देश की कुछ तस्वीरें वाकई डरा रहीं हैं। उदयपुर से लेकर अमरावती की घटनाओं ने इस बात की फिर से पुष्टि की है कि भारत में भी मजहबी जिहादी कट्टरता जड़ें जमा चुकी हैं। मजहबी कट्टरता का यह अर्थ नहीं कि भारत के सारे मुसलमान ऐसे हो गए हैं। अमरावती में दवा विक्रेता उमेश कोल्हे ने फेसबुक पर नूपुर शर्मा के समर्थन में पोस्ट लिखी थी, जिसकी स्क्रीनशॉट कुछ ग्रुप में वायरल करके उनको गुस्ताख ए रसूल साबित किया गया। इसके बाद उनकी हत्या कर दी गई। हत्या के आरोप में अभी तक गिरफ्तार मुदस्सिर अहमद, शाहरुख पठान, अब्दुल तौफिक, शोएब खान, आतिब रशीद के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। कुछ लोग अभी भी इसे अपवाद घटना बता रहे हैं। हमारे देश की स्मृति कुछ मायनों में अत्यंत कमजोर हो जाती है। इसी वर्ष 25 जनवरी को गुजरात के अहमदाबाद के धंधुका में 27 साल के किशन भारवाड़ की भी हत्या इसी श्रेणी की थी। किशन ने 6 जनवरी को एक वीडियो पोस्ट किया जिसे कुछ ही घंटे में वायरल कर दिया गया और भारी बवंडर मच गया। ईशनिंदा का आरोप लगाते हुए मुस्लिम समुदाय के लोगों ने उसके विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज की, वह गिरफ्तार भी हुआ और जमानत पर छूटकर आया। छुटकर आने पर उसकी पिटाई की गई। उसने दोनों हाथ जोड़कर माफी मांगी और कहा कि जिंदगी में दोबारा ऐसी गलती नहीं होगी। बावजूद उसके परिवार को धमकियां मिलती रही। उसे घर से बाहर छुपा कर रखा गया। उसकी पत्नी ने एक बच्ची को जन्म दिया जिसे देखने के लिए वह चुपचाप मोटरसाइकिल से घर आ रहा था। रास्ते में दो लोगों ने उस पर गोलियां बरसा दी और वह चल बसा। जाहिर है ,लंबे समय से कत्ल करने वाले घात लगाए हुए उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। इस तरह की मानसिकता कहां से पैदा होती है? इस मामले में दिल्ली के दरियागंज से भी एक मौलाना कमर गनी उस्मानी को गिरफ्तार किया गया था। पता नहीं इस तरह की और भी हत्याएं देश के अन्यत्र हुए होंगे लेकिन वे इस रूप में शायद सुर्खियों में नहीं आए।
इन मामलों का जो सबसे डरावना पहलू है उसकी ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। कत्ल की निंदा सभी कर रहे हैं लेकिन एक बड़ा वर्ग उसमें भी किंतु परंतु लगा रहा है। हिंदू कट्टरवाद की बात उठाई जा रही है। कहा जा रहा है कि भाजपा और संघ ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है। दुर्भाग्य से राजनीतिक दल सच को शायद न समझने के कारण भाजपा और संघ विरोध में जिस तरह के की प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं उनसे इनका समर्थन हो जाता है। उच्चतम न्यायालय के दो न्यायाधीशों द्वारा नूपुर शर्मा की एक याचिका पर सुनवाई के दौरान की गई टिप्पणियां किस तरह उद्धृत की जा रही हैं यह सामने है। माननीय उच्चतम न्यायालय पर सामान्यता कोई टिप्पणी नहीं की जाति। हालांकि उच्चतम न्यायालय स्वयं कह चुका है कि आप हमारे फैसलों की समीक्षा कर सकते हैं, उसकी आलोचना भी कर सकते हैं लेकिन हमारे इरादे पर प्रश्न उठाएंगे तब गलत होगा। उच्चतम न्यायालय पहले भी पुनर्विचार याचिका में अपने फैसलों के साथ-साथ अनेक टिप्पणियों को वापस ले चुका है। ये टिप्पणियां न्यायालय के फैसले की नहीं कार्यवाही की है।
किंतु इसके आधार पर जो यह बता रहे हैं कि सब कुछ नूपुर शर्मा द्वारा टीवी डिबेट में बोली गई एक पंक्ति के कारण हो गया तो जाहिर है , उनका इरादा न सच्चाई को समझना है और न आगे ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो इसके लिए काम करना है।
