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मंदी की ओर बढ़ती वैश्विक अर्थव्यवस्था?

मंदी की ओर बढ़ती वैश्विक अर्थव्यवस्था?

by सतीश सिंह
in आर्थिक, जुलाई -२०२२, विशेष
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कोरोना महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध की काली छाया का असर पूरे विश्व पर पड़ रहा है। तेल की बढ़ती कीमतों का असर अमेरिका जैसे देशों की मुद्रास्फीति पर काफी नकारात्मक असर दिखा रहा है तथा भविष्य में उसके और बिगड़ने की आशंका है, हालांकि भारत पर उसका उतना नकारात्मक असर नहीं पड़ा है और भविष्य में भी उसके स्टेबल रहने की प्रबल सम्भावना है।

कोरोना महामारी का खौफ अभी भी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है और भू-राजनैतिक संकट की वजह से विकास का परिदृश्य वैश्विक स्तर पर अनिश्चित बना हुआ है। चीन में ओमीक्रोन के प्रसार और रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला करने से वैश्विक हालात बिगड़े हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेंचमार्क क्रूड ब्रेंट 120 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर के आसपास लगातार बना हुआ है, जिसके आगामी महीनों में भी उच्च स्तर पर बने रहने की सम्भावना है।

वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही है। विश्व की लगभग सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं बढ़ती महंगाई की वजह से हलकान हैं और उन्नत देशों के केंद्रीय बैंकों को महंगाई पर काबू पाने के लिए नीतिगत दरों में इजाफा करना पड़ रहा है। बढ़ती महंगाई और केंद्रीय बैंकों द्वारा दरों में तेज बढ़ोतरी के डर और आर्थिक वृद्धि पर पड़ने वाले सम्भावित नकारात्मक असर से भारत सहित दुनिया भर के बाजारों में 13 जून को जबरदस्त बिकवाली देखी गई। निवेशकों को डर लग रहा है कि केंद्रीय बैंक द्वारा दरों में वृद्धि किए जाने से विश्व की आर्थिक वृद्धि प्रभावित हो सकती है। आर्थिक मंदी की वजह से लोगों की खरीदने की क्षमता घट जाती है। आज भारत समेत विश्व के अनेक देश के लोगों की क्रय शक्ति कम हो गई है। ऐसी अवस्था में लोगों की कमाई कम नहीं होती है, लेकिन मुद्रा की कीमत कम हो जाने की वजह से लोगों को किसी भी वस्तु को खरीदने के लिए ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ते हैं, जिसके कारण वे न तो जरूरत के सामान खरीद पाते हैं और न ही बचत कर पाते हैं। आर्थिक गतिविधियां धीमी पड़ने लगती हैं। उत्पादन और विकास दर दोनों में गिरावट दर्ज की जाती है। रोजगार सृजन का कार्य बंद हो जाता है और लोगों के हाथों से रोजगार फिसलने लगते हैं। महंगाई की वजह से विविध उत्पादों की मांग में कमी आ जाती है और मांग में कमी आने से कल-कारखानों को उत्पादन को कम करना पड़ता है, जिसके कारण कम्पनियों को नुकसान उठाना पड़ता है और लंबी अवधि तक  नकारात्मक स्थिति बनी रहने से कंपनियां बंद भी हो जाती हैं।

महंगाई पर काबू पाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने हालिया मौद्रिक समीक्षा में रेपो दर में 0.50 प्रतिशत का इजाफा किया है। इसके पहले मई के प्रथम सप्ताह में केंद्रीय बैंक द्वारा रेपो दर में 0.40 की बढ़ोतरी की गई थी। रेपो दर में ताजा बढ़ोत्तरी के साथ यह बढ़कर 4.90 प्रतिशत पर पहुंच गया है। रेपो दर में वृद्धि के बाद बैंक उधारी दरों में बढ़ोत्तरी कर रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक ने 15 जून को उधारी दर में 20 आधार अंकों की बढ़ोत्तरी की है।

