कालपी: स्वाधीनता संग्राम के संचालन का मुख्य केंद्र

1857 का स्वाधीनता संग्राम देश के अधिकांश भागों में लड़ा गया था; पर दुर्भाग्यवश यह सफल नहीं हो सका। इसके संचालन का मुख्य केन्द्र उत्तर प्रदेश में कालपी नगर था। वहाँ यमुना नदी की ऊँची कगार पर बने दुर्ग में इस क्रान्ति का नियन्त्रण कक्ष था। दुर्ग के एक भूमिगत कक्ष में हथियार बनाये जाते थे। क्रान्तिवीरों का कोषागार भी यहीं था। नानासाहब से मन्त्रणा के लिए रानी लक्ष्मीबाई, कुँवरसिंह तथा अन्य लोग यहाँ आते रहते थे।

उन दिनों तात्याटोपे नानासाहब के सेनापति थे। उन्होंने बुन्देलखंड के सब राजे-रजवाड़ों को पत्र भेजकर अपनी सेनाएँ कालपी भेजने का आग्रह किया। पत्र में लिखा था कि इस संघर्ष का उद्देश्य किसी को गद्दी पर बैठाना नहीं अपितु विभिन्न राजाओं के क्षेत्र को अंग्रेजों से बचाना है। बाबा देवगिरी को यह पत्र लेकर सब जगह भेजा गया।

धीरे-धीरे सेनाएँ एकत्र होने लगीं। जालौन के तहसीलदार नारायण राव ने कार्यालय तथा मुहम्मद इशहाक ने भोजन आदि की व्यवस्था सँभाली। नाना साहब के भाई बालासाहब तथा भतीजे राव साहब भी आ गये। सबने यमुना का जल हाथ में लेकर अन्तिम साँस तक संघर्ष करने का संकल्प लिया।

दुर्ग में तोपों की ढलाई होने लगी। जालौन ने आये कसगरों ने स्थानीय शोरा, कोयला तथा मिर्जापुर से प्राप्त गन्धक से बारूद और बम बनाये। जिले में अंग्रेजों का प्रवेश रोकने के लिए यमुना में चलने वाली 200 नौकाओं का नियन्त्रण क्रान्तिकारियों ने अपने हाथ में ले लिया। अब वहाँ 10,000 सैनिक तथा 12 तोपें युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार थीं। कालपी के लोग इन्हें बहुत मानते थे। वे स्वेच्छा से उनका स्वागत-सत्कार करते, उन्हें बैलगाडि़याँ देते तथा डाकियों से अंग्रेजी डाक छीनकर दुर्ग में पहुँचा देते थे।

अपै्रल मास में रानी लक्ष्मीबाई झाँसी में पराजित होकर कालपी आ गयीं। सर ह्यूरोज के नेतृत्व में अंग्रेज सेना उनके पीछे लगी थी। उन्हें रोकने के लिए कोंच में मोर्चा लगाया गया। सात मई, 1858 को वहाँ हुए भीषण संघर्ष में 500 क्रान्तिकारी बलिदान हुए। इसके बाद सब लौटकर फिर कालपी आ गये। नाना साहब ने अब निर्णायक संघर्ष की तैयारी प्रारम्भ कर दी।

क्रांतिकारियों ने 84 गुम्बज नामक भवन से यमुना तक खाइयाँ खोदकर सब मार्ग काट दिये। यमुना के इधर क्रान्तिकारी तो दूसरी ओर गुलौली में अंग्रेज तैयार थे। ह्यूरोज ने 22 मई को 20 घण्टे तक लगातार दुर्ग पर गोले बरसाये। क्रान्तिकारियों की तैयारी कम थी, पर हिम्मत नहीं। भारी संघर्ष के बाद 23 मई, 1858 की प्रातः ब्रिटिश सेना कालपी में घुस गयी।

युद्ध में बड़ी संख्या में क्रान्तिवीर बलिदान हुए। यमुना की धारा रक्त से लाल हो गयी। दुर्ग में अंगे्रजों को नानासाहब और लक्ष्मीबाई का महत्वपूर्ण पत्र-व्यवहार, छह हाथी, तोप, गोले, 500 बैरल बारूद, ब्रासगन, मोर्टार, ब्रास पाउडर गन, 9,000 कारतूस तथा भारी मात्रा में पारम्परिक शस्त्र मिले।

अंग्रेजों की इच्छा महत्वपूर्ण नेताओं को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने की थी; पर दुर्ग में बने गुप्त मार्गों से नानासाहब, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई आदि सुरक्षित निकल गये। आज भी यह दुर्ग जर्जर अवस्था में उस युद्ध की याद दिलाता है। दुर्ग की दीवारें नौ फुट मोटी तथा छत गुम्बद आकार में है। तोपों की मार से इसका अधिकांश भाग ढह गया था; पर केन्द्रीय कक्ष, किला घाट, मन्दिर तथा यमुना तक जाने वाली सीढि़याँ अभी बाकी हैं।

संकलन – विजय कुमार 

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