अपने अंतिम भाषण में श्री गुरुजी ने संदेश दिया था, ’सर्वत्र विजय ही विजय है।’ विजया एकादशी को जन्मे इस महापुरुष ने चिर विजयी राष्ट्र के लिए अपने जीवन को ही होम कर दिया। घोर तपस्या की। इस तपस्या का पुण्य प्रभाव याने आज का राष्ट्र जागृत भारत है।
हिंदू पंचांग के अनुसार विजया एकादशी यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूजनीय श्री गुरु जी का जन्मदिवस है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार उस दिन यह तारीख सन 19 फरवरी 1906 थी। अतः अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार परम पूजनीय गुरु जी की जन्म तारीख 19 फरवरी मानी जाती है। इस वर्ष विजया एकादशी 27 फरवरी को है। इस एकादशी (ग्यारस) का महत्व बहुत अधिक है। पौराणिक कथा के अनुसार श्री राम ने रावण पर विजय प्राप्ति हेतु विजया ग्यारस का व्रत किया था। श्री गुरु जी का जन्म विजया एकादशी को ही हुआ था। सर्वप्रथम मैं इस महापुरुष को विनम्र अभिवादन करता हूं।
श्री गुरुजी संन्यासी थे। संन्यासी परंपरा के अनुसार व्यक्तिगत जीवन में किसी भी प्रकार की कीर्ति संपादन करने का उनके जीवन का उद्देश्य नहीं था। संन्यासी स्वत: का श्राद्ध स्वत: ही करता है। श्री गुरु जी ने भी वैसा ही किया था। उनका जन्म विजय के लिए ही हुआ था इसलिए यह विजय (जीत) किस पर और किसकी जीत, इसका विचार करना होगा।
श्री गुरु जी का जन्म हिंदू संस्कृति, हिंदू तत्व ज्ञान तथा हिंदू जीवन पद्धति की विजय के लिए हुआ था। सरसंघचालक के रूप में उन्होंने अपने 33 वर्ष के कार्यकाल में दो बार संपूर्ण देश का भ्रमण किया। स्वयंसेवकों और समाज को संबोधित करते हुए उन्होंने सैकड़ों भाषण दिए। इन भाषणों में उन्होंने हम हिंदू हैं यानी क्या है? हमारी वैचारिक विरासत क्या है? हमारी जीवन पद्धति कैसी है? उसे हमें क्यों स्वीकार करना चाहिए? यह सब सीधी, सरल और तार्किक भाषा में अनेक उदाहरण देकर समझाया।
यह सब उन्हें क्यों करना पड़ा? तो इसका कारण था कि जिस हिंदू समाज के सामर्थ्य के आधार पर उन्हें विजय प्राप्त करनी थी वह हिंदू समाज आत्म विस्मृत हो गया था। हजारों सालों की दासता के कारण हिंदू समाज की अस्मिता क्षीण हो गई थी। सियारों के झुंड में पले हुए सिंह के शावक के समान वह स्वतः को सियार समझने लगा था। हिंदू समाज को उसका सिंह रूप दिखाने का काम श्री गुरु जी ने अथक रूप से किया। श्री गुरु जी ने एक यज्ञ किया, उसे ’हिंदू समाज जागृति यज्ञ’ कहा जा सकता है।
हम हिंदू संगठन का काम करते हैं, वह किस लिए? इस प्रश्न का उत्तर संघ विरोधियों ने अपने-अपने प्रकार से दिया। हिंदू संगठन मुसलमानों के विरोध में है, दलितों के विरोध में है, ईसाइयों के विरोध में है, ऐसी अजीब खोजे लोगों ने की। इन पर कई किताबें लिखी गई। श्री गुरुजी द्वारा कहे गए शब्दों-वाक्यों को तोड़ मरोड़ कर अपने स्वत: का विकृत विचार सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया। इस सब लेखन की ’विकृत साहित्य’ के रूप में गणना की जाएगी। वह कालखंड अब शुरू हो गया है।
इस प्रकार के वाद-विवाद में श्री गुरु जी पड़ते ही नहीं थे। उससे वे प्रभावित भी नहीं होते थे। उन्होंने हिंदुत्व का अनुभव लिया था इसलिए वे उनके द्वारा अनुभव किया हुआ हिंदुत्व का ज्ञान लोगों के सामने प्रकट करते थे। यह ज्ञान सत्य और शाश्वत होने के कारण इस ज्ञान पर आक्षेप लेने वाले के अज्ञान के कारण धीरे-धीरे अर्थहीन और संदर्भहीन होते जा रहे हैं।
