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मादक, परंतु घातक मुफ्तखोरी का नशा

मादक, परंतु घातक मुफ्तखोरी का नशा

by हिंदी विवेक
in देश-विदेश, मई-२०२२, विशेष, सामाजिक
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मुफ़्त का शब्द बेशक सुख देता हो, पर इसकी अति बहुत खराब है। दुनिया के अनेक देश जनता को प्रभावित करने के लिए टैक्स घटाने और मुफ़्त बांटने का दंड भोग रहे हैं। भारत में भी कुछ राजनीतिक दलों के कुचक्र का असर दिखाई देने लगा है। वोटों के लालच में भारत के राज्य फ्री फ्री के जाल में फंसकर केंद्र और बैंकों से लिया गया धन वापस लौटाने की स्थिति में नहीं हैं। ये हालात काफी खतरनाक हद तक पहुंचने वाले हैं। जनता को मुफ्त बांटकर वोट बटोरने का यह सिलसिला यदि यूं ही चलता रहा तो भारत का आगे बढ़ना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

श्रीलंका के बाद लेबनान भी दिवालिया हो गया… लोगों के पैसे बैंकों में पड़े हैं पर सरकार ने पैसे निकालने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। श्रीलंका में हालात हद से ज्यादा बद्तर हैं और बच्चों को पीने के लिए दूध तक नसीब नहीं हो रहा। इतनी भीषण गर्मी में 4 से 5 घण्टे बिजली आ रही है, लोग पसीने से लथपथ हैं। श्रीलंका की तरह लेबनान में भी लाखों लोग सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं। श्रीलंका पर इतने कर्ज हैं कि उन्हें वह कभी भी नहीं चुका पाएगा। अंतरराष्ट्रीय विश्व मुद्रा कोष ने नए ऋण नहीं दिए तो श्रीलंका तबाह हो जाएगा।

सावधान, हम भारत में हैं जो खुद-ब-खुद मुफ़्त और कर्ज का मॉडल बन चुका है। राज्यों के पास केंद्र का 86 लाख करोड़ बकाया है। केंद्र को भी विश्व मुद्रा कोष का 30 लाख करोड़ चुकाना है। केंद्र के पास तो खैर अनेक साधन हैं, पर राज्यों के पास हाथ पसारने के अलावा और कुछ बाकी नहीं है। हाल में आपने देखा ही होगा कि मुफ़्त बांटने के लिए पास में चवन्नी न होने के कारण सत्ता संभालते ही भगवंत मान दिल्ली पहुंच गए और बड़ी बेशर्मी से सीधे 50 हजार करोड़ मांग लिए। आश्वासन तो मिल ही गया होगा। आज नहीं तो कल पैसा मिल भी जाएगा, पर चुकाएगा कौन?

वैसे मुफ़्त-मुफ़्त का चक्रम आज का नया नहीं है। स्वस्थ देश को बीमारू  देश बनाने की शुरुआत किसानों का कर्ज माफ कर इंदिरा गांधी ने की थी। फिर तो कर्जमाफी प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का प्रिय शग़ल बन गई। कांग्रेस के जमाने में चहेते उद्यमियों को बैंकों से मोटे ऋण दिलाने और फिर बदले में उद्यमियों से मोटे चंदे लेने का सिलसिला शुरू हुआ। देखते ही देखते यह रोग सारे देश में फैल गया। दक्षिणी राज्यों में करुणानिधि और जयललिता ने चुनाव को मुफ्त के वादों से जोड़ा, घर-घर टीवी और सिलाई मशीनें बांटी। मुफ़्त वादों का यह रोग फैलते-फैलते सारे देश में फैल गया।

फिर क्या था। देश के सभी राज्य मुफ़्त पर उतर आए। प्रदर्शन कर ऋण माफ कराना तो देशभर के किसानों का अधिकार बन गया। कोई पार्टी इसमें पीछे नहीं। बेशक केजरीवाल ने मुफ़्त की फितरत को आम लोगों तक पहुंचा दिया। फल यह मिला कि दिल्ली में तीन बार सरकार बन गई, केंद्र का कर्जा न चुकाया गया। राजनीतिक दलों के इस कर्ज माफी नशे ने देश के बैंकों को दिवालिया कर दिया। बैंकों ने सरकारों के कहने पर ऋण तो माफ कर दिए पर खुद बर्बाद हो गए।

नतीजा यह हुआ कि बैंकों को लाखों करोड़ के घाटे से उबारने के लिए केंद्र को बैंकों का विलय करना पड़ रहा है। एयर इंडिया को बेचना पड़ रहा रहा है। कईं सरकारी उद्यम निजी क्षेत्र को बेचने की तैयारी है। बहुत सारा काम आरक्षण दर आरक्षण की नीतियों ने कर दिया। यह खतरनाक है। भारत बहुत बड़ा देश है। भारत के पास बहुत विशाल बॉर्डर है। जाहिर है बहुत बड़े खर्च हैं। श्रीलंका का आज जो हाल हो रहा है उसके पीछे भी लगातार टैक्स घटाना और मुफ़्त मुफ़्त ही कारण है। श्रीलंका और लेबनान से पहले वेनेजुएला और ब्राजील जैसे देशों का भी यही हाल हो चुका है। आवश्यकता है कि भारत श्रीलंका की बर्बादी से तत्काल सबक ले और मुफ़्त मुफ़्त से माफी मांग ले। सचमुच कर्ज के इस तरह बेतहाशा बढ़ने के पीछे राजनैतिक दलों की मक्कारियां है। कमोबेश सभी दल इसके लिए जिम्मेदार हैं।

                                                                                                                                                                                          कौशल सिखौला

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