उत्तराखण्ड में जल-प्रबन्धन-2
प्राकृतिक जल संसाधनों जैसे तालाब, पोखर, गधेरे, नदी, नहर, को जल से भरपूर बनाए रखने में जंगल और वृक्षों की अहम भूमिका रहती है.जलवायु की प्राकृतिक पारिस्थितिकी का संतुलन बनाए रखने और वर्तमान ग्लोबल वार्मिंग के प्रकोप को शांत करके आकाशगत जल और भूमिगत जल के नियामक भी वृक्ष और जंगल हैं. इसलिए जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण उत्पन्न जलसंकट से उबरने और स्वस्थ पर्यावरण के लिए वनों की सुरक्षा करना परम आवश्यक है.
उत्तराखण्ड के अधिकांश वानिकी क्षेत्र नदियों के संवेदनशील प्रवाह क्षेत्र की सीमा के अन्तर्गत स्थित हैं. ये वानिकी क्षेत्र न केवल उत्तराखण्ड हिमालय की जैव-विविधता (बायो-डाइवरसिटी) का संवर्धन करते हैं बल्कि समूचे उत्तराखण्ड की पर्यावरण पारिस्थितिकी, जलवायु परिवर्तन तथा ग्लेशियरों से उत्पन्न होने वाले नदी स्रोतों के भी नियामक हैं. एक जलवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार उत्तराखण्ड में जलवैज्ञानिक पारिस्थिकी को प्रभावित करने वाले निकायों में इस समय 8 जल-प्रस्रवण संस्थान (कैचमैंट), 26 जलविभाजक संस्थान (वाटर-शैड), 116 उप-जलविभाजक संस्थान (सब-वाटर शैड), 1,120 सूक्ष्मजल विभाजक संस्थान (माइक्रो-वाटरशैड) सक्रिय हैं. वराहमिहिर इत्यादि प्राचीन भारतीय जलवैज्ञानिकों की भांति आधुनिक जल वैज्ञानिकों का भी यह मानना है कि नदियों एवं प्राकृत जलस्रोतों में जल की पर्याप्त उपलब्धि हेतु वनक्षेत्रों का संवर्धन एवं परिपोषण अत्यावश्यक है ताकि भूस्तरीय जलविभाजक एवं सूक्ष्म जलविभाजक जलनिकायों की भूमिगत जल नाड़ियां सक्रिय हो सकें.
हिमालय भूविज्ञान के विशेषज्ञ डा. वल्दिया और बड़त्या ने अपने शोधपूर्ण अनुसंधानों द्वारा सिद्ध किया है कि जलस्रोतों से पानी कम आने का कारण वनों की कटाई है. उन्होंने नैनीताल जिले में गौला नदी के जलागम क्षेत्र को लेकर किये गए एक अहम अध्ययन में 41 जलस्रोतों के जल प्रवाह का विश्लेषण किया और पाया कि 1952-53 और 1984-85 के बीच जलागम क्षेत्र में वन आवरण में 69.6 प्रतिशत से 56.8 प्रतिशत की कमी हुई है. वर्ष 1956 और 1986 के बीच भीमताल तथा जलागम क्षेत्र में 33 प्रतिशत की कमी आई. परन्तु जलस्रोतों में कमी 25 से 75 प्रतिशत की रही, जिससे अध्ययन क्षेत्र के 40 प्रतिशत गांव प्रभावित हुए. कुछ जलस्रोत तो पूरी तरह से सूख गए थे.
बांज के पेड़ जलसंग्रह में 23 प्रतिशत, चीड़ 16 प्रतिशत, खेत 13 प्रतिशत, बंजर भूमि 5 प्रतिशत और शहरी भूमि सिर्फ 2 प्रतिशत का योगदान करते हैं. डॉ. रावत की सिफारिश है कि पहाड़ की चोटी से 1,000 मीटर से 1,500 मीटर नीचे की तरफ सघन रूप से मिश्रित वन का आवरण होना चाहिए तभी जलागम स्रोतों की रक्षा संभव है.
कुमाऊं के 60 जलस्रोतों के एक अन्य अध्ययन से पता चला कि वनों की कटाई के कारण 10स्रोतों (17 प्रतिशत) में पानी का प्रवाह बंद हो गया था, 18 स्रोत (30 प्रतिशत) मौसमी स्रोत बन कर रह गए थे और बाकी 32 स्रोतों (53 प्रतिशत) में जल के प्रवाह में कमी दर्ज की गई. पर्यावरणविदों द्वारा इसका कारण यह बताया गया कि इन स्रोतों के आसपास के बांज के जंगल कट चुके थे.