हम हिंदू संगठन क्यों करते हैं? उसका वैश्विक लक्ष्य क्या है? इस की प्रस्तावना श्री गुरु जी ने अत्यंत प्रखर रूप से की है। जिस समय उन्होंने यह विषय समाज के सामने रखा, उस समय विश्व में अलग-अलग राष्ट्रों का उदय हुआ था। यह राष्ट्र केवल स्वतः का स्वार्थ ही देखते थे और जहां स्वत: का स्वार्थ है, वहां स्वार्थों का टकराव भी अवश्यंभावी है। इसी टकराव के कारण प्रथम महायुद्ध हुआ। उससे अधिक भयानक द्वितीय महायुद्ध हुआ और आज विश्व तीसरे महायुद्ध की कगार पर आकर खड़ा है। परमाणु बम का विध्वंस विश्व ने देखा है और यदि तीसरे महायुद्ध में परमाणु बम का उपयोग हुआ तो उसमें मानव जाति की बहुत बड़ी हानि होगी। श्री गुरुजी ने यह बातें स्पष्ट रूप से बताई थी।
इसी समय विश्व में एक नया विचार सामने आया। मानव जाति एक है, उसके सुख का विचार करना चाहिए। राष्ट्रवाद एक संकुचित भावना है, वह संघर्ष को जन्म देती है इसलिए उसका त्याग करना चाहिए। यह कम्युनिस्ट विचारधारा है। यह राष्ट्रवाद को घातक बताती है। हमें अंतरराष्ट्रीय बनना चाहिए ऐसा कहती है। हमारे यहां भी ’जय जगत’ का नारा दिया गया। हमें वैश्विक बनना चाहिए, हिंदू- मुसलमान-क्रिश्चियन इत्यादि नहीं। मानव मूल्य और मानवाधिकार सर्वश्रेष्ठ हैं। हमारी प्रतिबद्धता उसके साथ होनी चाहिए।
उदात्त विचार सुनने में हमेशा बहुत अच्छे लगते हैं परंतु उनको प्रत्यक्ष अमल में कैसे लाया जाए? अमल में लाने का मार्ग कौन सा हो? इन प्रश्नों के उत्तर प्रत्येक इजम (विचार) वाला अपने-अपने इजम के अनुसार देता है। गांधीवादी कहेगा, सेना बर्खास्त कर देनी चाहिए। इस्लाम का मुल्ला सबको मुसलमान होने को कहेगा। ईसाई कहेगा कि सबका बपतिस्मा होना चाहिए। कम्युनिस्ट कहेंगे की सबको कम्युनिज्म को स्वीकार करना चाहिए। और फिर, प्रत्येक इजम को मानने वाले लोग अपना-अपना विचार विश्व पर लादने का प्रयास करते हैं।
इतिहास में बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। दूसरा महायुद्ध समाप्त होने के बाद शीत युद्ध (कोल्ड वार) का जन्म हुआ। विश्व का विभाजन कम्युनिस्ट और लोकतंत्रिय क्रिश्चियन गुट में हुआ। अपनी-अपनी जीवन पद्धति विश्व पर लादने के दोनों ओर से जबरदस्त प्रयत्न हुए। नए-नए संहारक शस्त्रों का निर्माण हुआ। धरती, पानी, आकाश और अंतरिक्ष से युद्ध करने की तैयारी शुरू हुई। सब मानव एक हैं, विश्व में सुख शांति होनी चाहिए, ये विचार कब्र में गाड़ दिए गए। श्री गुरुजी ने अपनी भाषा में इस वस्तुस्थिति का अत्यंत स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है।
श्री गुरुजी का कहना है कि, ऐसे संघर्षमय और संहारक विश्व को केवल हिंदू विचार ही पार लगा सकता है क्योंकि यह विचार मानव का संपूर्ण रूप से विचार करता है। केवल मानव का ही विचार करता है ऐसा नहीं तो छोटे-छोटे जीव जंतुओं से लेकर संपूर्ण प्राणी मात्र का विचार करता है। हमारी प्रार्थना,
’ सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित् दु:ख भागभवेत।’ इस प्रकार है। पश्चिमी विचार ’अधिकतर लोगों के लिए अधिकतर सुख’ पर आकर रुक जाता है परंतु हम संपूर्ण विश्व के लिए सुख की कामना का विचार करने वाले हैं। ज्ञानदेव की प्रार्थना ‘पसायदान‘ इसका अप्रतिम उदाहरण है।