भारतीय रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति की सहनशीलता सीमा को 5 से 6 प्रतिशत के बीच रखा है। अमेरिका में यह सीमा 2 प्रतिशत है, लेकिन वहां मई महीने में महंगाई 8.6 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई, जो दिसम्बर 1981 के बाद सबसे अधिक है। अमेरिका में 10 वर्षीय अमेरिकी बॉन्ड का प्रतिफल 3.2 प्रतिशत पर पहुंच गया है। महंगाई पर काबू पाने के लिए अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने 15 जून को ब्याज दर में 75 आधार अंक की बढ़ोत्तरी की है। बैंक ऑफ इंग्लैंड ने भी 16 जून को ब्याज दर में 1.25 प्रतिशत की वृद्धि की है, जो विगत 13 वर्षों में सबसे अधिक है। यूरो जोन में महंगाई दर 40 साल के रिकॉर्ड को तोड़कर 8 प्रतिशत से ऊपर के स्तर पर पहुंच गई है।

रेपो दर के बढ़ने या घटने का सीधा असर महंगाई और ऋण दर पर पड़ता है। रेपो दर बढ़ने से ऋण दर में इजाफा होता है, वहीं महंगाई में कमी आने की सम्भावना बढ़ जाती है क्योंकि रेपो दर बढ़ने से बैंक महंगी दर पर कर्ज देते हैं जिससे लोगों के पास पैसों की कमी हो जाती है। कम आय और उत्पादों की ज्यादा कीमत होने की वजह से मांग में कमी आती है और जब किसी उत्पाद की मांग में कमी आती है तो उसकी कीमत में भी कमी आती है।

भारतीय रिजर्व बैंक ने ताजा मौद्रिक समीक्षा में कहा है कि आगामी तिमाहियों में महंगाई दर 6 प्रतिशत से ऊपर रह सकती है। केंद्रीय बैंक ने वित्त वर्ष 2023 के लिए महंगाई के अनुमान को 5.7 प्रतिशत से बढ़ाकर 6.7 प्रतिशत कर दिया गया है। रिजर्व बैंक के गवर्नर के अनुसार वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में महंगाई 7.4 प्रतिशत, तीसरी तिमाही में 6.2 प्रतिशत और अंतिम तिमाही में 5.8 प्रतिशत रह सकती है।

महंगाई पर लगाम लगाने के लिए मई महीने में केंद्र सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क में कटौती की थी। सरकार का मानना था कि आवाजाही पर खर्च कुछ कम होने से जरूरी उत्पादों की कीमत में आंशिक कमी आयेगी और आमजन को कुछ राहत मिलेगी, क्योंकि अभी लोगों की कमाई का एक बड़ा हिस्सा दैनिक जरूरतों को पूरा करने में निकल जा रहा है।

दुनिया में सऊदी अरब, रूस और अमेरिका तेल के तीन सबसे बड़े उत्पादक देश हैं। रूस में  12 प्रतिशत, 12 प्रतिशत सऊदी अरब में और 18 प्रतिशत अमेरिका में कच्चे तेल का उत्पादन  होता है। भारत 85 प्रतिशत तेल का आयात करता है। भारत ज्यादातर आयात सऊदी अरब और अमेरिका से करता है, लेकिन कुछ प्रतिशत तेल का आयात इराक, ईरान, ओमान, कुवैत, रूस आदि देशों से भी करता है। रूस प्राकृतिक गैस का वैश्विक मांग का 10 प्रतिशत उत्पादन करता है। रूस 40 प्रतिशत तेल और प्राकृतिक गैस, यूरोप को बेचता है। घरेलू प्राकृतिक गैस की कीमत में एक डॉलर की बढ़ोतरी होने पर सीएनजी की कीमत भारत में लगभग 5 रुपये प्रति किलो बढ़ जाती है। यूक्रेन, विश्व का सबसे बड़ा परिष्कृत सूरजमुखी तेल का भी निर्यातक है। इस मामले में दूसरे स्थान पर रूस है। भारत भी इन दोनों देशों से सूरजमुखी तेल का आयात करता है। यूक्रेन से भारत खाद भी बड़ी मात्रा में खरीदता है। यूक्रेन न्यूक्लियर रिएक्टर व बॉयलर के मामले में भारत का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है। रूस पैलेडियम का दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश है, जिसका इस्तेमाल बहुत सारे कीमती उत्पादों के निर्माण में होता है।

