काम करे मशीन शरीर करे जिम

आधुनिकता के नाम पर हम सुविधाभोगी और परजीवी होते जा रहे हैं। अपने पूर्वजों के विपरीत मेहनत करने की प्रवृत्ति से जी चुराने की वजह से हमारे शरीर में तमाम शारीरिक बीमारियां घर करती जा रही हैं और उनसे छुटकारा पाने के लिए डॉक्टर हमें जिम ‘ज्वाइन’ करने की सलाह देते हैं जबकि  ज्यादातर मामलों में हम अपनी जीवन शैली में बदलाव करके शरीर फिट रख सकते हैं।

लॉकडाउन के दौरान मेरे जैसे कसरत के मामले में अकर्मण्य जन भी खाली समय के सदुपयोग के लिए शौकिया तौर पर जुट गए थे। उसी दौरान गांव जाने पर भी यह उपक्रम कुछ दिनों तक चला। इसी बीच मेरे घर के एक सामूहिक आयोजन के लिए लकड़ियां  काटने के लिए आदिवासी समुदाय के एक व्यक्ति आए। लकड़ियां काटने से पूर्व उन्होंने अपनी बंडी निकाली तो हम सब तथाकथित युवाओं को शर्मिंदगी होने लगी क्योंकि उनके शरीर का कटाव किसी भी जिमजीवी युवा के ऐब्स को मात देने के लिए पर्याप्त था। शरीर में उस लेवल का कटाव लाने के लिए पता नहीं जिम में कितना पसीना बहाना पड़े और कौन-कौन सी प्रिय चीजों का त्याग करना पड़े। पर उन्हें तो अपने घर पर कभी मुकम्मल भोजन नसीब ही नहीं हुआ होगा। उसी दिन मुझे पता चला था कि वे मेरे दादाजी के सहपाठी रहे हैं तथा वर्तमान में लगभग 85 से ऊपर की आयु के हैं। यह मेरे लिए दूसरा प्रबल झटका था। अब तक तो मैं उन्हें अपने पिताजी का समवयस्क समझता था। उनका पूरा जीवन लकड़ियां काटते या भट्ठे पर ईंटें थापते बीता था। ‘एक्सरसाइज’ करने के लिए न उनके पास वक्त है और न ही उसकी आवश्यकता। उन्होंने जीवनभर भरपूर मेहनत की है जबकि मेरे पास एक बेहतरीन गढ़ा हुआ बहाना है कि ‘एक्सरसाइज’ के लिए वक्त की कमी है। उनका शरीर पूर्ण निरोगी है और लकड़ियां काटते समय उनकी सांसों में भारीपन का कोई एहसास नहीं होता जबकि स्टेशन की सीढ़ियां अगर दो-तीन बार लगातार चढ़नी पड़ जाएं तो हम लोगों के सीने में धौंकनी चलने लगती है। और स्टेमिना पाने के लिए हम ‘जिम’ की ओर भागते हैं।

