इतिहास के पाठ्यक्रम में परिवर्तन क्यों आवश्यक

एक ओर यहूदियों पर किए गए बर्बर अत्याचार के कारण आज जर्मनी में हिटलर का कोई नामलेवा भी नहीं बचा है, पूरा यूरोप एवं अमेरिका ही यहूदियों पर अतीत में हुए अत्याचार के लिए प्रायश्चित-बोध से भरा रहता है, वहीं दूसरी ओर भारत में आज भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिन्हें गोरी, गज़नी, ख़िलजी, तैमूर जैसे आतताइयों-आक्रांताओं पर गर्व है, उन्हें उनके नाम पर अपने बच्चों के नाम रखने में कोई गुरेज़ नहीं।

किसी भी उदार, जीवंत एवं गतिशील समाज में वांछित एवं युगीन परिवर्तन की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। शिक्षा परिवर्तन की सहज संवाहिका होती है। शिक्षा के माध्यम से ही कोई भी राष्ट्र या समाज अपने आदर्शों-आकांक्षाओं, स्वप्नों-संकल्पों को मूर्त्त एवं साकार करता है। राष्ट्रीय हितों एवं युगीन सरोकारों की पूर्त्ति का सबसे समर्थ व सक्षम माध्यम ही शिक्षा है। परंतु दुर्भाग्य से कई दशकों तक देश की सत्ता-व्यवस्था को नियंत्रित करने वाली शक्तियों ने शिक्षा को वांछित परिवर्तन का वाहक बनाने के बजाय दल एवं विचारधारा-विशेष के प्रचार-प्रसार का उपकरण बनाकर रख दिया। शैक्षिक संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों के शीर्ष पदों पर निष्पक्ष, योग्य एवं अनुभवी विद्वानों-विशेषज्ञों के स्थान पर दल एवं विचारधारा-विशेष के प्रति झुकाव एवं प्रतिबद्धता रखने वालों को अधिकाधिक वरीयता दी गई, परिणामतः संपूर्ण शिक्षा, कला एवं साहित्य-जगत ही वैचारिक ख़ेमेबाजी एवं पृष्ठ-पोषित पूर्वाग्रहों का अड्डा बनता चला गया। इतिहास, सामाजिक विज्ञान एवं साहित्य की पाठ्य-पुस्तकों एवं पाठ्यक्रमों में चुन-चुनकर ऐसी विषय-सामग्री संकलित की गईं, जो हीनता की ग्रंथियां अधिक विकसित करती हैं तथा स्वत्व और स्वाभिमान की भावना कम। इतिहास-लेखन एवं सामग्रियों के संकलन में पारंपरिक स्रोतों, प्राचीन शास्त्रों-वेदों-पुराणों-महाकाव्यों, उत्खनन से प्राप्त साक्ष्यों-सामग्रियों तथा तमाम तथ्यों की घनघोर उपेक्षा की गई। लोक साहित्य एवं लोक स्मृतियों को ताक पर रख दिया गया। आक्रांताओं या उनके आश्रय में रहे व्यक्तियों-यात्रियों द्वारा लिखे गए विवरणों को ही इतिहास का सबसे प्रामाणिक स्रोत या आधार मानकर मनमानी व्याख्याएं की गईं, मनचाही स्थापनाएं दी गईं। तर्कशुद्ध-तटस्थ चिंतन एवं वस्तुपरक विवेचन के स्थान पर पूर्व धारणाओं व मनगढ़ंत मान्यताओं को इतिहास की सच्ची घटनाओं की तरह प्रस्तुत एवं महिमामंडित किया गया। और उलटा चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज़ पर वामपंथी एवं तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा परिवर्तन की हर पहल व प्रयास पर ही नहीं, बल्कि पदचाप पर भी हंगामा व शोर बरपाया जाता रहा। ताजा हल्ला-हंगामा व शोर केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) द्वारा नवीं से बारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में आंशिक बदलाव किए जाने पर मचाया जा रहा है। दरअसल बोर्ड ने सत्र 2022-23 के लिए कक्षा 11वीं और 12वीं के इतिहास एवं राजनीतिशास्त्र के पाठ्यक्रम