25 जनवरी को अमदाबाद में किशन भारवाड़ की हत्या के समय तो नूपुर शर्मा के टीवी डिबेट का मामला नहीं आया था। अलग-अलग रूपों में इस तरह की हत्याओं या हत्या की कोशिशों, हमलों या अन्य प्रकार की वारदातें काफी समय से हो रही हैं। इन लोगों से पूछा जाना चाहिए कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान ,सीरिया, इराक, लीबिया आदि जगहों में तो भाजपा – संघ नहीं है फिर वहां क्यों इस ढंग से हत्याएं हो रही हैं? आईएसआईएस पकड़ने के बाद गोली मारने की जगह चाकू से गला रेतने या जिबह करने वाला ही वीडियो जारी क्यों करता था? अजीब – अजीब तर्क दिए जा रहे हैं। कोई कहेगा कि हाल के धर्म संसद में क्या बयान दिए गए तो कोई नाथूराम गोडसे के महिमामंडन की बात उठाएगा। ये लोग इस बात को नहीं कहेंगे कि स्वयं संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले कुछ समय में आयोजित धर्म संसदों के अंदर कुछ वक्ताओं के वक्तव्यों के बारे में स्पष्ट बयान दिया कि इससे हिंदुत्व की क्षति होती है और यह किसी भी दृष्टि से हिंदुत्व नहीं है। इस कारण उनको व्यापक आलोचना भी झेलनी पड़ी है। दूसरे, धर्म संसद में बयान देने वाले कालीचरण से लेकर यतिनरसिंहानंद गिरफ्तार हुए और उन पर मुकदमे चल रहे हैं। दूसरे तथ्य को उद्धृत किए बिना केवल पहली बात बोलते जाने वाले कितने गंभीर और ईमानदार हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं है। हमारा मानना है कि हम किसी के मजहबी व्यवहार की आलोचना कर सकते हैं लेकिन जब मुसलमान पैगंबर साहब या अपने मजहब के बारे में किसी तरह के प्रश्न उठाने को गुस्ताखी मानते हैं तो उससे बचना चाहिए। ऐतिहासिक सच होते हुए भी कई प्रसंगों को बोलने से परहेज करना आवश्यक है। इस नाते नूपुर शर्मा ने प्रश्नात्मक लहजे में ही जो कुछ कहा उसका समर्थन नहीं हो सकता। सत्तारूढ़ पार्टी के प्रवक्ता होने के नाते आप की जिम्मेदारी ज्यादा है।हालांकि उसके माफी मांगने के बाद कायदे से विषय खत्म हो जाना चाहिए था। उसी टीवी डिबेट में एक मुस्लिम नेता ने भगवान शिव के लिए जितनी गंदी भाषा का प्रयोग किया वह भी तो गुस्ताखी ही थी। उसकी कोई चर्चा नहीं कर रहा। हिंदू और मुसलमानों की कट्टरता की एक साथ आलोचना करने की बात करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि हिंदुओं ने कब कहा कि भगवान शिव की आलोचना करने वाले का सिर तन से जुदा कर दिया जाए? क्या किसी हिंदू धर्मगुरु ने मौत के घाट उतारने का ऐलान किया? सच तो यह है कि ऐसा करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
बिना किंतु परंतु के उदयपुर से लेकर अमरावती और अहमदाबाद की मजहबी हत्याओं की निंदा और विरोध की जगह संतुलित करने के लिए तथाकथित हिंदू कट्टरवाद शब्द प्रयोग करने वाले नहीं जानते कि वे प्रकारांतर से इनको न्यायसंगत ठहरा रहे हैं। ध्यान रखिए, हत्या के पहले देश के कई स्थानों पर जुलूस निकाले गए जिनमें न केवल गुस्ताख ए रसूल की एक ही सजा सर तन से जुदा सर तन से जुदा नारे लग रहे थे बल्कि बैनरों पर भी यही लिखा हुआ था। तब एक भी मुस्लिम धर्मगुरु या नेता ने इसका विरोध नहीं किया। इन नारों और बयानों को गलत न कहने वालों के द्वारा हत्या की निंदा विरोध के मायने क्या है? सक्रिय मौलवियों और मुस्लिम नेताओं को पता है कि पाकिस्तान में स्थापित दावत ए इस्लामी संगठन के दो नारे हैं। एक, लब्बेक या रसूलअल्लाह यानी या रसूलल्लाह हम हाजिर हैं। दूसरा, गुस्ताख ए रसूल की एक ही सजा सर तन से जुदा सर तन से जुदा। जिनको यह सच पता नहीं उन्हें जरूर एनआईए की जांच के बाद इस संगठन का नाम आने से हैरत हो रही हो किंतु यह भारत में लंबे समय से कार्यरत है और मुस्लिम समुदाय के लोगों को पता है।
साफ है कि इस सच को जानने – समझने और इसके अनुसार घटनाओं पर अपना मत बनाया होगा। जब आप इनके अनुसार मत बनाएंगे तभी तय कर पाएंगे कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए हमें क्या करना चाहिए। देश हम सबका है। राजनीति अपनी जगह है। दलीय राजनीति में हम एक दूसरे के विरोधी हो सकते हैं,पर सच को सच के रूप में स्वीकार करना एकमात्र रास्ता है जिसके द्वारा हम इस तरह की मजहबी कट्टरता का दमन कर पाएंगे।