शिवसेना का यह हश्र ही स्वाभाविक परिणति है 

महाराष्ट्र की राजनीति की तस्वीर धीरे-धीरे चाहे जितना कुरूप हो रहा हो इसमें हैरत का कोई कारण नहीं है। अंकगणित की तस्वीर बिल्कुल साफ है। शिवसेना के अंदर उद्धव ठाकरे अल्पमत में है तथा ज्यादातर विधायक एकनाथ शिंदे के साथ हैं। इस समय की मुख्य तस्वीर यही है। इसके अनुसार उद्धव के नेतृत्व में महाविकास आघाडी की सरकार विधानसभा का बहुमत खो चुकी है । कोई अपनी सरकार आसानी से गंवाना नहीं चाहता और यही कोशिश उद्धव ठाकरे,  संजय राउत, शरद पवार और उनके अन्य साथी कर रहे हैं। इन कोशिशों में हमेशा सीमा का अतिक्रमण हुआ है और इससे महाराष्ट्र का वातावरण विषाक्त हो रहा है। थोड़ी भी गहराई से विचार करेंगे तो शिवसेना के अंदर एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में उद्धव ठाकरे और संजय राउत के विरुद्ध विधायकों का विद्रोह बिलकुल स्वाभाविक लगेगा। सामान्यतः सत्ता की राजनीति में पद मिलने न मिलने के कारण असंतोष और पाला बदलने या विद्रोह करने की घटनाएं ज्यादा हुई है। यह नहीं कहा जाता कि इसमें यह पहलू नहीं है। किंतु इसमें शिंदे सहित उनका साथ देने वाले ज्यादातर विधायकों ने विचारधारा का प्रश्न उठाया। उन्होंने एक ही शर्त रखी कि उद्धव कांग्रेस और राकांपा का साथ छोड़ भाजपा के साथ आएं । इनके अनुसार शिवसेना हिंदुत्व की राजनीति करने वाली पार्टी रही है और केवल भाजपा ही उसकी एकमात्र स्वाभाविक साझेदार हो सकती है। उद्धव इसे मानने को तैयार नहीं हुए तो फिर विभाजन निश्चित था।

वास्तव में केवल पद की लड़ाई होती तो मामला निपट गया होता। उद्धव ठाकरे ने स्वयं अपनी लाइव अपील में कहा कि मैं मुख्यमंत्री से शिवसेना प्रधान सारे पद छोड़ने को तैयार हूं, आप लोग लौट आइए, बैठ कर बात करते हैं। इतनी भावुक अपील का भी विधायकों पर कोई असर नहीं हुआ। मुख्यमंत्री निवास वर्षा से निकलकर मातोश्री आना भी भावनात्मक रूप से लोगों का दिल जीतने और उनको वापस लाने की कोशिश थी। स्वयं संजय राउत  अपने स्वभाव के विपरीत विनम्र भाषा में अपील करते रहे। सारी कोशिशें विफल होने के बाद डराने धमकाने और औकात दिखाने वाला तेवर सामने आया। बावजूद शिंदे और उनके साथ के विधायक अपनी जगह कायम रहे तो फिर इसे सामान्य  विघटन नहीं माना जा सकता है। शिंदे के साथ जितने विधायक सूरत में थे उनसे ठाकरे के दूत के रूप में मिलिंद नार्वेकर मिले। उन्होंने शिंदे की उद्धव ठाकरे तथा उनकी पत्नी से फोन पर बातचीत भी कराई। उसमें भी शिंदे ने यही कहा कि आप भाजपा के साथ आ जाइए हम वापस आ जाएंगे। 25 मिनट की इस बातचीत की जितनी सूचना बाहर आई उसके अनुसार शिंदे ने कहा कि हिंदुत्व से अलग होने के कारण कार्यकर्ताओं और समर्थकों में जगह-जगह असंतोष है। राकांपा और कांग्रेस की नीतियों पर चलने के कारण हमारा जनाधार खत्म हो रहा है।

