मिशनरीज शिक्षा और वैचारिक गुलामी

गुरुकुल का नाश करके मिशनरीज शिक्षा लागू होने से तीन बहुत बड़ी बीमारी समाज को मिल गईं –

1. चरित्रहीनता – सखी प्रथा(गर्लफ्रेंड कल्चर) और व्यभिचार (विवाहोत्तर सम्बन्ध)
2. अवसाद (डिप्रेशन)
3. वैचारिक गुलामी – स्वरोजगार का अन्त

विवरण :

1. चरित्रहीनता –
जब गुरुकुल से बच्चे निकलते थे तो 25वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते थे। मानसिक दुर्बलता बस अधोगामी हो कर नैतिक पतन का पथ कभी विकल्प नहीं बन पाता था। बाकायदा ब्रह्मचर्य का पठन पाठन होता था और गृहस्त होने की भी दीक्षा दी जाती थी। शीलवान, गुणवान, नीतिवान, धर्मसम्मत, और कर्तव्यनिष्ठ होने की शिक्षा हर पुरुष और नारी को दी जाती थी। अर्जुन ने यदि गुरुकुल में धनुर्विद्या में करतब किये थे तो धर्मराज युधिष्ठिर भी गुरुकुल में ही सत्य बोलने में पारंगत हुए थे। भीष्म ने नीतिशास्त्र की शिक्षा वृहस्पति देव से ली थी तो युद्धनीति की शिक्षा भगवान भार्गव से ली थी। महाभारत शान्ति पर्व में भीष्म ने सम्पूर्ण नीतियों का बखान किया है जो भौतिक गीता से कम महत्व नहीं रखती। प्रेम एक शास्वत विषय है। कृष्णा और कृष्ण कोई भाई बहन नहीं थे और कृष्णा के स्वयम्बर में कृष्ण उपस्थित भी थे परन्तु उन्होंने मछली की आँख बेधन में जरा भी अपनी रुचि नहीं दिखाई जबकि कृष्णा ने उन्हीं के इशारे पर कर्ण को सूतपुत्र कहकर उसका वरन करने से मना कर दिया था। मतलब विवाह से पहले ही दोनों सखा थे और विवाह के उपरान्त तीनों सखा हो गए। तीसरे सखा थे अर्जुन। एक सखा ने अपने सखा का विवाह अपनी सखी से करवाने के लिए हर सम्भव प्रयास किये। सखा भाव में वासना, विवाहोत्तर सम्बन्ध यानी व्यभिचार आदि का नाम तक किसी के दिमाग में नहीं आया बल्कि राजसूर्य यज्ञ सम्पन्न होने के बाद जब पांचों भाई अपने संबंधियों के साथ गंगा स्नान को जा रहे थे तो सबसे पहले तीनों सखा ही एक दूसरे पे पानी रँग आदि फेंकने सुरु हो गए और गीले वस्त्रों में भी किसी स्त्री को कोई जरा सी भी परेशानी महसूस नहीं हुई बल्कि भीम आदि सब कूद पड़े और खूब जम के होली से पहले ही होली खेल डाले। वहाँ अर्जुन बताते भी हैं कि कुलीन पुरुष की दृष्टि “आनन्द विभोर” होती है जिसमें कलुषित व निम्न विचारों का स्थान नहीं होता। इसलिए सब स्त्रियाँ गीले वस्त्रों में भी सहज हैं क्योंकि वहाँ वस्त्र या शारीरिक बनावट देख ही कौन रहा है? वहाँ सब नयनाभिराम हैं, आंखों में आनन्द और मन में उल्लास है न कि आंखों में सुअर का बाल और मन में वासना है। अब मिशनरीज ने नारा दिया है कि एक लड़का और एक लड़की सखा नहीं हो सकते। अब तो गर्लफ्रैंड कल्चर बन गया है सखा भाव। जिस उम्र में ब्रह्मचर्य का पालन द्रढ़ता से करना है ताकि मजबूत बेस का पुरुष बने उस उम्र में वर्जिनिटी गँवाने को उतावले घूम रहे। जवानी बर्दास्त कर पाने लायक मार्गदर्शन नहीं हो रहा बल्कि मियाँ खलीफा और सन्नी लियोनी जैसे लोग जमीन से निकल रहे बच्चों के टीचर बने हुए हैं। व्यभिचार तो बचपन से ही आरम्भ हो गया। सारी मिशनरी शिक्षा का एक ही मूल है – नौकरी और छोकरी …

