नहीं था। आप जब भी मिले, बड़ी प्रसन्नता से, हंस कर कहते- ‘‘रमेश, कैसे हो? क्या हो रहा है? तुम्हारी फलानी किताब मुझे नहीं मिली या लेख नहीं मिला। भाभी जी कैसी हैं?….’’ इस प्रकार आपका प्यार भरा संवाद होता था। अब मेरी भी उमर बढ़ रही है। मुझे ‘तुम’ कहकर पुकारने वाले बहुत कम लोग रह गए हैं। आप उनमें से थे।

आप मुंबई के महानगर प्रचारक बनकर आए, तब से मेरा और आपका परिचय गहरा हुआ। जल्द ही मैं महानगर का महाविद्यालयीन विद्यार्थी प्रमुख और महानगर सहकार्यवाह बना। आपके साथ काम करने के इन सात-आठ वर्षों को मेरे संघ जीवन का सुवर्णयुग कहा जा सकता है। संघ रचना में प्रचारक की आज्ञा सर्वोपरि है; उसका निर्णय अंतिम होता है। परंतु ‘‘मुझ से पूछे बगैर तुमने यह क्यों किया?‘‘ यह बात आपने मुझसे कभी नहीं कही। मेरा स्वभाव है हमेशा कुछ न कुछ नया काम करना, नया उपक्रम हाथ में लेना। इस सबके पीछे मुकुंदजी, आप पर्वत की तरह अटल खड़े रहे। आज मुझे लग रहा है कि आपके जाने से मैं सचमुच अनाथ हो गया हूं।

एक बार मैंने आपके सामने योजना रखी कि आदरणीय बालासाहब हमेशा कहते हैं कि, मुंबई में ५०० शाखाएं होनी चाहिए। हम ५०० शाखा शुरू करने का उपक्रम करेंगे। मैंने उनसे कहा कि तारीख १ से १० दिसम्बर १९८४ तक के दस दिनों में १००० शाखाएं लगाने का उपक्रम करेंगे। मुंकुंदजी का बड़प्पन तो देखिए कि वे इस योजना के लिए तुरंत तैयार हो गए। उन्होंने कहा, ‘तुम इस काम में लग जाओ।’ मैंने अपने सहयोगियों के साथ एक साल की योजना बनाई। उसके पड़ाव तय किए। हर पड़ाव में क्या करना है यह निश्चित किया। हम सब काम में जुट गए। तब मैं मुंबई महानगर का सहकार्यवाह था। संघ की पध्दति के अनुसार सारे विषय कार्यवाह के होते हैं। परंतु मुकुंद जी ने मुझे हमेशा मुक्त रखा। किसी बात में नहीं उलझाया। इस कारण १ से १० दिसम्बर का उपक्रम १०० प्रतिशत सफल हुआ।

इस पर बाद में टिप्पणी भी हुई। ऐसे अभियान चलाकर कभी शाखाओं की संख्या बढ़ती है क्या? क्या वह टिक सकेगी? कार्यकर्ताओं को ऐसे अभियान की आदत लगाना ठीक नहीं।  आदि आदि…..। मुकुंदजी, तब आपने कहा कि रमेश, कौन क्या कहता है, इसकी तरफ ध्यान मत दो, हम किसी का मुंह बंद नहीं कर सकते। हमारा उपक्रम अच्छा ही था, सफल हुआ, पूरा देश इसे जानता है।

शाखा बढ़ाने के उपक्रम के साथ ही ‘केशवसृष्टी’ की जमीन प्राप्त करने की कोशिश भी जारी थी। वह खर्चीला काम था, उसमें झंझटें भी थीं। कई लोग अवैध रूप से उस जगह पर घुस रहे थे। कुछेक ने तो जमीन भी हड़प ली थी। उन सबको वहां से निकालना जरूरी था। उसके लिए स्वयं जाकर कानूनी रूप से संघर्ष करना था। अगले सात-आठ साल संघर्षमय और यातनामय रहने वाले थे, लेकिन मुकुंदजी, इस चिंता को आपने मेरे पास फटकने भी नहीं दिया। मुझे इन सब से दूर रखा। और ऐसा संघर्ष करने की जिनमें शक्ति है, योग्यता है, ऐसे कार्यकर्ताओं को ढूंढ कर आपने केशवसृष्टी भेजा। कार्यकर्ताओं का नियोजन करने की समझ और व्यापकता आपके पास थी। मुकुंद जी, आपका बड़प्पन हमारी समझ में आया नहीं। मेरे एक सहयोगी ने कहा था, ‘‘यह केशवसृष्टी की झंझट मुकुंदजी ने मोल ली ही क्यों है? क्या यह संघकार्य है! ‘केशवसृष्टी’ मुकुंदजी के लिए ‘वॉटर्लू’ साबित होंगी।’’ (वॉटर्लू में नेपोलियन की हार हुई, उसका राज्यकाल समाप्त हुआ) आज केशवसृष्टी का विकास देखने पर उन कार्यकर्ताओं का क्या मत होगा? मुझे पता नहीं।

