हिंदुओं की आस्थाओं पर प्रहार क्यों ?

दिन प्रति दिन कोई न कोई कथित विद्वान और महान फेसबुकिया लेखक अब खुलकर हिन्दुओं की आस्थाओं पर प्रहार करने लगा है। ये एक सुनियोजित षड्यंत्र है या बौद्धिक पतन की पराकाष्ठा ये मुझ अकिंचन को तो नहीं पता। ऐसे व्यक्तियों को प्रोत्साहन और समर्थन देने वाले भी लोग कम नहीं हैं इस पटल पर।

कहते हैं जहां आस्था का प्रश्न हो वहां तर्क नहीं किया जाता।
सनातन हिंदू धर्म में हर एक की आस्था हेतु स्थान है।
नाग, अग्नि, सूर्य,जल, वृक्ष सबकी पूजा का विधान है।

आप मंदिर जाते हैं या नहीं जाते, आप धार्मिक हैं या आध्यात्मिक, आप आस्तिक हैं या नास्तिक आपकी भक्ति प्रेम भाव की है या बैर भाव की इसको लेकर कभी प्रश्न नहीं किए जाते।
जहां रोम रोम में राम, कण कण में कृष्ण और हर कंकर में शंकर को देखने की सनातन परम्परा रही है अब इस पर खुल कर प्रहार किया जाने लगा है।

सबके निशाने पर देवाधिदेव महादेव शिव और उनके भक्त ही हैं। क्योंकि वो ही प्रकृति के प्रथम देवता हैं जिनका प्रमाण सभ्यताओं के उदय के साथ ही प्राप्त होता है।शिव अनादि, आदि, मध्य और अनंत है। शिव है प्रथम और शिव ही हैं अंतिम। शिव है सनातन धर्म का परम कारण और कार्य। शिव है धर्म की जड़। शिव से ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। सभी जगत शिव की ही शरण में है, जो शिव के प्रति शरणागत नहीं है वह प्राणी दुख के गहरे गर्त में डूबता जाता है ऐसा पुराण कहते हैं। जाने-अनजाने शिव का अपमान करने वाले को प्रकृ‍ति कभी क्षमा नहीं करती है।
शिव वेद-शास्त्र वर्णित देवता हैं। वेदों में इनका उल्लेख रूद्र के रूप में किया गया है। रुदिर् अश्रुविमोचने इस धातु से णिच् प्रत्यय होने से रुद्र शब्द सिद्ध होता है।
भगवान शिव का सांगोपांग व्यक्तित्व ही प्रकृति से जुड़ा है। शिव प्रकृति के देवता हैं। गंगा को धारण कर उन्होंने जल के महत्व को प्रदर्शित किया। सर्प को गले में धारण कर जीवदया और जीव संवेदना का संदेश दिया। कैलाश पर रहकर पर्वतों के महत्व को प्रदर्शित किया। उनके सिर पर चंद्रमा शीतलता का प्रतीक है। तीसरी आंख प्रलयंकारी है, जो संहारक है। शिव का भोलापन कल्याणकारी है। शिव की भक्ति ही प्रकृति की पूजा है, जो हर व्यक्ति को कम से कम श्रावण में तो करना ही चाहिए।

शिव और सोमवार, शुचिता, सौम्यता और सादगी के प्रतीक हैं। तीनों ही का प्रकृति से सीधा संबंध है। शिव ऐसे ही तो नहीं प्रकृति के देवता हैं। हिमालय शिव का अधिवास है। शिव आदिदेव हैं। वे देवताओं के भी देवता हैं। अणिमादि सिद्धियों के प्रदाता हैं। विश्व के पहले वैद्य हैं। पहले योगी हैं। पहले शिक्षक हैं और प्रथम पुरुष हैं। यह सारी सृष्टि ही उनकी कृपा का विस्तार है। उन्होंने ही विष्णु को ऊॅं ,योग, नाद,अक्षर,व्याहृतियों और विंदु का ज्ञान कराया। पाणिनी व्याकरण के चौदह सूत्रों जिससे स्वर और व्यंजन बने, का उद्गम स्थल भगवान शिव का डमरू ही है। इसीलिए नाद को ब्रह्म कहा गया है। अक्षर ब्रह्म है। स्वर ब्रह्म है।