2. अवसाद –
जीवन किस पद्दति से जीना है ताकि शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ्य रहें? संघर्ष के दिनों में हीन भावना का जरा भी प्रादुर्भाव न होने पाय 👈 ये सब शिक्षा के अंग थे जोकि अब परीक्षा पास करने के प्रेशर में बदल गए। कुरुकुल में पात्र के अनुरूप शिक्षा दी जाती थी और हस्तकला विज्ञान में तो मंदबुद्धि भी निपुण हो जाते थे। कुम्हार, बढ़ई, लोहार, सुनार, नाई, किसानी, नाविक, पत्थर कटिंग आदि की ट्रेनिंग तो पिता से ही मिल जाती थी और गुरुकुलों में भवन निर्माण से लेकर आयुर्वेद तक की शिक्षा से कोई भी व्यक्ति कम से कम भूंखों नहीं मरता था। सबके पास चारित्रिक बल, नैतिक बल व रोजगार होने से समाज मे अवसाद नामक बीमारी का कोई स्थान ही नहीं था। श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता गुरुकुल में हुई थी क्योंकि वहां किसी के लिए कोई VIP ट्रीटमेंट नहीं था। सभी ब्रह्मचारियों को भिक्षा माँगनी है। सभी को वही पहनना है जो गुरु ने दे दिया। किसी राजा के बेटे और किसी गरीब ब्राह्मण के बेटे में कोई भेदभाव नहीं है। गुरुमाता को अपने गायब बेटे की झलक कृष्ण में दिखती है परन्तु सुदामा उम्र में बड़े हैं तो चने उन्हीं सुदामा को सौपें गए कि मेरे कृष्ण को भूखा मत रखना। ऐसा नहीं हुआ कि सुदामा को चना और कृष्ण को मोहनभोग दिया हो। सुदामा को जब सुशीला भेज रहीं हैं श्रीकृष्ण के पास तो भेंट में चावल की पोटली दे रहीं हैं और सखा को भेंट करने के लिए बिना कोई संकोच सुदामा ने वो पोटली रख ली। संकोच तो श्रीकृष्ण का वैभव देखने के बाद हुआ कि यहाँ मेरी पोटली का होगा क्या? लेकिन भेंट परम्परा तो दोनों ने एक ही गुरुकुल में सीखी थी तो कन्हैया जी मांग लेते हैं – मित्र मेरी भेंट किधर है? भाभी ने कुछ दिया नहीं मेरे लिए? राजा को भी संकोच नहीं कि एक गरीब सखा से भेंट माँग रहा। एडिकेट्स, आचार, सदाचार, परस्पर व्योहार आदि सब भी गुरुकुल सिखाते थे। न सुदामा को गरीबी का अवसाद है न श्रीकृष्ण को अमीरी का घमण्ड। गुरुकुल में सिखाई गई परम्परा में राजगद्दी का घमण्ड घुसेड़ा था द्रुपद ने, जिंदगी भर जलील होते रहे अस्वस्थामा से जिसने उसका आधा राज्य जीवन भर दबा के रखा। अवसाद तो उनको होता था जो नीति विरुद्ध कार्य करते थे, नीति पे चलने वाले को कोई दूसरा ताप ही नहीं था। आज नीतिशास्त्र का सब्जेक्ट तक नहीं सिलेबस में लेकिन जो गुरुकुल बचे हुये हैं उनमें आज भी पढ़ाया जाता है। अब आचार्यों का ही प्रकल्प विद्रूप हो गया तो रिस्टोर करने के लिए भगवान आदिशंकर को एक बार फिर औतार लेना पड़ेगा ताकि समाज में शिक्षक पैदा हों। आज जो कुछ नहीं बन पाया वो शिक्षक बन जाता है।

3. वैचारिक गुलामी –
आज की उच्च शिक्षा से डॉक्टर और इंजीनियर ही बन सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा वैज्ञानिक बन जायेंगे परन्तु 130 करोड़ की जनसंख्या में जब सब नौकरी के लिए ही घूमेंगे तो कितनों को नौकरी मिल पाएगी? हर बाप की चाहत है कि उसका बेटा इंजीनियर बने भले भैंसिया बिक जाय। अपना प्लाट बेंच के MBA किया फिर बिल्डर के प्लाट बेंचने की नौकरी कर रहे हैं। ऊपर से टारगेट की वजह से जालसाली करना और फिर टारगेट और जालसाजी दो तरह से प्रेशर में पिस के बीमारी ओढ़ लेना। जितना कमाया उससे इलाज करा लो और बस हो गई जिंदगी पूरी … अभिवावक अपने बच्चों के मन में बचपन में ही विचार डाल देते हैं कि उनको नौकरी करनी है। बड़े होने तक बच्चे को भी समझ आ जाता है कि नौकरी नहीं तो छोकरी नहीं। बस लग जाता है गुलाम बनने के लिए मेहनत करने में। कहाँ गुलामी से बचने के लिए मेहनत करना चाहिए और कहाँ हम गुलाम बनने के लिए मेहनत करते हैं। जीवन का मूल उद्देश्य बस कैसे भी पैसा कमाना और बीबी बच्चे पालना 👈 बस यही जीवन भर की शिक्षा का मूल रहता है। ऐसी मानसिक गुलामी में जिंदगी जीने के बाद 70 वर्ष की उम्र में भी आदमी के दिमाग में शराब, शबाब और कबाब ही घुसा रहता है। वासनाओं से तृप्ति नहीं मिलती। गाँधी, 70 वर्ष की उम्र में औरतबाजी करता है और उसका नाम देता है – ब्रह्मचर्य के प्रयोग 👈ये मैकाले की थोपी मानसिक गुलामी नहीं है तो और क्या है??

धर्माचार्यों को राजनीति और संपत्ति पर कब्जे के केस लड़ने से ही फुर्सत नहीं, समाज पूरी तरह से गर्त में गिरे तो उनको क्या? उनकी गद्दियों की पूजा करो और चढ़ावा चढ़ाओ तो ही 2-4 मिनट का समय मिल सकता है वो भी साथ में नेता या अधिकारी की डिग्री होनी चाहिए …!!

                                                                                                                                                                           अश्विनी त्रिपाठी 

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