से गुटनिरपेक्ष आंदोलन, शीतयुद्ध-काल, अफ़्रीकी-एशियाई देशों में इस्लामिक साम्राज्य की स्थापना, उदय एवं विस्तार, मुगल दरबारों का इतिहास और औद्योगिक क्रांति से जुड़े अध्यायों को हटाने का निर्णय लिया है। इसी प्रकार कक्षा 10वीं के पाठ्यक्रम से “कृषि पर वैश्वीकरण के प्रभाव” नामक सामग्री भी हटा ली गई है। अभी तक यह ‘खाद्य सुरक्षा’ पाठ के अंतर्गत पढ़ाई जा रही थी। इसके साथ ही ‘धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्ष राज्य’ से फैज अहमद फैज की उर्दू में लिखी दो नज़्में भी हटाई गईं हैं। ‘लोकतंत्र और विविधता’ नामक अध्याय भी पाठ्यक्रम से हटा लिया गया है। गणित एवं विज्ञान के पाठ्यक्रम में से भी कुछ अध्याय हटाए गए हैं और कुछ जोड़े गए हैं।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की संस्तुतियों पर पाठ्यक्रम को अधिक युक्तिसंगत, समाजोपयोगी एवं वर्तमान की अपेक्षाओं एवं आवश्यकताओं के अनुरूप बनाने के लिए ये परिवर्तन किए गए हैं। पाठ्यक्रम को रोचक, रचनात्मक, ज्ञानवर्द्धक, बोधगम्य एवं प्रासंगिक बनाए रखने के उद्देश्य से ऐसे परिवर्तन पूर्व में भी किए जाते रहे हैं। और फिर इतिहास और सामाजिक विज्ञान से जुड़ी किताबें कोई आसमानी क़िताब या समाज-जीवन से नितांत निरपेक्ष एवं पृथक पाठ्य-पुस्तक तो हैं नहीं कि उनमें कोई परिवर्तन न किया जा सके! बल्कि अच्छा तो यही होगा कि विज्ञान एवं तकनीकी की सहायता से अब तक अदृष्टिपूर्व एवं अलक्षित ऐतिहासिक-पुरातात्त्विक स्रोतों, साक्ष्यों-तथ्यों आदि पर  गहन शोध एवं विशद अध्ययन कर नई-नई जानकारियों को सामने लाया जाय और उन्हें पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा बनाया जाय। उल्लेखनीय है कि 11वीं के इतिहास के पाठ्यक्रम में घुमंतू या खानाबदोश साम्राज्य (नोमेडिक एंपायर) 12वीं में ‘यात्रियों की नजरों से’ तथा ‘किसान, जमींदार और राज्य’ शीर्षक को जोड़ा गया है, वहीं राजनीतिशास्त्र में ‘समकालीन विश्व में सुरक्षा’ नामक अध्याय के अंतर्गत ’सुरक्षा : अर्थ और प्रकार, आतंकवाद’, ‘पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन’ अध्याय के अंतर्गत ‘पर्यावरण आंदोलन, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण’ तथा ‘क्षेत्रीय आकांक्षाएं’ के अंतर्गत ‘क्षेत्रीय दलों का उदय, पंजाब संकट, कश्मीर मुद्दा, स्वायत्तता के लिए आंदोलन’ जैसे शीर्षकों (टॉपिक्स) को सम्मिलित किया गया है। क्या इसमें भी कोई दो राय हो सकती है कि ये मुद्दे वर्तमान समय-समाज, प्रकृति-परिवेश तथा देश-दुनिया के हितों व सरोकारों से बहुत गहरे जुड़े हैं? सजग एवं प्रबुद्ध वर्ग ही नहीं, अपितु सामान्य समझ रखने वाला साधारण व्यक्ति भी सरलता से यह आकलन-विश्लेषण कर सकता है कि इन विषयों का अध्ययन-अनुशीलन शांति, सहयोग और सह-अस्तित्व पर आधारित जीवन-मूल्यों को विकसित करने में कितना सहायक है। क्या यह सत्य नहीं कि विविध विषयों के पाठ्यक्रमों में अपेक्षित सुधार एवं परिवर्तन की मांग दशकों से की जाती रही है, शिक्षा संबंधी सभी आयोगों एवं समितियों द्वारा इसकी संस्तुतियां की जाती रही हैं तथा अधिकांश शिक्षाविद भी इसके प्रबल पैरोकार रहे हैं?

