शिल्पकारों का बडा सम्मान

संस्कृत में एक श्लोक है;

तक्षश्च तन्त्रवायश्च नापितो रजकस्तथा।
पञ्चमः चर्मकारश्च कारवः शिल्पिनो मताः॥

इसका हिंदी में अर्थ है तक्ष (मूर्तिकार), तन्तुवाय (बुनकर), नापित (नाई), धोबी और चर्मकार (चमार), ये पाँच शिल्पकार माने गए हैं।

प्राचीन काल में हडप्पा से लेकर राजपूतों के 12वीं शताब्दी के शासन तक शिल्पकारों का बडा सम्मान था। राज्य के शिल्प प्रधान को “महत्तर” कहा जाता था। राजस्थान के महलो, अजंता, ऐलोरा से लेकर तंजौर के वृहदीश्वर मंदिर तक शिल्प से ही आज हम अपनी विरासत समझ पा रहे हैं। नहीं तो हमारा संपूर्ण इतिहास अंधेरे में डूब जाता।

इस्लामी आक्रमणों में सबसे पहले राजपूत राजाओं की रक्षा पंक्ति को भेदने के साथ ही उन्होने हिंदू शिल्पियों के समाज से बहिष्कार कर दिया और निम्न कोटि का बना दिया। हिंदू कला और शिल्प को खत्म करने का हर संभव प्रयास किया इसी क्रम में हमारे मंदिरों, को, तक्षशिला, नालंदा को सैकड़ों वर्षों तक जलाया गया।

आज के समय में समाज के बाहर समझे जाने वाले तथा सिर पर मैला ढोने वाले “मेहतर” ही कभी हमारे गौरवशाली इतिहास के कथानायक “महत्तर” हुआ करते थे। मेहतरों को उनके मूल कर्म से निकालकर सिर पर मैला ढोने के कार्य में बर्बर इस्लामी शासन में लक्षित रूप से लगाया गया।

इनकी सामाजिक व्यवस्था को इस्लामी शासन द्वारा बल पूर्वक भंग करवाने के कारण ही इन्हें सम्बोधन हेतु “भंगी” शब्द का चलन भी संभव हुआ। पंजाब आदि क्षेत्रों में शूद्र शब्द ही छुद्र से चूहड़ा बना। परन्तु ध्यान देने की बात यह है की शूद्र ऋग्वैदिक काल से ही हमारी सनातन परंपरा के अंग हैं।

आज हमें अपने गौरवशाली अतीत को पुनः स्थापित करने के लिए ऐसे परित्यक्त समाज को पुनः हिंदू समाज की मुख्य धारा में लाने का कार्य करना चाहिए। ऐसे में संघ के “सहभोज कार्यक्रम” की संकल्पना समाज में पैदा हुए जातीय विभेद को मिटने का अच्छा साधन बन सकती है। ऐसे सहभोज हर गांव में हर वर्ष आयोजित होने चाहिए जिससे स्वयं को हासिए पर मानने वाला समाज स्वयं को समाज की मुख्य धरा में शामिल कर सके।

हिन्दव: सोदरा: सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत्।

 

Leave a Reply