हम सब इस सच्चाई से मुंह मोड़ते जा रहे हैं कि आधुनिकता की अंधी दौड़ और जीवन की आपाधापी में उन नुस्खों को भूल गए हैं जिन्हें हमारे ऋषि-मुनियों ने ऋचाओं के माध्यम से जन-जन के अंतःकरण में बिठा दिया था। आप कोई भी वेद, पौराणिक आख्यान या अन्य ग्रंथ उठा लीजिए। जीवन जीने और स्वस्थ शरीर के मानसिक और सामाजिक नुस्खे बिखरे पड़े मिलेंगे। हमारे पूर्वज उन शब्द मंत्रों को अपने जीवन में उतारते थे। योग और कुश्ती के दांवपेच विश्व को भारत की ही देन हैं, पर वर्तमान समय में हम सब ने अपने जीवन और दिनचर्या को मजाक बनाकर रख दिया है। इसीलिए हमारा शरीर और प्रकृति भी वही मजाक हमारे साथ दोहराते रहते हैं। अपने घर या गांव के किसी बुजुर्ग को पकड़िए और उनसे पूछिए कि उनके बचपन में किसी की जवानी में हार्ट अटैक से मौत होती थी? जवाब ‘नहीं’ में मिलेगा। उनसे पूछिए कि उनके बचपन में लोगों को शुगर( डायबिटीज मत बोल देना, समझ नहीं पाएंगे) की बीमारी होती थी? उस समय आपको खानपान और आचार-व्यवहार को लेकर इतने ताने सुनने को मिल जाएंगे कि भाग खड़े होने का मन करेगा। परये नहीं करना है। उसे सुनना है और उन अनुभवों को अपने जीवन में उतारना है। हमने और हमसे पहले की दो पीढ़ियों ने शारीरिक मेहनत और खानपान को लेकर अपने बुजुर्गों की हिदायतें अनसुनी करके ही इस तथाकथित दुर्लभ दशा को प्राप्त किया है। और उस मोटापे को भगाने के नाम पर फैशन के लिए हम ‘जिम’ का रुख करते हैं।

सुख-सुविधाओं के नाम पर हम मशीनों पर आश्रित होते जा रहे हैं। अगर सौ-दो सौ मीटर भी जाना हो तो ऑटोरिक्शा लेना एक फैशन सा बन गया है। ‘चिल्ड एसी तले मोबाइल बाबा की सेवा में’ दो-तीन बजे तक जागेंगे ताकि वे नाराज न हो जाएं। फेसबुक पर किसी भी पुरुष और महिला(यहां परिचय मायने नहीं रखता, केवल उम्र और फिगर की विशेषताएं सद्विचार के लिए काफी हैं।) की पोस्ट पर कम से कम एक इमोजी बनाए बिना आगे बढ़ गए तो काहिलगिरी मानी जाएगी। आखिर, अपनी स्वयं की घिसीपिटी पोस्ट पर भी तो कमेंट पाने की लालसा रहती हैं। परंतु सुबह सैर पर जाने या योग करने के लिए समय न होने का रोना रोते हैं। कमर का 5 बाई 7 का कमरा धीरे-धीरे 3 बीएचके और कभी-कभी तो 4-5 बीएचके तक बन जाता है। उधर पेट के अंदर लिवर बेचारा ओवरटाइम कर रहा होता है और इधर महोदय या महोदया हर उस खाद्य को उदरस्थ करते जाते हैं जो समय-कुसमय सामने दिखता जाता है। दिल तो होता ही बेचारा है! कुछ लोग तो तेल मसाले का इतना अधिक अवशोषणकरते हैं, ठेठ में कहें तो पीते हैं, कि उनका दिल तो केवल तेल-मसाले को सूंघ-सूंघकर ही बेहोश हो जाता है और बाइपास सर्जरी करवानी पड़ती है। उस पर भी तुर्रा यह कि सारा दोष उस बीमार दिल को देंगे और लोगों को बताएंगे कि उनकी बाइपास सर्जरी हुई है, न कि दिल की। स्वार्थ की पराकाष्ठा को स्वयं पार करेंगे और हाथ पांव न चलाने के लिए ससुरे दिल को दोष देंगे। बहुत सारे काम हैं जिनके लिए अपने हाथों और पैरों को जुम्बिश दे सकते हैं, लेकिन नहीं करेंगे। और हाथ-पैर के दर्द और जकड़न को दूर करने के लिए ‘जिम’ की सेवा करेंगे।