सत्य यही है कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में व्यापक परिवर्तन समय की मांग है। वस्तुतः हमारा पूरा इतिहास-लेखन दिल्ली-केंद्रित है। वह आक्रांताओं के आक्रमणों, विजय-अभियानों, वंशावलियों तक सीमित है। मध्यकालीन एवं आधुनिक भारत का पूरा-का-पूरा इतिहास दिल्ली सल्तनत, मुगल वंश, ईस्ट इंडिया कंपनी, अंग्रेज लॉर्डों व सेनानायकों एवं स्वतंत्रता-आंदोलन के नाम पर कतिपय नेताओं के इर्द-गिर्द सिमटकर रह गया है। देश केवल राज्य, राजधानी और उस पर आरूढ़ सुलतानों-सत्ताधीशों एवं चंद चेहरों तक सीमित नहीं होता। उसमें उसकी भूमि, नदी, पर्वत, वन, उपवन और उन सबसे अधिक सर्व साधारण जन, उनके संघर्ष, सुख-दुःख आदि सम्मिलित होते हैं। परंतु जन-गण-मन की बात तो दूर, हमारी पाठ्य-पुस्तकों में मौर्य, गुप्त एवं मराठा साम्राज्य जैसे कतिपय अपवादों को छोड़कर शेष सभी भारतीय, मसलन – चोल, चालुक्य, पाल, प्रतिहार, पल्लव, परमार, मैत्रक, राष्ट्रकूट, वाकाटक, कार्कोट, कलिंग, काकतीय, सातवाहन, विजयनगर, मैसूर के ओडेयर, असम के अहोम, नगा, सिख आदि तमाम प्रभावशाली राज्यों व राजवंशों की चर्चा लगभग नगण्य है, जबकि इनके सुदीर्घ शासन-काल में अनेकानेक साधनसंपन्न-सुनियोजित नगर बसाए गए, लंबी-चौड़ी सड़कें बनवाईं गईं, सुविख्यात शिक्षण-केंद्रों की स्थापना की गई, विश्व के सांस्कृतिक धरोहरों में सम्मिलित होने लायक किलों-मठों-मंदिरों आदि के निर्माण कराए गए। क्या ऐसी सांस्कृतिक धरोहरों की जानकारी युवा पीढ़ी को नहीं दी जानी चाहिए? गंगा-जमुनी तहज़ीब के नाम पर जहां विदेशी-विधर्मी आक्रांताओं एवं शासकों की क्रूरताओं एवं नृशंसताओं पर आवरण डालने का एकपक्षीय-सुनियोजित प्रयास किया गया, वहीं पंथनिरपेक्षता की आड़ में अकबर, औरंगज़ेब, टीपू सुल्तान जैसे शासकों को कृष्णदेव राय, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, बाजीराव पेशवा से भी साहसी, महान, श्रेष्ठ एवं उदार बताने का संगठित-संस्थानिक अभियान चलाया जाता रहा।

यह देश के बहुसंख्यकों की पीड़ा को बारंबार कुरेदने जैसा है। लाखों-करोड़ों को मौत के घाट उतारने तथा मंदिरों-धर्मशालाओं-पुस्तकालयों का अकारण ध्वंस करने वालों का ऐसा निर्लज्ज महिमामंडन भारत के बहुसंख्यकों का ही नहीं, अपितु मानवता का भी घोर अपमान है। एक ओर यहूदियों पर किए गए बर्बर अत्याचार के कारण आज जर्मनी में हिटलर का कोई नामलेवा भी नहीं बचा है, पूरा यूरोप एवं अमेरिका ही यहूदियों पर अतीत में हुए अत्याचार के लिए प्रायश्चित-बोध से भरा रहता है, वहीं दूसरी ओर भारत में आज भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिन्हें