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वामपन्थी इतिहासकारों की कुटिल नीति

वामपन्थी इतिहासकारों की कुटिल नीति

by हिंदी विवेक
in अवांतर, राजनीति, व्यक्तित्व, सामाजिक
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बप्पा रावल याद है ….वामपन्थी इतिहासकारों की कुटिल नीति

गजनी जीतने के बाद बप्पा ने वहां अपना एक प्रतिनिधि नियुक्त किया। सिर्फ यही नही बप्पा रावल ने कंधार समेत पश्चिम के कंधार, खुरासान, तुरान, इस्पाहन, ईरानी साम्राज्यों को जीतकर उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया था। इन सभी राज्यो के मुस्लिम शासकों ने अपनी बेटियों की शादी बप्पा रावल से की, कहते है कि उन्होंने 35 मुस्लिम राजकुमारियों से विवाह किया था।

बप्पा रावल मेवाड़ी राजवंश के सबसे प्रतापी योद्धा थे । वीरता में इनकी बराबरी भारत का कोई और योद्धा कर ही नहीं सकता। यही वो शासक एवं योद्धा है जिनके बारे में राजस्थानी लोकगीतों में कहा जाता है कि –

सर्वप्रथम बप्पा रावल ने केसरिया फहराया ।

और तुम्हारे पावन रज को अपने शीश लगाया ।।

फिर तो वे ईरान और अफगान सभी थे जिते ।

ऐसे थे झपटे यवनो पर हों मेवाड़ी चीते ।।

वामपंथी इतिहासकारों की कुटिल नीति

वामपंथी इतिहासकारों का खेल समझिए, वर्ष 712 में मुहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर को पराजित किया। परंतु उसके बाद सीधे बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद गोरी का आक्रमण मिलता है। आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक क्या अरब आक्रमणकारी उस एक जीत का जश्न मना रहे थे? वास्तव में इस पूरे काल में अरब आक्रमणकारियों को भारतीय योद्धा खदेड़े हुए थे। उस कालखंड में अरबों को पराजित करने वाला एक महानायक योद्धा था बप्पा रावल।

अरब की आंधी का सीधा सामना उस समय मेवाड़ के सैनिकों और शासकों ने देश का सीमारक्षक बनकर निभाई और भारतवर्ष के सम्मान की रक्षा की, अन्यथा देश इस्लाम की आंधी में नेस्तनाबूत हो जाता और सनातन धर्म जिसे आज हिन्दू कहा जाता है, वह अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पारसियों और यहूदियों की भांति मातृभूमि से पृथक हो चुका होता। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि भला हो मेवाड़ के गहलोत और भीनमाल के प्रतिहारों का, जिनके कारण आज भारतवर्ष में हिन्दू स्वयं को हिन्दू कहने का अधिकार रखता है।

ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि मेवाड़ राज्य की स्थापना 568 ईस्वी में गुहिल द्वारा की गई थी. शायद तभी से गुहिल वंश के यशस्वी शूरवीर इस भूमि पर शासन कर रहे हैं.

पहाड़ों, घने जंगलों और रेगिस्तानी वीराने में बसे इसी मेवाड़ पर कभी महाराणा कुम्भा, राणा सांगा और महाराणा प्रताप जैसे शक्तिशाली और प्रतापी राजाओं का शासन चलता था. समय के साथ यही ‘गुहिल वंश’ ‘गहलौत वंश’ और फिर ‘सिसोदिया वंश’ बन गया.

इतिहास के मुताबिक, 8वीं शताब्दी में मेवाड़ साम्राज्य की शुरुआत बप्पा रावल से मानी जाती है. इन्हें मेवाड़ का संस्थापक पिता भी कहा जाता है. बप्पा रावल का असली नाम काल भोज था. इनका अपनी प्रजा के साथ गहरा प्रेम था. यही कारण है कि इन्हें प्यार से पूरा मेवाड़ बप्पा के नाम से पुकारता था.

माना जाता है कि वर्तमान पाकिस्तान में बसे रावलपिंडी शहर का नाम बप्पा रावल के नाम पर ही पड़ा है. ये बात तब की है, जब हिंदुस्तान पर अरब लुटेरों ने हमला कर दिया था.

तो आइए जानते हैं कि आखिर मेवाड़ पर शासन करने वाले बप्पा रावल सिंध तक कैसे पहुंचे और वहां कैसे रावलपिंडी नामक शहर की स्थापना हुई –

भारत को लूटना चाहते थे अरब आक्रमणकारी

ऐतिहासिक दस्तावेजों से पता चलता है कि गुहिल के वंशज नागादित्य को 727 ई. में भीलों ने मार डाला था.

