15 जून 1876, शुक्रवार का दिन। उदयपुर से लगभग 40 किलोमीटर दूर रक्त तलाई में दो सेनाएं आमने-सामने खड़ी थीं। एकतरफ हिंदुस्तान के बादशाह की लगभग एक लाख की फौज थी तो दूसरी तरफ हिंदुस्थानी संस्कृति की ध्वजा सम्भाले स्वयं सिसोदिया वंशी प्रताप सिंह थे, अपनी प्रजा के महाराणा। हल्दीघाटी की लड़ाई के नाम से प्रसिद्ध यह युद्ध आज किंवदंती बन चुका है। उसके नायक महाराणा प्रताप ने आने वाली पीढ़ियों को बता दिया कि बड़ी से बड़ी सल्तनतें झुकती हैं, बस आपके पास हौसला होना चाहिए और उसे सही साबित करने वाले संगी। फिर चाहे वह आपका घोड़ा चेतक ही क्यों न हो।
9 मई 1540 को कुम्भलगढ़ में पैदा हुए महाराणा प्रताप में चित्तौड़ की प्रजा उनके दादा राणा सांगा और महाराणा कुम्भा की छवि देखती थी। इसलिए उदयसिंह की मृत्यु के बाद 1572 में वे गद्दी पर बिठाए गए जबकि उदयसिंह अपनी सबसे छोटी रानी धीरबाई भटियाणी के बेटे जगमाल सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे।
इधर दिल्ली में अकबर दिन-ब-दिन शक्तिशाली हो रहा था। बैरम खां की शागिर्दी से बाहर निकलकर अपनी स्वतंत्र छवि बनाने के साथ ही साथ राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता भी पा चुका था। अकबर के लिए मेवाड़ दोहरा महत्त्व रखता था। पहला कारण था कि सिसोदिया राजपूतों के मित्र या यूं कहें कि अधीन हो जाने पर पूरे राजपूताने और आर्यावर्त में उसकी धाक जम जाती। दूसरा और थोड़ा कम महत्वपूर्ण कारण था मेवाड़ के जंगली इलाके से गुजरात के लिए सुरक्षित और आसान संचार व्यवस्था का निर्माण करना।
बाबर के भारत पर हमले से ही मेवाड़ के सिसोदिया राजाओं और मुगलों के बीच के बीच शत्रुता चल रही थी। राणा सांगा को बाबर के हाथों खानवा में हार का सामना करना पड़ा था और उदय सिंह को अकबर के हाथों चित्तौड़ गंवाना पड़ा था। मेवाड़ का प्रत्येक सिसोदिया सरदार जानता था कि भविष्य में भी मुगलों से युद्ध सम्भव है।
महाराणा प्रताप के सत्ता संभालने के चार साल बाद आखिरकार दोनों सेनाएं आमने-सामने आ ही गई। अकबर दिल्ली से चलकर अजमेर आया। उसने महाराणा प्रताप के खिलाफ युद्ध लड़ने के लिए मान सिंह के नेतृत्व में एक बड़ी सेना गोगुंदा की तरफ रवाना की। इस सेना ने राजसमंद के मोलेला में अपना डेरा डाला। दूसरी तरफ महाराणा प्रताप के नेतृत्व में मेवाड़ की सेना लोशिंग में डेरा डाले हुए थी। संख्या बल के हिसाब से महाराणा की स्थिति कमजोर थी। कहा जाता है कि दोनों सेनाओं में 1 और 4 का अनुपात था। अर्थात् मेवाड़ के एक सैनिक पर मुगलों के 4 सैनिक। मुगल सेना गोगुंदा के किले पर कब्जा करने की फिराक में थी।
मोलेला और लोशिंग के बीच एक घाटी पड़ती थी, जिसे आज हल्दीघाटी कहा जाता है। महाराणा प्रताप के एक प्रमुख सहयोगी ग्वालियर के राम सिंह तंवर ने संख्याबल की कमी से निपटने के लिए सुझाव दिया कि राजपूतों को हल्दी घाटी के दर्रे में युद्ध लड़ना चाहिए ताकि संख्या बल के असंतुलन से निपटा जा सके। वह दर्रा इतना संकरा था कि एक साथ दो गाड़ी तक नहीं निकल सकती थीं।
इस युद्ध के परिणाम को लेकर इतिहासकार अपने-अपने तर्क रखते हैं पर यह ध्रुव सत्य है कि युद्ध के बाद महाराणा प्रताप लगातार जमीन के पट्टे जारी करते रहे और इस युद्ध के छह साल के भीतर ही राणा ने भामाशाह की मदद से 40 हज़ार घुड़सवारों की नई सेना खड़ी कर ली। 1582 में महाराणा प्रताप और उनके बेटे कुंवर अमर सिंह के नेतृत्व में मेवाड़ की सेना ने दीवेर के मुगल थाने पर हमला बोल दिया। इस हमले में मुगलों को बुरी तरह पराजित होना पड़ा। देखते ही देखते उन्होंने कुम्भलगढ़, गोगुंदा और उदयपुर पर वापस अपना अधिकार कर लिया परंतु वे अपने अंतिम तक चित्तौड़ पर अधिकार नहीं कर सके। अतः उन्होंने पुत्र अमर सिंह तथा अपने वीर सरदारों से अपनी अन्तिम इच्छा प्रकट की। उन्होंने अपने पुत्र और सरदारों से प्रतिज्ञा कराई कि, “जब तक चित्तौड़ का उद्धार नहीं हो जायेगा तब तक चैन से नहीं बैठेंगे।” इस प्रतिज्ञा के कर लेने के तुरन्त बाद आपने सन् 1597 में 56 वर्ष की आयु में सदा-सदा के लिए आंखें बन्द कर लीं।
स्वतंत्रता एवं सार्वभौमिकता के लिए संघर्ष के साथ साथ महाराणा प्रताप का अन्य विविध क्षेत्रों में भी पर्याप्त योगदान रहा। प्रताप ने युद्धों में दिवंगत वीरों के उत्तराधिकारियों के पुर्नवास के लिए अपूर्व प्रयास कर मानवाधिकारों के संरक्षण का आदर्श स्थापित किया। उन्होंने राष्ट्रप्रेम, सर्वधर्म सद्भाव, सहिष्णुता, करुणा, स्वाधीनता के लिए युद्ध, नीतिगत आदर्शों की पालना, मानवाधिकारों की सुरक्षा, स्त्री सम्मान, पर्यावरण एवं जल संरक्षण सर्वसामान्य को आदर तथा साहित्य एवं संस्कृति के प्रति सम्मान में बहुत योगदान दिया तथा विश्ववल्लभ और व्यवहार आदर्श जैसे दो ग्रथों की रचना भी करवाई। उन्होंने देश की सम्रद्धि बनाए रखने के लिए प्रताप ने धातुओं की खदानों की सुरक्षा की ओर प्रमुखता से ध्यान दिया। महाराणा की समाधि चावंड के निकट बान्डोली गांव में है।