गोरी, गज़नी, ख़िलजी, तैमूर जैसे आतताइयों-आक्रांताओं पर गर्व है, उन्हें उनके नाम पर अपने बच्चों के नाम रखने में कोई गुरेज़ नहीं, बहुधा वे उनसे आत्मीयता और जुड़ाव तथा अपने पास-पड़ोस एवं दुःख-सुख के दैनंदिन साझेदारों के प्रति दूरी एवं वैमनस्यता का भाव रखते हैं। सौहार्द्रता, सद्भावना एवं भाईचारे के निर्माण के मार्ग में असली बाधा सच्चे इतिहास का लेखन और विवरण नहीं, अपितु आतताइयों एवं आक्रांताओं पर गर्व करने की यही मध्ययुगीन मानसिकता है। जिस दिन सभी देशवासियों के भीतर राष्ट्र के शत्रु-मित्र, जय-पराजय, मान-अपमान, गौरव-ग्लानि, हीनता-श्रेष्ठता का सच्चा, सम्यक एवं संतुलित बोध विकसित हो जाएगा, उस दिन समाज के एक सिरे से दूसरे सिरे तक एकता, सहयोग एवं सौहार्द्र की भावना स्वयंमेव विकसित होती चली जाएगी। इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों के माध्यम से ही हर समुदाय को यह बारंबार बताना-समझाना होगा कि मज़हब बदलने से पुरखे नहीं बदलते, पूजा या उपासना-पद्धत्ति बदलने से संस्कृति नहीं बदलती, विश्वास बदलने से साझे सपने और आकांक्षाएं नहीं बदलतीं। इतिहास में अनेक ऐसे अवसर आए, जब पराजय की पीड़ा की साझी अनुभूति हुई, जब हर्ष एवं गौरव के साझे पल सजीव-साकार हुए। हमें राष्ट्र को सर्वोपरि मान, मज़हबी मत से ऊपर उठकर, निरपेक्ष भाव से अतीत के नायकों-खलनायकों पर पारस्परिक सहमति और असहमति बनानी पड़ेगी। यही नहीं, भारतीय राजाओं की गणना में चंद्रगुप्त, अशोक, विक्रमादित्य, हर्षवर्धन, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप, शिवाजी, बाजीराव पेशवा जैसे चंद नामों को छोड़कर शायद ही कुछ अन्य नाम हमें सहसा याद आते हों, जबकि बिंदुसार, पुष्यमित्र शुंग, कनिष्क, समुद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, महेंद्र शातकर्णी, गौतमीपुत्र शातकर्णी, महेंद्रवर्मन, नरसिंहवर्मन, मयूरवर्मन, रविवर्मा, कीर्तिवर्मन, राजाराजा चोल, राजेन्द्र चोल, नागभट्ट प्रतिहार, मिहिरभोज, हरिहर राय, बुक्क राय, खारवेल, कृष्णदेव राय, ललितादित्य मुक्तपीड, चेरामन पेरुमल, बप्पा रावल, महाराणा कुंभा, हम्मीरदेव चौहान, लाचित बोड़फुकन, सुहेलदेव जैसे एक-से-बढ़कर-एक पराक्रमी एवं महाप्रतापी राजाओं की वीरता एवं गौरवपूर्ण उपलब्धियों से भारतीय इतिहास भरा पड़ा है। इन सबको पाठ्यक्रम में सम्मिलित किए बिना न तो समग्र एवं संपूर्ण राष्ट्रबोध ही विकसित किया जा सकता है और न अपनी समृद्ध एवं वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक विरासत को ही समझा जा सकता है।

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