श्री गुरुजी प्रश्न करते हैं कि अधिकतर लोगों के लिए अधिकतर सुख में सुख की कल्पना क्या है? पश्चिमी जीवन पद्धति व्यक्ति सुख को सर्वाधिक महत्व देती है और इंद्रियों को जो प्रिय लगता है उसे ही सुख मानती है। इंद्रिय सुख देने वाले साधनों की निर्मिती करना, साधन प्राप्त करने के लिए छोटे-छोटे देशों की साधन संपत्ति पर कब्जा करना, उसकी लूटमार करना और उपनिवेशवाद का जन्म इसी से हुआ है। दूसरों को लूट कर स्वत: सुखी होना यह राक्षसी मार्ग है। श्री गुरुजी यह बताना नहीं भूलते हैं कि इन राक्षसी गुणों का वर्णन भगवान श्री कृष्ण ने भगवत गीता में किया है। साधन संपत्ति पर कब्जा करने की दौड़ में पहला और दूसरा महायुद्ध हुआ। शीत युद्ध का जन्म भी इसीलिए हुआ परंतु हमारा यह मार्ग नहीं है।
हमारा मार्ग कौन सा है, यह बताते हुए श्री गुरुजी कहते हैं कि संपूर्ण मानव जाति को सुखी करने के लिए हमारे पूर्वज चीन, जापान से लेकर अमेरिका तक भी गए थे। दक्षिण एशिया के लोगों को उन्होंने सुसंस्कृत बनाया। उन्हें मानव धर्म सिखाया, उनकी लूटमार नहीं की। उन्हें समृद्ध किया। इसके कारण आज भी अनेक मानव वंशों को भारत का आकर्षण है। भारत यह पवित्र भूमि है, इस भावना से वे भारत की ओर देखते हैं।
यह जो हमारी विरासत है, उसे हमें जतन करना है, समृद्ध करना है। मनुष्य यह केवल भौतिक आवश्यकताओं की गठरी ना होकर चैतन्य का एक आविष्कार है। वह एक ही चैतन्य सर्वव्यापी है और सर्व जीवन सृष्टि में समाया है। वह सभी मानव समूह में है। इस चैतन्य से हम सभी बंधे हैं। अफ्रीका का नीग्रो मनुष्य मेरे जैसा नहीं है। जापानी मनुष्य भी मेरे जैसा नहीं है परंतु चैतन्य रूप से हम सभी समान हैं, यह हिंदू विचार है। ऊपर-ऊपर दिखने वाले भेद, भेद ना होकर विविधता है। वह ईश्वर निर्मित है। उसका जतन किया जाना चाहिए। एकरूपता निर्माण करना यह कम्युनिज्म है। क्रिश्चियनिटी में उत्पन्न लोकतंत्र वाद का विचार है। हमारा विचार आध्यात्मिक है।
केवल विचार का प्रतिपादन करने से कोई नहीं सुनता, विचार को जीना पड़ता है। श्री गुरुजी का कहना था, यह विचार हमें अपने समाज जीवन में जीना चाहिए। हिंदू संगठन इसीलिए है। हिंदू विचार जीने वाले लोग एकत्रित खड़े हो यह संघ का लक्ष्य है। विचार जीने वाला समूह यही विचार का सामर्थ्य है। ऐसा सामर्थ्य संपन्न हिंदू समाज खड़ा करने के लिए श्री गुरुजी ने अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया।
उसके आज क्या सुपरिणाम दिखाई देते हैं? समाज में होने वाली घटनाओं का यदि बारीकी से निरीक्षण किया जाए तो अनेक बातें समझ में आती हैं। कल तक हिंदू शब्द से घृणा करने वाले बड़े-बड़े लोग अब कहने लगे हैं, ’हां, मैं हिंदू हूं, भारत में हिंदू राज्य की स्थापना करनी है।’ मैं हिंदू क्यों हूं? यह शशि थरूर को पुस्तक लिखकर बताना पड़ा। कोई एक मुस्लिम मौलवी अपने अस्मिता की पहचान होने के बाद हिंदुत्व को स्वीकार करता है। एकेडमिक क्षेत्र की बड़ी-बड़ी हस्तियां अब बताने लगी है कि आक्रामक आर्य यह सिद्धांत झूठा है। हमारे वेद ज्ञान के भंडार हैं। हमारी संस्कृत भाषा, भाषा शास्त्र की दृष्टि से विश्व की श्रेष्ठ भाषा है। इनमें से असंख्य लोग कभी संघ शाखा में नहीं गए। अचानक ये सब अपनी अस्मिता की खोज में क्यों लगे? इसका एक वाक्य में उत्तर है, श्री गुरुजी का तपस्वी जीवन। तप का प्रभाव वातावरण निर्माण करता है और उसकी लहरें कब और किस पर कैसा परिणाम करेंगी यह कहना मुश्किल है।
