हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
माता-पिता में बसते हैं समस्त तीर्थ

माता-पिता में बसते हैं समस्त तीर्थ

by हिंदी विवेक
in अवांतर, जीवन, विशेष, सामाजिक
0

देश में वृद्ध लोगों की संख्या तीव्र गति से बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत की वृद्ध जनसंख्या वर्ष 2050 तक वर्तमान में लगभग 20 प्रतिशत होने का अनुमान है। वर्तमान में यह दर 8 प्रतिशत है। वर्ष 2050 तक वृद्धों की संख्या में 326 प्रतिशत की वृद्धि होने का अनुमान है, जबकि इनमें 80 वर्ष एवं उससे अधिक आयु के लोगों की संख्या में 700 प्रतिशत होने का अनुमान है। गैर सरकारी संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार लॉक डाउन की समयावधि में 73 प्रतिशत वृद्धों के साथ दुर्व्यवहार किया गया, जबकि 35 वृद्धों को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ा अर्थात उनके साथ उनके ही परिवार के सदस्यों ने मारपीट की।

चिंता का विषय यह है कि जिस प्रकार वृद्धों की यह संख्या निरंतर बढ़ रही है तथा परिवारजनों द्वारा वृद्धों की अवहेलना की जा रही है, ऐसी स्थिति में उनका जीवन स्तर क्या होगा? ऐसे समाचार भी सुनने को मिलते रहते हैं कि अमुक व्यक्ति विदेश में रहता है तथा उसके अकेले रह रहे वृद्ध पिता या माता की मृत्यु हो गई। शव की दुर्गंध आने पर पड़ोसियों ने पुलिस को सूचना दी। ये मामले बहुत ही अमानवीय हैं। माता-पिता अपने कई बच्चों को अकेले पाल लेते हैं, परंतु कई बच्चे मिलकर भी अपने वृद्ध माता-पिता की देखभाल नहीं कर पाते। ऐसी स्थिति क्यों है? उत्तर यही है कि उनके मन में माता-पिता के लिए मान-सम्मान एवं प्रेम नहीं है। इसका स्थान स्वार्थ ने ले लिया है।

हमारी गौरवशाली प्राचीन भारतीय संस्कृति में परिवारजनों विशेषकर वृद्धजनों को बहुत मान-सम्मान दिया गया है। रामायण का उदाहरण देखें- भगवान राम ने अपने पिता के वचन को पूर्ण करने के लिए राजपाट त्याग कर चौदह वर्षों का वनवास सहर्ष स्वीकार कर लिया। सीताजी राजभवन का सुख त्याग कर अपने पति के साथ वनवास साथ गईं। लक्ष्मणजी ने भी अपने भाई की सेवा के लिए वनवास का चयन किया। भरत ने भी राजपाट का चयन न करके वनवासी जैसा जीवन व्यतीत किया। रामायण में कहा गया है-

यतः मूलम् नरः पश्येत् प्रादुर्भावम् इह आत्मनः ।
कथम् तस्मिन् न वर्तेत प्रत्यक्षे सति दैवते ॥

अर्थात जब मनुष्य की स्वयं की उत्पत्ति के मूल में पिता हैं, तो वह पिता के रूप में विद्यमान साक्षात देवता को क्यों नहीं पूजता?

रामायण में यह भी कहा गया है-

सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा।
शान्ति: पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम बान्धवा:॥

अर्थात सत्य मेरी माता के समान है, ज्ञान मेरे पिता के समान है, धर्म मेरे भ्राता के समान है, दया मेरे मित्र के समान है तथा शांति मेरी पत्नी के समान है, क्षमाशीलता मेरे पुत्र के समान है। इस प्रकार ये छह गुण ही मेरे निकट संबंधी हैं।

माता-पिता अनेक दुख एवं कष्ट सहकर अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं। बच्चे बड़े होकर सोचते हैं कि उन्होंने उनके लिए क्या ही किया है अथवा यदि कुछ किया है, तो यह उनका कर्तव्य था। कुछ लोग अपने माता-पिता को जीविकोपर्जन के लिए कुछ धन देकर सोचते हैं कि उन्होंने अपना ऋण उतार दिया, जबकि ऐसा नहीं होता। वे अपने माता-पिता का ऋण कभी नहीं चुका सकते। इस विषय में रामायण में कहा गया है-

यन्मातापितरौ वृत्तं तनये कुरुतः सदा
न सुप्रतिकारं तत्तु मात्रा पित्रा च यत्कृतम्

अर्थात माता-पिता अपने बच्चों के लिए जो कुछ करते हैं, उसका ऋण कभी नहीं चुकाया जा सकता।

माता-पिता बच्चों के लिए उनका समस्त संसार होते हैं। इस संदर्भ में महाभारत में कहा गया है-

‘माता गुरुतरा भूमेः पिता चोच्चतरं च खात्।
अर्थात् माता भूमि से भारी है तथा पिता आकाश से भी ऊंचा है।