मौजूदा उच्च महंगाई दर के घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय दोनों कारण जिम्मेदार हैं, जिसमें अंतरराष्ट्रीय कारण ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। भू-राजनैतिक संकट का अभी भी समाधान निकलता नहीं दिख रहा है। रूस और यूक्रेन अभी भी अपने-अपने ईगो पर अड़े हुए हैं। इस वजह से वैश्विक स्तर पर महंगाई बढ़ रही है और दुनिया मुद्रास्फीति जनित मंदी की गिरफ्त में आ रही है।

हालांकि, वर्तमान माहौल में भी भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से मजबूत हुई है। देश में मई में खुदरा मुद्रास्फीति नरम होकर 7.04 प्रतिशत रही, जो अप्रैल में 8 सालों के उच्च स्तर 7.79 प्रतिशत पर पहुंच गई थी। सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक महंगाई दर पर काबू करने के लिए संयुक्त रूप से तालमेल के साथ काम कर रहे हैं और इस साल मानसून के अच्छे रहने के आसार हैं। इससे उम्मीद है कि महंगाई के मोर्चे पर जल्द ही सकारात्मक परिणाम देखने को मिल सकते हैं। एसऐंडपी ग्लोबल इंडिया सर्विसेज पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स (पीएमआई) मई महीने में बढ़कर 58.9 पर पहुंच गया, जो अप्रैल में 57.9 था। यह अप्रैल 2011 के बाद का उच्चतम स्तर है। गौरतलब है कि 50 से ऊपर की संख्या विस्तार और इससे कम संकुचन को दर्शाती है।

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के अनुसार वित्त वर्ष 2021-22 की अंतिम तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) सालाना आधार पर 4.1 प्रतिशत की दर से बढ़ा और वित्त वर्ष 2021 में जीडीपी वृद्धि दर 8.7 प्रतिशत रहा, जो पूर्व के अनुमानों के अनुरूप है और यह विश्व की अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के प्रदर्शन से बहुत ही ज्यादा बेहतर है। बता दें कि महामारी की वजह से वित्त वर्ष 2020-21 में जीडीपी वृद्धि दर 6.6 प्रतिशत पर सीमित रही थी। जीडीपी का ऐसा प्रदर्शन तब है, जब कारोबार और परिवहन क्षेत्र में अभी और भी सुधार होना बाकी है। वित्त वर्ष 2020-21 में 20.2 प्रतिशत की वृद्धि के बाद 2021-22 में यह केवल 11.1 प्रतिशत की दर से बढ़ा। अगर इन क्षेत्रों में सुधार गतिविधियों में तेजी आती है तो जीडीपी के आंकड़ों में और भी बेहतरी आयेगी। एसबीआई रिसर्च रिपोर्ट ने वित्त वर्ष 2022-23 में भारतीय अर्थव्यवस्था के वृद्धि अनुमान में 0.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है। साथ ही साथ इसके 7.5 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया है.

वित्त वर्ष 2021-22 में वास्तविक जीडीपी का स्तर 147 लाख करोड़ रुपये रहा, जो महामारी के पहले वाले वित्त वर्ष 2019-20 के 145 लाख करोड़ रुपये से कुछ अधिक है। दो वर्षों में 1.5 प्रतिशत का सुधार बताता है कि महामारी के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत ही जल्द न सिर्फ रिकवरी करने में कामयाब रही, बल्कि दहाई अंक के जीडीपी आंकड़ा को छूने की दिशा में अग्रसर हो गई है।

 

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