उत्तराखंड जल संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार भी राज्य के 11 पहाड़ी जिलों में 500 जलस्रोतों में पानी का प्रवाह 50 प्रतिशत से ज्यादा घट गया है. सबसे ज्यादा असर पौड़ी, टिहरी और चम्पावत जिलों पर पड़ा है. कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर कालेज के डॉ. जे. एस. रावत के अनुसंधान अध्ययनों से भी ज्ञात हुआ है कि ऊपरी ढलान में यदि मिश्रित सघन वन हों तो भूजल में 31 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है. बांज के पेड़ जलसंग्रह में 23 प्रतिशत, चीड़ 16 प्रतिशत, खेत 13 प्रतिशत, बंजर भूमि 5 प्रतिशत और शहरी भूमि सिर्फ 2 प्रतिशत का योगदान करते हैं. डॉ. रावत की सिफारिश है कि पहाड़ की चोटी से 1,000 मीटर से 1,500 मीटर नीचे की तरफ सघन रूप से मिश्रित वन का आवरण होना चाहिए तभी जलागम स्रोतों की रक्षा संभव है.
उत्तराखण्ड के दूधातोली क्षेत्र में सच्चिदानन्द भारती ने आचार्य वराहमिहिर के जलवैज्ञानिक सिद्धांतों और फार्मूलों पर आधारित ‘वाटर हारवेस्टिंग’ के पुरातन जलवैज्ञानिक प्रयोगों की सहायता से इस क्षेत्र की बंजर पड़ी हुई 35 गांवों की जमीन में सात हजार ‘चालों’ का निर्माण करके जल संकट की समस्या के समाधान का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया है. उन्होंने वृक्षों, वनस्पतियों द्वारा भूमिगत जल नाड़ियों को सक्रिय करते हुए केवल तीन दशकों में ही 700 हेक्टेयर हिमालय भूमि पर जंगल उगाने और 20,000 तालाब पुनर्जीवित करने का उदाहरण प्रस्तुत किया है.
आज से 1500 वर्ष पूर्व हुए वराहमिहिर ने रेगिस्तान जैसे निर्जल प्रदेशों में भूमिगत जलस्रोतों को खोजने के नए नए उपाय बताए उसकी निशानदेही के आधार भी विभिन्न जातियों के वृक्ष ही थे. इसलिए भारतीय जलविज्ञान में वृक्ष एवं वन पोषित जलागम क्षेत्रों की मूल अवधारणा के जनक आचार्य वराहमिहिर ही थे. गौरतलब है कि उत्तराखण्ड के दूधातोली क्षेत्र में सच्चिदानन्द भारती ने आचार्य वराहमिहिर के जलवैज्ञानिक सिद्धांतों और फार्मूलों पर आधारित ‘वाटर हारवेस्टिंग’ के पुरातन जलवैज्ञानिक प्रयोगों की सहायता से इस क्षेत्र की बंजर पड़ी हुई 35 गांवों की जमीन में सात हजार ‘चालों’ का निर्माण करके जल संकट की समस्या के समाधान का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया है. उन्होंने वृक्षों, वनस्पतियों द्वारा भूमिगत जल नाड़ियों को सक्रिय करते हुए केवल तीन दशकों में ही 700 हेक्टेयर हिमालय भूमि पर जंगल उगाने और 20,000 तालाब पुनर्जीवित करने का उदाहरण प्रस्तुत किया है.
उत्तराखण्ड के इस महान जलवैज्ञानिक सच्चिदानन्द भारती को यदि आधुनिक वराहमिहिर की संज्ञा दी जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी.
‘चिपको आंदोलन’ के बाद के दौर में ‘रक्षा सूत्र आंदोलन’ वनों की रक्षा और नदियों को बचाने की दिशा में एक क्रन्तिकारी आंदोलन था. इस आंदोलन में जहां दूर-दूर के गांवों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की, वहां इस आंदोलन को प्रोत्साहित करने में हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान (हिपशिस) व इसके अध्यक्ष सुरेश भाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. महिलाओं ने संकटग्रस्त वृक्षों पर रक्षा-सूत्र बांधे.
‘रक्षासूत्र आंदोलन’ वनरक्षा का आंदोलन
इतिहास साक्षी है कि वनों के विनाश को रोकने में चिपको आंदोलन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी. भारत सरकार द्वारा आंदोलनकारियों के साथ सन् 1983 में एक समझौता किया गया था जिसके अनुसार सरकारी तंत्र ने वनों के संरक्षण का दायित्व स्वयं उठाया था. किन्तु सन् 1994 में सरकार ने नदी स्रोतों की चिंता किए बिना वन माफियाओं के दबाव में आकर समझौते का खुला उल्लंघन करते हुए 1000 मीटर की ऊँचाई से वनों के कटान पर लगे प्रतिबंध को 10 वर्ष बाद यह कहकर हटा दिया कि हरे पेड़ों के कटान से जनता के मूलाधिकारों की आपूर्ति की जाएगी. इसके बाद सन् 1983-98 के दौरान टिहरी, उत्तरकाशी जनपदों में गोमुख, जांगला, नेलंग, कारचा, हर्षिल, चैंरगीखाल, हरून्ता, अडाला, मुखेम, रयाला, मोरी, भिलंग आदि कई वनक्षेत्रों में वन माफियों द्वारा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई शुरु हो गई.