जो लोग अपने माता-पिता की सेवा करते हैं, वे जीवन में सबकुछ प्राप्त कर लेते हैं। पद्मपुराण में कहा गया है-

पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥

अर्थात पिता ही धर्म है, पिता ही स्वर्ग है तथा पिता ही सर्वश्रेष्ठ तपस्या है। पिता के प्रसन्न होने पर समस्त देवता प्रसन्न होते हैं।

नि:संदेह पिता ही बच्चों को वह सब प्रदान करता है, जिसकी उन्हें आवश्यकता होती है। चाणक्य नीति में कहा गया है-

जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृताः

अर्थात जो हमें जन्म देते हैं, जो हमें ज्ञान का मार्ग दिखाते हैं, हमें विद्या प्रदान करते हैं, जो हमारे अन्नदाता हैं तथा हमारी भय से रक्षा करते हैं, वे पांचों गुण पिता के हैं।

मनुष्य पुण्य की प्राप्ति के लिए तीर्थ स्थानों की यात्रा करता है तथा देवी-देवताओं को प्रसन्न करने का यथासंभव प्रयास करता है, जबकि उसके समस्त तीर्थ उसके निकट ही होते हैं। उस पर उसका तनिक भी ध्यान नहीं जाता। इस विषय में पद्मपुराण में कहा गया है-

सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्

अर्थात मनुष्य के लिए उसकी माता सभी तीर्थों के समान है तथा पिता सभी देवताओं के समान है। अतः उसे अपने माता-पिता की पूजा करनी चाहिए अर्थात उनका मान-सम्मान करना चाहिए।

मनुष्य को तीर्थों में देवताओं को खोजने के स्थान पर अपने पिता में उन्हें खोजना चाहिए। इस संदर्भ में गरुड़पुराण में कहा गया है-

पितृन्नमस्ये निवसन्ति साक्षाद्ये देवलोकेऽथ महीतलेवा ॥
तथान्तरिक्षे च सुरारिपूज्यास्ते वै प्रतीच्छन्तु मयोपनीतम् ॥

अर्थात मैं अपने पिता के समक्ष झुकता हूं, जिसमें समस्त लोकों के समस्त देवता निवास करते हैं। वास्तव में मेरे पिता ही मेरे देवता हैं।

गरुड़पुराण में यह भी कहा गया है-

पितृन्नमस्येदिवि ये च मूर्त्ताः स्वधाभुजः काम्यफलाभिसन्धौ ॥
प्रदानशक्ताः सकलेप्सितानां विमुक्तिदा येऽनभिसंहितेषु ॥

अर्थात मैं अपने पिता को नमन करता हूं, जो सभी देवताओं का प्रत्यक्ष रूप हैं, जो मेरी सभी आकांक्षाओं को पूर्ण करते हैं। मेरे पिता मेरे हर संकल्प को सिद्ध करने में मेरे आदर्श हैं, जो मेरी कठिनाइयों एवं चिंताओं से मुझे मुक्त करते हैं। ऐसे प्रभु के रूप में मैं अपने विघ्नहर्ता पिता को प्रणाम करता हूं।

वास्तव में पिता ही बच्चों के लिए राजा का प्रतिरूप है। मनुस्मृति में कहा गया है-

पिता मूर्त्ति: प्रजापते
अर्थात पिता प्रजापति अर्थात राजा अर्थात ईश्वर का ही मूर्तिरूप है, क्यों वह उसका पालन-पोषण करता है।

आज इसी ईश्वर रूपी माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा है। वास्तव में मनुष्य भूल जाता है कि उसे भी वृद्ध होना है। आज जो व्यवहार वे अपने माता-पिता के साथ कर रहा है, कल वही व्यवहार उसके बच्चे उसके साथ भी कर सकते हैं। वैसे बच्चे जैसा देखते हैं, वैसा ही व्यवहार करते हैं। देश में बहुत से वृद्धाश्रम हैं, परंतु उनकी संख्या बहुत ही कम है। उनमें सुविधाओं का भी अभाव है। वृद्धाश्रम उनके लिए तो उचित हैं, जिनका अपना कोई नहीं है। किन्तु जिनके बच्चे हैं, उनके लिए वृद्धाश्रम में रहना स्वयं में कष्टदायी है। वृद्धों की इस समस्या से निपटने के लिए नैतिक शिक्षा अत्यंत आवश्यक है। लोगों को चाहिए कि वे अपने माता-पिता का मान-सम्मान करें तथा अपने बच्चों को भी इसकी शिक्षा दें।

-डॉ. सौरभ मालवीय

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp

हिंदी विवेक

Next Post
विख्यात कलाकार सईद जाफरी जी की डायरी का एक पन्ना

विख्यात कलाकार सईद जाफरी जी की डायरी का एक पन्ना

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0