जाहिर है, इसमें और भी बातें सामने आई होंगी। ठाकरे ने तब भी उनको जो पद चाहे लेने का ऑफर दिया लेकिन शिंदे ने कहा कि वह स्थिति खत्म हो चुकी है। साफ है कि उसके बाद उद्धव ठाकरे को निर्णय लेना था। वो भाजपा विरोध के में सीमा से इतना आगे निकल चुके हैं कि उनके लिए वापस आना कठिन है। हालांकि मामला मिनट में हल हो सकता था। आगे क्या होगा इस समय निश्चयात्मक भविष्यवाणी कठिन है । हां इस समय उद्धव ठाकरे अपनी पार्टी में ही अल्पमत हो चुके हैं। इस नाते यह विद्रोह असाधारण है। वैसे तो भारत के किसी बड़े राज्य में गठबंधन का नेतृत्व करने वाली पार्टी के अंदर एक साथ इतने विधायकों का नेतृत्व के खिलाफ जाने की घटना हाल के दशक में नहीं हुई। दूसरे , हिंदुत्व विचारधारा के नाम पर सत्ता त्यागने तक की सीमा तक जाने की घटना भी भारत की राजनीति में इस तरह सामने नहीं आई थी। इस नाते विद्रोह का महत्व बढ़ जाता है। मामले को संवैधानिक और कानूनी पेचिदगियों में फंसाया जा सकता है। टेलीविजन कैमरों में साफ दिखा कि शिंदे के साथ गुवाहाटी के रेडिसन ब्लू होटल में 42 विधायक मौजूद हैं। यहां तक कि उद्धव की ओर से जो दूत बनकर गए वही वहां उन्ही के होकर रह गए। यह कहना कि सभी विधायक किडनैप्ड यानी अपहृत हैं हास्यास्पद है। विधायक बच्चे नहीं हैं कि उनका कोई अपहरण कर ले। आजकल सोशल मीडिया से लेकर सूचना तकनीक के ऐसे अनेक औजार हमारे पास हैं जिनसे हम कहीं से अपनी भावना सार्वजनिक कर ले सकते हैं। जिस विधायक ने जबरन ले जाने का आरोप लगाया उनके भी विजुअल सामने हैं जिसमें वह सहायता से बातचीत करते मुस्कुराते जाते दिख रहे हैं।  वैसे भी इतना बड़ा विद्रोह डरा धमकाकर नहीं हो सकता। इतनी संख्या में लोगों को जबरन नहीं ले जाया जा सकता।

सच कहा जाए तो इस पूरे प्रकरण में किसी ने सबसे ज्यादा खोया है तो वह उद्धव ठाकरे हैं। सत्ता जाना निश्चित है और उनके नेतृत्व वाली शिवसेना का महाराष्ट्र में एक प्रभावी पार्टी के रूप में अस्तित्व भी संकट में आ गया। आनन-फानन में बुलाई गई कार्यकारिणी की बैठक में पारित प्रस्तावों में मराठी अस्मिता और हिंदुत्व के प्रति प्रतिबद्धता जताई गई लेकिन महाराष्ट्र सहित पूरे देश के लोगों ने देखा कि स्वयं को सेकुलर और लिबरल साबित करने के लिए उनके नेतृत्व बाली सरकार लगातार हर सीमा पार करती रही। लंबे समय तक हिंदुत्व के मुद्दे पर उग्र रहने वाली पार्टी राकपा और कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा और संघ विरोधी बुद्धिजीवियों, कलाकारों ,एक्टिविस्टों को खुश करने के लिए उनके एजेंडे पर काम करने लगे तो पार्टी के अंदर असंतोष होना स्वभाविक है। सत्ता के कारण कुछ समय तक यह दबा रहता है। जिन्हें लाभ मिला वह भी अंदर के धिक्कार को दबाते हुए कुछ समय तक चुप रहते हैं। किंतु एक समय इनका विस्फोट होना ही है। विचारधारा से कटने के कारण उद्धव ठाकरे अपने लोगों से भी कट गए। संजय रावत उनके आंख और कान बन गए तथा शिवसेना के अपने पुराने साथियों से ज्यादा राकांपा के नेता महत्वपूर्ण हो गए थे। शरद पवार की बात सरकार के लिए अंतिम मानी जाने लगी भले उससे शिवसेना के साथियों में असंतोष क्यों न बढे। प्रश्न उठ रहा है कि शिंदे को ढाई साल बाद हिंदुत्व क्यों याद आया? इसका उत्तर वही जाने किंतु विद्रोह करना आसान नहीं होता। महाराष्ट्र में और मुंबई में ठाकरे परिवार के विरुद्ध वह भी सत्ता की ताकत के सामने खड़ा होना आसान नहीं होता। इसलिए देर हुई नहीं हुई इस पर बहस की बजाय आज का सच स्वीकार करना चाहिए।