मुकुंद जी, मुझे आपसे कई विषयों पर लंबी बातचीत करनी थी किताब लिखने के लिए। उसमें से एक विषय यह भी था कि केशवसृष्टी की गुत्थी आपने कैसे सुलझाई? आपको उसमें क्या क्या सहना पड़ा। जो सहना पड़ा उसके बारे में मुकुंदजी कुछ बोलते भी नहीं थे। महानगर प्रचारक के तौर पर उन्हें नवयुग में क्या क्या झेलना पड़ा? प्रांत-प्रचारक की हैसियत से मोतीबाग में क्या सहना पड़ा? थोड़ा बहुत मैं भी जानता हूं, पर वह लिखने जैसा नहीं है। मुझे मुकुंदजी से यह जान लेना था कि यह शक्ति उन्हें कहां से मिली? मेरे जैसा कार्यकर्ता किसी मर्यादा तक ही सह सकता है। तत्पश्चात् उसकी सहनशीलता खत्म हो जाती है, फिर करना होता है ‘एक घाव दो टुकड़े’। परंतु मुकुंदजी, आप के प्रचारक-जीवन में इस तरह का एक ही प्रसंग मैंने अपवादात्मक रुप से अनुभव किया।

गिरीश प्रभुणे, अप्पा लातुरे और आप, तीनों का प्रवास आदिवासी जनजातियों की बस्ती पर था। यह प्रवास दस दिनों का था। आप उसे बीच में छोड़कर ‘नवयुग’ आए। मुझे और इदाते जी को बुलाया। गिरीश प्रभुणे जी के साथ एक बैठक की। मैं आपके साथ बहुत लंबे समय तक रहा हूं, पर मैंने आपको कभी इतना तनावपूर्ण स्थिति में नहीं देखा था। प्रवास के बारे में थोड़ा बहुत बोलने पर आपने कहा, ‘‘आज से आदिवासी जनजातियों का कार्यक्षेत्र मेरा नहीं।’’़ हम सब हैरान हुए। आपके कहने का शायद यहीं अर्थ था कि आदिवासी जनजाति संघ का विषय नहीं। आप उसे देख लीजिए। इतना मुश्कील निर्णय लेने का कारण भी ऐसा ही था। कार्यकर्ता काम करने के बजाय आपस में तू-तू मैं-मैं करने लगे तो वह संघकार्य नहीं होगा। मुकुंदजी को यह विषय संघ का नहीं है ऐसा कहना ही नहीं था। उनका कहना सिर्फ इतना ही था कि प्रचारक रह कर वे इस सम्बंध में काम नहीं कर सकते। आदिवासी जनजातियों में संघकार्य चलता ही रहा। यथावकाश कार्यकर्ता बदल गए। पर उन कार्यकर्ताओं की चिंता मुकुंदजी को लगी ही रहती थी। एक बार उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, रमेश, गिरीश जी के मानधन का क्या करें? आजतक हम वह हेडगेवार स्मारक निधि से देते थे। अब वहां के ट्रस्टी बदल गए हैं। वे शायद ही माने।

मैंने मुकुंदजी से कहा, ‘‘आप उसकी फिक्र न करें, हम उसे ‘विवेक’ से देने की व्यवस्था कर सकते हैं।’’

इन आदिवासी जनजातियों के काम के संदर्भ में मुकुंदजी से कई बातें करनी थीं। उनके अनुभवों का संकलन करना था। जिससे इस काम की तरफ देखने का संघ का नज़रिया ज्यादा स्पष्ट हो सकता था। मुकुंदजी आप चले गए और सब धरा का धरा रह गया।

‘विवेक’ की सारी प्रगति में मुकुंदजी, आपका सहयोग अनमोल है। मेरे किसी भी विषय को आपने ना नहीं कहा। उदाहरणार्थ, संघ सम्बंधित ग्रंथ-निर्मिति का कार्य ‘विवेक’ ने शुरू किया। चारों ओर से उसकी आलोचना होने लगी। यही कि, ‘क्या विवेक संघ को बेचने वाला है? अब तो विवेक संघ प्रचारकों को बेचना शुरू कर देगा। प्रचारकों की तपस्या और त्याग का व्यापार शुरू किया है’ इत्यादि इत्यादि…. ये सारी बातें ठेस पहुंचाती थीं। वरिष्ठ कार्यकर्ता और ज्येष्ठ प्रचारक भी इस प्रकार की छींटाकशी करते थे। सुनने पर मुझे संभ्रम होता था कि हम जो काम कर रहे हैं वह सही है या नहीं? मुकुंद जी, मैं बाद में आपसे पूछता था, आप जो उत्तर देते वह भी बेजोड़ होता था। आपने कहा, ‘‘जो ऐसे प्रश्न करते हैं, उनसे तुम यह पूछो कि ‘विवेक’ चलाने के लिए मुझे सालाना ३५ लाख रूपये खर्च लगता है। ये पैसे कहां से और कैसे आएंगे? यह मुझे बता दो, मैं यह सब बंद करता हूं।’’ मुकुंदजी किसी भी समस्या की तरफ देखने का आपका दृष्टिकोण व्यावहारिक ही होता था।