पहले घरों में देशी रसोई होती थी। उसमें चूल्हा नीचे जमीन पर होता था और प्रयोग में आने वाली सारी चीजें इधर-उधर बिखरी रहती थीं तथा दाल, चावल से लेकर नमक, हल्दी, नमक, जीरा वगैरह जैसी खाना बनाने के दौरान लगातार उपयोग में आने वाली चीजों की आलमारी ऊपर होती थीं। उन्हें लेने के लिए महिलाओं को बार-बार उठना पड़ता था। इससे उनका व्यायाम भी हो जाता था और पता भी नहीं चलता था। आज के माड्यूलर किचन में वे सभी खूबियां गायब हैं। आराम से खड़े-खड़े केवल हाथों को घुमाइए और हर आवश्यक चीज आपकी पहुंच में। बुद्धिजीवी मानते हैं कि सबसे बड़ा अभिशाप है, बिना मेहनत किए प्रतिफल प्राप्त हो जाना। पहले महिलाएं रोज जांत(घरेलू चक्की) पर गेहूं पीसती थीं। इससे उनके पूरे शरीर का व्यायाम तो होता ही था, साथ ही कूल्हे की दोनों तरफ की हड्डियों के बीच की जगह बढ़ जाती थी जिस वजह से उन्हें बच्चे पैदा होते समय कम तकलीफ होती थी। आज भारत में लगभग 20 प्रतिशत बच्चे सिजेरियन आपरेशन से होते हैं। शादी के समय हर पति को अपनी पत्नी की कमर गुलाब की डाली लगती है और पत्नी तो साक्षात मल्लिका शेहरावत का देसी रूप। उसे तकलीफ न हो इसलिए सारी आधुनिक सुविधाओं की रेहड़ी लगा दी जाती है। काम की माडर्न रूपरेखा यूं बना देंगे कि मैडमजी को हाथ न हिलाना पड़े। वाशिंग मशीन ने तो अलग गदर मचा रखा है। पानी की बर्बादी हाथों को खूब आराम तो देती ही है, सास बहू के सीरियल के लिए भी भरपूर समय निकल जाता है। फिर दो-चार साल बीतते-बीतते मैडमजी कब मल्लिका शेहरावत से मल्लिका दुआ बन जाती हैं कि पता ही नहीं चलता। ऐसा नहीं है कि यह केवल शहरों में या किसी वर्ग विशेष के बीच फैल रहा है बल्कि हर गांव, हर वर्ग, हर समाज इसकी चपेट में है। आज आलस्य ने शरीर, मन और दिमाग हर जगह अपना कब्जा कर लिया है और चाल को मन्थर कर दिया है। और इस ओढ़े गए आलस्य को मिटाने के लिए महिलाएं ‘जिम’ के ट्रेडमिल पर आसन जमाती हैं।