ये वो समय था जब हिंदुस्तान पर अरब लुटेरों के हमले का डर बना हुआ था. आज से लगभग 1400 साल पहले अरब के शासकों-लुटेरों ने मध्य-पूर्व और अरब के इलाकों को अपने कब्जे में ले लिया. इसके बाद इन्होंने मिस्र, स्पेन और ईरान को भी जीत लिया.

इसी दौरान ईराक का शासक अल हज्जाज अकूट संपदा से भरे पड़े हिंदुस्तान पर अपनी निगाह टेढ़ी किए हुए था. उसने कई बार यहां आक्रमण करना चाहा.

आपसी फूट और लालच के कारण वो हमला नहीं कर पाया. हालांकि इस समय तक अरब लुटेरों ने सिंध पर छोटे-मोटे हमले करने शुरू कर दिए थे.

इसके बाद अल हज्जाज के भतीजे और दामाद मुहम्मद बिन कासिम ने 712 ई. में खलीफा की मदद से हिंदुस्तान की उत्तर पश्चिमी सीमा से सिंध पर आक्रमण कर दिया.

उस समय दाहरसेन वहां के राजा थे. सिंध की सीमा यूपी के कन्नौज, अफगानिस्तान में कंधार से लेकर कश्मीर और रेगिस्तान को पार कर नमक की दलदली भूमि गुजरात के कच्छ तक थी.

मोहम्मद बिन कासिम ने उनके किले पर कई बार हमला किया, लेकिन दाहरसेन की सेना से उसे हार ही मिली. फिर एक रोज कासिम ने धोखे से दाहरसेन की सेना में अपने सिपाहियों को महिला वस्त्र पहनाकर भेज दिया. आखिरकार, राज्य की रक्षा के लिए दुश्मनों से लड़ते हुए दाहरसेन ने अपने प्राणों की आहुति दे दी.

इस प्रकार, अरबों ने सिंध को जीतकर उसके बड़े भू-भाग पर कब्जा कर लिया.

इसके बाद रास्ते में आने वाले सभी साम्राज्य अरबों के आगे कमजोर पड़ते जा रहे थे. कोई भी शक्ति अरब आक्रमणकारियों का मुकाबला करने में सक्षम नहीं थी.

वह वर्तमान अफगानिस्तान, सिंध को जीत चुका था, और रेगिस्तान से होते हुए मेवाड़ की ओर बढ़ रहा था. देखते ही देखते कुछ ही सालों में अरब आक्रांताओं ने चावड़ों, मौर्यों, सैंधवों, कच्छेल्लों को हरा दिया.

अरबों ने सिंध के रास्ते वर्तमान राजस्थान और गुजरात में प्रवेश करते हुए 725 ई. तक जैसलमेर, मारवाड़, मांडलगढ़ और भरूच इलाकों पर कब्जा कर लिया.

चित्तौड़ से अरबों को खदेड़ा

जब सभी साम्राज्य अरबों के आगे हार चुके थे. ऐसे समय में नागादित्य के पुत्र और मेवाड़ के महाराजा बप्पा रावल ने युद्ध की बागडोर अपने हाथों में ली.

उन्होंने अपनी विशाल सेना को एकत्र किया और हार चुके राज्यों को जीत का आश्वासन देकर अपने पक्ष में किया. बप्पा रावल ने सबसे पहले मेवाड़ के पास स्थित महत्वपूर्ण चित्तौड़ किले पर अधिकार जमाया और 734 ई. में मेवाड़ में गहलौत वंश की स्थापना की. उन्होंने न केवल अरब लुटेरों को खदेड़ा, बल्कि उनके द्वारा कब्जाए गए इलाकों पर पुन: अधिकार कर उन्हें मेवाड़ में भी मिला लिया.

बप्पा रावल का शासनकाल 734 ई. से 753 ई. तक रहा.

रावलपिंडी में था सैन्य ठिकाना

कहा जाता है कि बप्पा रावल ने 734 ई. में मौर्य शासक मान मोरी से चित्तौड़ के किले को जीता था. जो यहां की भव्यता को आज भी उसी स्वरूप में दर्शाता है. वहीं, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अरब आक्रमणकारियों ने चित्तौड़ के शासकों को युद्ध में हरा दिया था. इसके बाद बाप्पा रावल ने अरबों को पछाड़ते हुए चित्तौड़ पर अपना नियंत्रण स्थापित किया.

जब अरबों ने चित्तौड़ पर हमला किया, तब मौर्य वहां शासन करते थे. हालांकि अरब आक्रमणकारियों ने उन्हें बुरी तरह से कमजोर कर दिया था. इस तरह से मौर्य अरबों से युद्ध हार गए.