उद्धव ठाकरे, संजय राऊत और इनके दूसरे साथियों की भाषा बता रही है अंदर से एक कितने परेशान हैं। अपने बाप के नाम का इस्तेमाल करें बाला साहब ठाकरे का नहीं जैसी भाषा का प्रयोग सामान्य स्थिति का परिचायक नहीं है। तिलमिलाहट और और शालीन दादागिरीनुमा भाषा हमेशा विफलता का ही प्रमाण होती है। यह सच है कि बाला साहब ठाकरे उद्धव ठाकरे के पिता थे। किंतु शिवसेना के सभी लोगों ने उनके ही मार्गदर्शन में राजनीति की है। इस नाते वे केवल परिवार की बपौती नहीं हो सकते। दूसरे, बाला साहब के रहते शिवसेना कभी राकांपा और कांग्रेस के साथ सरकार बनाने की न कोशिश की और न चुनाव लड़ने की ही। भाजपा के साथ उनके संबंध हमेशा सामान्य रहे। 2019 का विधानसभा चुनाव भाजपा शिवसेना साथ मिलकर लड़ी थी और जनता ने गठबंधन को बहुमत दिया था। महाराष्ट्र में संदेश यही था कि विजय मिलने पर देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री होंगे। परिणाम आने के साथ शिवसेना ने अपना स्टैंड बदल लिया। उसने मुख्यमंत्री पद की मांग कर दी जिसे भाजपा ने स्वीकार नहीं किया। फिर जो कुछ हुआ सबके सामने है। उद्धव से विद्रोह कर अलग होने वाले विधायकों को गद्दार कहा जा रहा है । 2019 के चुनाव परिणाम को आधार बनाएं तो यह शब्द किसके लिए प्रयोग किया जा सकता है? दूसरे, बाला साहब उद्धव के पिता अवश्य थे लेकिन वह एक विचार भी थे। बालासाहेब के विचार से हम सहमत असहमत होंगे लेकिन उद्धव उनके विचार की राजनीति नहीं कर रहे थे यही सच है। तीसरे, मुख्यमंत्री के रूप में वर्षा से वे जब भी लाइव हुए, पृष्ठभूमि में केवल महाराष्ट्र का चित्र रहता था बाला साहब का नहीं। मातोश्री में आने के बाद महाराष्ट्र के साथ देश ने बाला साहेब की तस्वीर देखी। तो बालासाहेब को गायब करके आप किसे खुश कर रहे थे? क्या यह बालासाहेब का सम्मान था? इसलिए पिता का पुत्र होना पर्याप्त नहीं है । उससे एकाधिकार नहीं हो जाता। अगर बालासाहेब के रास्ते पर उधर चले होते तो यह नौबत नहीं आती कि सरकार भी जा रही है और पार्टी भी विखंडित हो गई। संजय राउत जैसे सलाहकारों को महत्व देना बता रहा था कि उद्धव विचारधारा और गठबंधन के साथ प्रतिबद्धता की राजनीति नहीं कुछ और कर रहे हैं और उसका परिणाम यही आना था।

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