अक्षर और स्वर दोनों ही के उत्पत्तिकर्ता भगवान शिव हैं। कर्पूर की तरह गोरे हैं भगवान शंकर। उनसे अधिक गोरा धरती पर कोई है ही नहीं लेकिन खुद को ऐसा कुरूप बना लिया है कि जो देखे, वह हतप्रभ हुए बिना न रहे। विष्णु चार भुजाओं वाले हैं। ब्रह्मा चार मुख वाले हैं लेकिन भगवान शिव पांच मुखों के अधिपति हैं।

‘विस्नु चारि भुज विधि मुख चारी। विकट वेस मुख पंच पुरारी।। ‘

शिव सुंदर हैं, सत्य हैं, सरल हैं, सहज हैं और अपने भक्तों पर शीघ्र कृपा करने वाले हैं।
‘आसुतोष तुम अवघड़दानी।’
भक्तों की हर विपत्ति, उनके दैहिक, दैविक, भौतिक तापों को भी दूर करने वाले हैं। उनके भक्त तो अमृत पीते हैं लेकिन उनके हिस्से का विष वे स्वयं पी जाते हैं। यह उनकी भक्तवत्सलता नहीं तो और क्या है? संसार का कल्याण ही उनका अभीष्ठ है। इसकी पूर्ति के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।

शिव के वैविध्यपूर्ण नामों एवं रूपों की चर्चा के लिए हिन्दू मंदिरों में शिव प्रतिमाओं से अच्छा माध्यम और क्या हो सकता है। हमारे प्राचीन मंदिरों में शिव के इन रूपों का विशद और विशेष चित्रण किया गया है जो आज भी कलाकारों एवं शोधकों के लिए अभ्यास का विषय है। हर प्रदेश की विशिष्ट कला शैली और लोक कथाओं से एकरूप होती इन प्रतिमाओं का अभ्यास हमें हमारे प्राचीन आध्यात्मिक दर्शन के साथ–साथ हमारे इतिहास से भी परिचय कराता है। वेद, वेदान्तों और उपनिषदों के उपरान्त लोक गाथाओं में भी शिव अपना अलग स्थान रखते हैं और शिव के इन सभी मंदिरों में हमें जनमानस से शिव का यह जुड़ाव प्रतीत होता है।

भगवान शिव और उनके भक्तों की आस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाले यदि वामपंथी या विधर्मी होते तो वैचारिक प्रतिउत्तर दे दिया जाता पर ये तो राष्ट्रवादी और सनातन धर्मी हैं इनका क्या किया जाय?

हमें कुछ नहीं करना है क्योंकि ये वेद वर्णित है कि,

यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति
यत् कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते।। – यजुर्वेद

अर्थात – जीव जिस का मन से ध्यान करता उस को वाणी से बोलता, जिस को वाणी से बोलता उस को कर्म से करता, जिस को कर्म से करता उसी को प्राप्त होता है। इस से क्या सिद्ध हुआ कि जो जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है। जब दुष्ट कर्म करनेवाले जीव ईश्वर की न्यायरूपी व्यवस्था से दुःखरूप फल पाते, तब रोते हैं और इसी प्रकार ईश्वर उन को रुलाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम रुद्र है।

शिव तो उदार हैं भोलेनाथ हैं बैर भाव की भक्ति भी स्वीकार कर लेते हैं किंतु उनकी अर्धांगिनी शक्ति स्वरूपिणी माई पार्वती के साथ ऐसा नहीं है। वही न्याय करेंगी महाकाली रूप में!

गुरु माई पार्वती कहती हैं,

बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥

प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥

तो परमब्रह्म प्रभु श्री राम भी तो कहते हैं,

शिव द्रोही मम दास कहावा, सो नर मोहि सपनेहु नहि पावा।

जय शिव शम्भू!

~स्वाध्याय पर आधारित

✍️ डॉ.अतुल पति त्रिपाठी जी

 

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