भारत में आज भी लोग लकड़ी के पीढ़े पर बैठकर खाते हैं, जबकि खाने की थाली जमीन पर रखी होती है। मुझे यह पसंद नहीं था। इसलिए मैं चटाई का इस्तेमाल करना पसंद करता था क्योंकि उससे खाने का कौर उठाने के दौरान पेट नहीं दबता था। लेकिन एक बार मेरी दादी ने प्यार और धमकी के मिले-जुले स्वर में समझाया कि, जीवन के लिए खाना जरूरी है लेकिन खाने को बराबरी की हैसियत देने से वह तुम्हारे ऊपर हावी हो जाएगा और मंद बुद्धि बना देगा। कभी स्कूल का मुंह न देखने वाली मेरी दादी ने बहुत ही सरल तरीके से बेहतरीन ज्ञान दे दिया, जो शायद उनकी मां या दादी ने उन्हें समझाया होगा। यह तो बहुत बाद में पता चला कि इस तरीके से खाने पर कौर उठाने के दौरान पेट दबता है जिस कारण आप उतना ही खाते हैं जितनी शरीर की आवश्यकता है और वजन बढ़ने के कई कारणों में से एक पीछे छूट जाता है। हमारे बजुर्गों ने जीवन के पाठ अंग्रेजी मानसिकता के दीवाने किसी मास्साब ने नहीं बल्कि जीवन की पाठशाला के सार्वभौमिक आचार्यों की सूक्तियों को आत्मसात करके पीढ़ी दर पीढ़ी अनुभव में ढाला था। उन्होंने सोकर उठते ही तांबे के बरतन में रखा हुआ पानी पीने की रवायत रखी थी और रात का खाना सात से आठ बजे तक खा लिया जाता था। आज भी गांव में बहुत सारे घरों में यह प्रथा है। साथ ही, हम सबने ठंडे मौसम में रहने वाले अंग्रेजों की भांति बेड टी नामक जीव को पाल रखा है। वह जीव इतना हावी हो गया है कि जब तक आप उसे अपनी जठराग्नि के हवाले न करें, प्रातः निवृत्ति के कार्यक्रम का प्रेशर ही नहीं बन पाता। आज डॉक्टर भी कह रहे हैं कि रात का भोजन जल्दी कर लेना चाहिए ताकि उसे पचने के लिए पर्याप्त समय मिल जाए। जबकि बीच में तो ऐसा समय आ गया था कि दिन भर चाहे जितना हल्का खा लें लेकिन रात का खाना दबाकर ठूंसते थे। म. गांधी का एक घोषवाक्य था, ‘जीने के लिए खाओ, खाने के लिए मत जियो।’ पर कुछ लोगों को देखकर लगता है, कि उनका जन्म ही अन्न की बर्बादी करने के लिए हुआ है। उनका पेट सड़ने की कगार पर खड़े कद्दुओं से भरी बोरी सा हो जाता है। जमीन पर बैठ जाने के बाद उठाने के लिए दो लोगों के सहारे की आवश्यकता पड़ती है। उनकी तोंद घर के बच्चों की धमाचौकड़ी का प्रमुख अड्डा होता है। उन पर सांस फूलने से लेकर हर उस रोग की दवा का परीक्षण किया जाने लगता है जो गरदन के नीचे के हिस्से पर अतिक्रमण कर सकती है। और फिर डॉक्टर की धमकी भरी चेतावनी के बाद पत्नी-बच्चों के दबाव में ‘जिम’ पर एहसान करते हैं।

कैरियर और पैसे कमाने की आपाधापी के बीच मुस्कुराहट और स्वास्थ्य भी जीवन के आवश्यक अंग हैं, यह बताने के लिए अभियान चलाने की आवश्यकता पड़ रही है। अब शहरों में लाफ्टर क्लब खुलने लगे हैं। कामेडी फिल्मों की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। धीरे-धीरे ही सही पर लोगों को समझ में आने लगा है कि जीवन और पैसे का लुत्फ उठाना है तो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बहुत जरूरी है। जीवन दर्शन को व्याख्यायित करने वाली हर प्राचीन और नवीन प्रणाली के प्रयोगों पर आधारित छुट्टियां अब लोगों को प्रभावित करने लगी हैं। गांवों को दोयम दर्जे पर रखकर स्विटजरलैंड छुट्टियां मनाने वाले भी अब चाहते हैं कि गांव में एक घर होना ही चाहिए। कोविड काल में लोगों को समझ में आ गया कि पैसा और चमक-दमक ही सब कुछ नहीं है। और सबसे बड़ी बात, कमाऊ व्यक्ति का एकाएक दुनिया से चले जाना परिवार को इतना दयनीय बना देता है कि व्याख्या करना मुश्किल है। मुंबई की चौपाटियों से लेकर बाग, पार्क यहां तक कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी लोग सुबह टहलने से लेकर पैदल बाजार जाने जैसे नियमों को फिर से अपनाने लगे हैं। साइकिलों की बिक्री बढ़ गई है। सॉफ्ट ड्रिंक, प्रोसेस्ड फूड की जगह अब हरी सब्जियों और फलों ने धीरे-धीरे हमारे फ्रिज में जगह बनाना शुरू कर दिया है। खाने के मामले में भी पुरानी पद्धति और मोटे अनाज का प्रचलन बढ़ रहा है। उसी प्रकार हमें जीवन पद्धति में बहुत सारे सुधार कर पुरातन नियमों को ज्यादा से ज्यादा अपनाने की आवश्यकता है। ताकि हम मजबूरी वश नहीं, बल्कि अपने शरीर को और मजबूत बनाने के लिए ‘जिम’ जाएं।

 

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