चित्तौड़ जीतने के बाद बप्पा ने नागदा से हटाकर इसे अपनी राजधानी बना लिया. उन्होंने जैसलमेर व जोधपुर के राजाओं को साथ लेकर अरबों को वापस अफगानिस्तान की सीमा से बाहर खदेड़ दिया.

बप्पा रावल की सेना उस समय काफी मजबूत मानी जाती थी. उन्होंने साहस का परिचय देते हुए वर्तमान पाकिस्तान के रावलपिंडी में अरब लुटेरों पर निगरानी रखने के लिए एक सैन्य चौकी बनाई. पहले इस जगह को गजनी कहा जाता था. उस समय तक इस जगह पर आराम से आवाजाही थी. ऐसे में समझा जा सकता है कि मेवाड़ साम्राज्य का शासन आधुनिक अफगानिस्तान तक था.

वहीं, कई इतिहासकार मानते हैं कि अपने साम्राज्यों को अरब आक्रमणकारियों से सुरक्षित करने के लिए बप्पा रावल ने गजनी प्रदेश में सैन्य चौकी बनाई थीं. यहां से उनके सैनिक अरब लुटेरों पर नजर रखते थे. ऐसे में इस बात में कोई शक नहीं कि जिस जगह पर ये सैन्य चौकियां स्थापित की गई थीं, उनका नाम बदलकर बप्पा रावल के नाम पर रावलपिंडी कर दिया गया.

माना जाता है कि बप्पा रावल ने अन्य राजाओं के साथ मिलकर 16 साल अरब लुटेरों से लड़ाई लड़ी और उन्हें हिंदुस्तान की मुख्य भूमि से दूर रखा.

इसी लड़ाई में फिर एक समय ऐसा भी आया, जब बप्पा रावल ने सिंध से अरबों को पूरी तरह से खदेड़ कर उनका प्रभाव हमेशा के लिए समाप्त कर दिया.

ईरान तक किया राज्य का विस्तार

8वीं शताब्दी में उत्तर-पश्चिमी भारत के राजाओं और अरबों के बीच लड़ी गई ‘राजस्थान की लड़ाई’ में बप्पा रावल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

सिंध जीतने के बाद मोहम्मद बिन कासिम ने ही चित्तौड़ पर हमला किया. उस समय चित्तौड़ में मोरी या मौर्य राजपूतों का शासन था. इतिहासकारों का एक मत ये भी है कि गुहिल वंश के बप्पा रावल मोरी सेना में कमांडर थे. ऐसे में हमला होने के बाद बप्पा रावल ने सौराष्ट्र की सहायता से बिन कासिम को हराया और उसे वापस सिंधु के पश्चिमी तट पर (वर्तमान में बलूचिस्तान) धकेल दिया.

कहा जाता है कि इसके बाद बप्पा रावल ने गजनी (अफगानिस्तान) की ओर कूच किया और वहां के शासक सलीम को हराया. गजनी जीतने के बाद बप्पा ने वहां अपना एक प्रतिनिधि नियुक्त किया और खुद वापस चित्तौड़ लौट आए. वापस आने के बाद मोरी राजपूतों ने बप्पा रावल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर उन्हें चित्तौड़ का राजा बना दिया.

इतिहास कहता है कि बप्पा रावल ने कंधार समेत पश्चिम के कंधार, खुरासान, तुरान, इस्पाहन, ईरानी साम्राज्यों को जीतकर उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया था.

इस प्रकार इतिहास के महान योद्धा बप्पा रावल ने हिंदुस्तान को न केवल अरब लुटेरों से बचाया, बल्कि अरब सीमा तक अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार भी किया.

बप्पा रावल एक न्यायप्रिय शासक थे। वे राज्य को अपना नहीं मानते थे, बल्कि शिवजी के एक रूप ‘एकलिंग जी’ को ही उसका असली शासक मानते थे और स्वयं उनके प्रतिनिधि के रूप में शासन चलाते थे। लगभग 20 वर्ष तक शासन करने के बाद उन्होंने वैराग्य ले लिया और अपने पुत्र को राज्य देकर शिव की उपासना में लग गये। महाराणा संग्राम सिंह (राणा सांगा), उदय सिंह और महाराणा प्रताप जैसे श्रेष्ठ और वीर शासक उनके ही वंश में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने अरब की हमलावर सेनाओं को कई बार ऐसी करारी हार दी कि अगले 400 वर्षों तक किसी भी मुस्लिम शासक की हिम्मत भारत की ओर आँख उठाकर देखने की नहीं हुई। बहुत बाद में महमूद गजनवी ने भारत पर आक्रमण करने की हिम्मत की थी और कई बार पराजित हुआ था। इसकी कहानी फिर कभी।

 

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