हिंदू जाति का यह वैश्विक लक्ष्य संघ स्वयंसेवक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विश्व पटल पर रख रहे हैं। विश्व ने उन्हें विश्व नेता के रूप में स्वीकार कर लिया है। उनके साथ रूस, चीन, अमेरिका जैसा राक्षसी सामर्थ्य नहीं है। विश्व को अभय देने वाला सांस्कृतिक सामर्थ्य है। विश्व पटल पर वे भारत का आध्यात्मिक विचार लेकर जाते हैं। श्री गुरुजी ने उस समय के संदर्भ में इन विचारों की प्रस्तावना कर रखी है। परिस्थिति बदलती है परंतु शाश्वत सिद्धांत नहीं बदलते।
आज की परिस्थिति के संदर्भ में श्री गुरु जी के शाश्वत विचार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विश्व पटल पर किस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, यह अभ्यास करने योग्य है।
(’लोक नेता से विश्व नेता: नरेंद्र मोदी’ विवेक के इस ग्रंथ का अवलोकन करें) नरेंद्र मोदी शरीर, मन, बुद्धि और आत्मतत्व के संतुलित विकास का योग मार्ग विश्व पटल पर ले गए हैं। इस वर्ष 173 देशों ने 21 जून यह दिन ’अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में मनाया।
मानवी जीवन सुखी होने के लिए पर्यावरण की रक्षा होनी चाहिए। पर्यावरण की रक्षा हेतु अपारंपरिक ऊर्जा स्रोतों का उपयोग किया जाना चाहिए। कोयला और खनिज तेल का उपयोग कम होना चाहिए। जंगलों और जीव सृष्टि की रक्षा की जानी चाहिए। विश्व मंच से नरेंद्र मोदी यह विचार प्रतिपादित करते रहते हैं। भारत इस संबंध में क्या कर रहा है, यह भी बताते हैं। इस संबंध में भारत विश्व की क्या सहायता कर सकता है, यह बताते हैं। विश्व सुखी होना चाहिए, इसके लिए मानव समूह को अच्छा स्वास्थ्य उपलब्ध होना चाहिए। कोरोना महामारी के संकट के दौरान भारत ने गरीब देशों को खुले दिल से दवाइयां दी हैं। ‘सर्वे संतु निरामया:‘ यह मंत्र इस प्रकार जीना पड़ता है।
विश्व संस्कृति संघर्ष की भाषा कहती है तो भारतीय संस्कृति समन्वय और सामंजस्य की भाषा कहती है। आतंकवाद असहिष्णु विचारों से जन्म लेता है इसलिए विश्व को ‘जियो और जीने दो‘, ‘दूसरों में अच्छाइयां खोजो‘ इस मार्ग से मार्गक्रमण करना चाहिए। अत्यंत कुशलता से मोदी जी इस बात का प्रतिपादन करते हैं। मोदी के शब्दों के पीछे यह सामर्थ्य हिंदू समाज ने खड़ा किया है। श्री गुरुजी का निधन 1973 में हुआ। तब तक हिंदू जीवन जीने वाली एक मजबूत पीढ़ी श्री गुरुजी खड़ी कर चुके थे। 1973 से 2014 के कालखंड में इस पीढ़ी का प्रचंड विस्तार हुआ। हमें सर्वत्र विजय प्राप्त करना है, इस आकांक्षा से भरे हुए हजारों युवा खड़े हुए। उन्होंने जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में प्रवेश किया और हिंदू जीवन दर्शन के आधार पर राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के काम में वे अग्रसर हुए। इससे हिंदू विचार जीने वाली एक शक्ति देश में निर्माण हुई। राजनीतिक क्षेत्र में नरेंद्र मोदी इस शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं।
अपने अंतिम भाषण में श्री गुरुजी ने संदेश दिया था, ’सर्वत्र विजय ही विजय है।’ विजया एकादशी को जन्मे इस महापुरुष ने चिर विजयी राष्ट्र के लिए अपने जीवन को ही होम कर दिया। घोर तपस्या की। इस तपस्या का पुण्य प्रभाव याने आज का राष्ट्र जागृत भारत है।