पर्यावरण संरक्षण से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं ने वनों में जाकर कटान का अध्ययन किया तो पता चला कि वन विभाग वन निगम के साथ मिलकर जंगलों में रातों-रात हजारों हरे पेड़ों को सूखा पेड़ दिखा कर अंधाधुंध कटान करवा रहा था. सन् 1994 में वनों की इस व्यावसायिक कटाई के विरुद्ध ‘रक्षासूत्र आन्दोलन’ की शुरुआत हुई.
‘चिपको आंदोलन’ के बाद के दौर में ‘रक्षा सूत्र आंदोलन’ वनों की रक्षा और नदियों को बचाने की दिशा में एक क्रन्तिकारी आंदोलन था. इस आंदोलन में जहां दूर-दूर के गांवों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की, वहां इस आंदोलन को प्रोत्साहित करने में हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान (हिपशिस) व इसके अध्यक्ष सुरेश भाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. महिलाओं ने संकटग्रस्त वृक्षों पर रक्षा-सूत्र बांधे. रक्षा-बंधन त्यौहार की तरह एक तरह से गांव की महिलाओं द्वारा पेड़ों को भाई मानते हुए यह संदेश दिया गया कि तुम हमारे पर्यावरण और जल संसाधनों की रक्षा करते हो अब यह रक्षा सूत्र बांध कर हम तुम्हारी रक्षा करेंगे.
चीड़ के पेड़ों का धीरे-धीरे कटान होना चाहिए और उनके स्थान पर चौड़ी पत्तियों वाले पेड़ लगाये जाने चाहिए. जलाशयों के पास बांज, बड़, खड़िक, शिलिंग पीपल, बरगद, तिमिल, दुधिला, पदम, आमला, शहतूत आदिे वृक्ष भूमिगत जल को रिचार्ज करने में विशेष रूप से उपयोगी हो सकते हैं.
रक्षासूत्र आन्दोलन के कारण ही भागीरथी, भिलंगना, यमुना, टौंस, धर्मगंगा, बालगंगा आदि कई नदी जलग्रहण क्षेत्रों में वन निगम द्वारा किए जाने वाले लाखों हरे पेड़ों की कटाई को सफलतापूर्वक रोक दिया गया . यहां तक कि टिहरी और उत्तरकाशी में सन् 1997 में लगभग 121 वन कर्मियों को वन मंत्रालय की एक जाँच कमेटी के द्वारा दोषी पाए जाने के कारण निलंबित भी किया गया था.
दरअसल, वृक्षों को बचाने की मुहिम इस क्षेत्र के वनों व नदियों की रक्षा से जुड़ी सार्वजनिक हित की मुहिम है. इसलिए इसके साथ हम सब के सरोकार और जरूरतें भी जुड़ीं हैं. वनरक्षा आंदोलन ने नदियों की रक्षा हेतु वनों की भूमिका के महत्त्व को उजागर किया है.जिसकी सैद्धांतिक और वैज्ञानिक पुष्टि हमारे प्राचीन शास्त्र और आधुनिक पर्यावरण वैज्ञानिक अध्ययन करते आए हैं. वनरक्षा आंदोलन का भी मुख्य नारा यही है-
“उँचाई पर पेड़ रहेंगे,नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे.”
आज भारत में जल‚जंगल और जमीन जैसे मूलभूत प्राकृतिक संसाधनों का इतनी निर्ममता से संदोहन किया जा रहा है जिसके कारण प्राकृतिक जलचक्र गड़बड़ा गया है. वनों और वृक्षों के कटान से कहीं बाढ़ की स्थिति आ रही है तो कहीं सूखे का प्रकोप छाया हुआ है. यह चिन्ता का विषय है कि भारत जैसे देश में जहां वृक्षों की पूजा होती है वहां आज केवल ग्यारह प्रतिशत वन क्षेत्र ही सुरक्षित रह गए हैं. जबकि यूरोप, अमरीका आदि विकसित देशों में आज भी तीन गुना और चार गुना ज्यादा वन क्षेत्र सुरक्षित हैं.अब यदि वर्त्तमान जल संकट की चुनौतियों का सामना करना है तो भूमिगत जलस्रोत को ऊपर उठाने के लिए भारी मात्रा में वृक्षारोपण की जरूरत है.
आज उत्तराखंड के जलागम क्षेत्रों को भारतीय जलविज्ञान के आधार पर फिर से हरियाली और वृक्षारोपण से पुनःप्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है. इसके लिए वनीकरण और खास तौर पर ऊपरी ढलानों पर चौड़ी पत्तियों वाले विभिन्न प्रजातियों के पेड़ लगाए जा सकते हैं. चीड़ के पेड़ों का धीरे-धीरे कटान होना चाहिए और उनके स्थान पर चौड़ी पत्तियों वाले पेड़ लगाये जाने चाहिए. जलाशयों के पास बांज, बड़, खड़िक, शिलिंग पीपल, बरगद, तिमिल, दुधिला, पदम, आमला, शहतूत आदिे वृक्ष भूमिगत जल को रिचार्ज करने में विशेष रूप से उपयोगी हो सकते हैं.
डॉ मोहन चंद तिवारी