मुकुंदजी, राजनीति आपका विषय नहीं था, आप वैसा स्वभाव भी नहीं रखते थे। मैं अनेक ज्येष्ठ कार्यकर्ताओं को जानता हूं जो राजनीति में रूचि रखते हैं। उनके कई किस्से मैं जानता हूं। संघ की विचारधारा को ध्यान में रखकर ही आप राजनीति पर पैनी नज़र रखते थे। प्रमोद महाजन, गोपीनाथ मुंडे, नीतिन गडकरी, एकनाथ जी खडसे इत्यादि ज्येष्ठ भाजपा नेताओं से आप घनिष्ठ संबंध रखते थे, पर इस बारे में आप किसी से कुछ कहते नहीं थे। भाजपा की राजनैतिक सफलता-असफलता किस प्रकार होगी इस बारे में आपका अंदाजा अलग, परंतु सही होता था। राजनीति में संघमूल्य-व्यवस्था का आग्रह सब को अच्छा नहीं लगता। कुछ लोगों को वह ठीक लगता भी है, पर कुछ लोगों को नहीं। ऐसे लोग बाद में मुकुंदजी को लेकर गलत सोचते थे कि वे मेरे विरोध में हैं, वे मेरा समर्थन नहीं करते, पर मुकुंदजी, आपने सिर्फ व्यक्ति के बारे में कभी नहीं सोचा; बल्कि कार्य और विचार को महत्वपूर्ण समझा। कोई अगर आपके बारे में ऐसा सोचे, तो वह आप पर अन्याय करने जैसा था।

मुकुंदजी, आपके अचानक चले जाने से वे सारे विषय खत्म हुए, जिनके बारे में मैं आपसे बात करना चाहता था। यह सच है कि सिर्फ व्यक्ति का विचार करने की संघ पद्धति नहीं, फिर भी संघकार्य को साकार रूप देने में आपका बड़ा योगदान है। बाबाराव भिडे, नानाराव पालकर, दामुअण्णा दाते, वसंतराव केलकर, नानाराव ढोबले, शिवराय तेलंग जैसे अनेकों की छाप महाराष्ट्र के संघकार्य पर है। सहकार क्षेत्र में अपनी सारी बैंक सुचारू रूप से कार्यरत है। उसमें आपका योगदान मुझे समझना था और लिखना भी था। महाराष्ट्र के विविध सेवाकार्य, सगरपुत्र संगठन, आयुर्वेद व्यासपीठ, सामाजिक समरसता मंच, जनजाति विकास परिषद जैसी कई संस्थाएं हैं जिन्हें सुचारू रूप से चलाने के लिए आपने  कष्ट किए।

आपके निधन का दुखद समाचार सुनकर कुछ समय के लिए सांसें थम सी गईं। जीवन में पहली बार कभी न भरी जा सकने वाली खाली जगह निर्माण हो गई। अब आपका प्रसन्न चेहरा और स्मित हास्य कभी दिखाई नहीं देगा। आपके द्वारा कहे गए अपनत्व के शब्द भी सुनाई नहीं देंगे। संघ कार्यकर्ता को केवल अपना दुख व्यक्त करने की स्वतंत्रता है। निरंतर शोक करते रहने की स्वतंत्रता उसे नहीं है। उसका कोई उपयोग भी नहीं है। जिन संघ मूल्यों को लेकर आपने अपना सारा जीवन व्यतीत किया और ‘कार्यमग्नता ही जीवन, मृत्यु ही विश्रांति’ इस उक्ति को चरितार्थ किया, यही हमारे मार्गदर्शक होंगे। आपने संघरथ को एक स्तर तक पहुंचाया है। इसे यहां से आगे ले जाने का कार्य सभी को मिलकर करना है। प्रचारक के रूप में आपका जीवन निस्वार्थ, अहंकारहीनता का आदर्श था। कार्य की तह तक समाये हुए ये बीज हैं। इस बीज में आगे अंकुर फूटेंगे तथा जिस ध्येय, जिस स्वप्न के लिए आप जिए वह पूर्ण होंगे; यह मेरा विश्वास है।

 

Tags: hindi vivekhindi vivek magazinepersonapersonal growthpersonal trainingpersonalize

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