भारतीय शिक्षा-पद्धति में सुधार, परिष्कार और समयानुकूल परिवर्तन हेतु नीति-निर्धारण के लिए भारत सरकार ने विगत समय में प्रसिद्ध वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया था। उस समिति ने अपने सुझावों का प्रारूप ३१ मई २०१९ को मानव संसाधन मन्त्रालय को सौंप दिया। समिति ने अपने प्रारूप में ‘त्रिभाषा फार्मूला’ को पुनः लागू करने की सिफारिश की थी, जिसके अनुसार प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा हिन्दी और अन्तर-राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी इन तीनों भाषाओं को आरम्भ से ही पढ़ना प्रस्तावित था। यद्यपि यह विचारार्थ केवल प्रारूप था जिस पर सरकार और जनता के विचार लिए जाने थे, किन्तु दक्षिण के, विशेषतः तमिलनाडु के राजनेताओं ने त्वरित प्रभाव से इसका विरोध करना आरम्भ कर दिया। अभी विरोध का दौर शुरुआत में ही था कि वर्तमान भारत सरकार इतनी भयभीत हो गई कि उसके चार-पांच वरिष्ठ मन्त्री मीडिया के माध्यम से बचाव में आ गये और उन्होंने अप्रत्याशित रूप से यह घोषणा कर दी कि सरकार ने त्रिभाषा फार्मूले अर्थात् हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन के प्रस्ताव को प्रारूप से ही हटा दिया है। शिक्षानीति समिति के एक-दो सदस्यों ने सरकार के इस कदम का भी विरोध किया है कि उनकी सहमति के बिना उनके प्रस्ताव को हटा दिया।
लगभग प्रत्येक शिक्षानीति-निर्धारक समिति ने सम्पूर्ण भारत में हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन के लिए बल दिया है। इसकी पृष्ठभूमि में महत्त्वपूर्ण भावना यह रही है कि इससे भारत की एकता, अखण्डता सुदृढ़ होगी और अहिन्दीभाषी लोग मुख्यधारा से जुड़ेंगे जिससे उनके सामाजिक, व्यापारिक, राजनीतिक एवं शासकीय हित पूर्ण होंगे। भारत में ७०-८० प्रतिशत लोग हिन्दी को बोलते-समझते हैं। हिन्दी ही एकमात्र भाषा है जो राष्ट्रभाषा बनने की योग्यता रखती है और राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोये रखने की क्षमता रखती है। इसीलिए भारत के हिन्दीभाषी और गैर-हिन्दीभाषी तटस्थ एवं दूरदर्शी नेताओं, जैसे- चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, महर्षि दयानन्द सरस्वती, सुभाषचन्द्र बोस, बाल गंगाधर तिलक, पं० मदनमोहन मालवीय, लाल लाजपतराय आदि ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में अपना मत दिया है। भारत की स्वतन्त्रता का आन्दोलन हिन्दी के माध्यम से ही लड़ा गया था।
हिन्दी की महत्ता, योग्यता, क्षमता और वैश्विक व्यापकता को अनुभव करके विश्व के १५० से अधिक देशों ने अपने यहां हिन्दी के शिक्षण की व्यवस्था की हुई है, किन्तु भारत के दक्षिण प्रान्तों, मुख्यतः तमिलनाडु के कुछ राजनेता लम्बे समय से हिन्दी-विरोध की राजनीति करके जनता को भड़काते रहे हैं और अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे हैं। वस्तुतः वे नेता अपनी जनता के शत्रु हैं और उन्होंने ऐसा करके अपनी जनता का अब तक अहित किया है। दक्षिण की जनता को यह गम्भीरता से सोचना चाहिए कि संकीर्ण राजनीति करने वाले नेताओं ने उनको आज तक भारत की मुख्यधारा में भागीदार बनने से वंचित किया है, उनके व्यापारिक, राजनीतिक, नौकरी, पेशा आदि के अवसरों को सीमित किया है। उन्हें सीमित क्षेत्र में बने रहने को विवश किया है। उनके विकास के मार्गों को अवरुद्ध किया है। अपनी राजसत्ता को बनाये रखने के लिए भाषा के नाम पर उनका भावनात्मक दोहन किया है। दक्षिण की जनता अब तक ऐसे संकीर्ण और स्वार्थी नेताओं के बरगलाने से भ्रमित होती रहेगी वह अपनी हानि ही करेगी।
हिन्दी-विरोधी राजनेताओं के तर्क खोखले, निराधार, बेतुके और विदेशी षडयन्त्र से प्रेरित हैं। उनका कहना है कि हिन्दी विदेशी आर्यों की भाषा है, जो हम पर थोपी जा रही है। इससे हमारी अस्मिता को आघात पहुंचेगा। हम हिन्दी क्षेत्र के गुलाम हो जायेंगे। हम केवल अपनी मातृभाषा और अंग्रेजी ही पढ़े-पढ़ायेंगे आदि। सच्चाई यह है कि भारत में तमिलनाडु के अतिरिक्त भी अनेक प्रान्त हैं जिनकी अपनी भाषाएं हैं। हिन्दी ने किसी भी भाषा को, किसी समुदाय की अस्मिता, स्वतन्त्रता को क्षति नहीं पहुंचायी है। हिन्दी राष्ट्र की एक व्यापक समावेशी भाषा है जो सभी विदेशी और प्रान्तीय भाषाओं के आवश्यक शब्दों को अपने में समाविष्ट करके उस भाषा की सहेली बनकर व्यवहृत हो रही है, हानिकारक बनकर नहीं। तमिलनाडु तथा अन्य हिन्दी-विरोधी लोगों की विडम्बनापूर्ण सोच पर महान् आश्चर्य होता है कि वे हजारों वर्षों से उनके साहित्य, संस्कृति, सामाजिक व्यवहार में रची-बसी संस्कृत-परम्पराजन्य हिन्दी भाषा को विदेशी कहते हैं और केवल १५०-२०० वर्षों से भारत में हजारों किलोमीटर दूर से आई अंग्रेजी भाषा को स्वदेशी मानते हैं। आक्रमणकारी, यातना देने वाले, अत्याचार करके उनकी हत्याएं करने वाले, उन्हें गुलाम बनाने वाले, उनकी संस्कृति, साहित्य, धर्म को परिवर्तित करके विनष्ट करने वाले, जिनसे स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए दक्षिण के लोगों को अनेक बलिदान देने पड़े, उन ब्रिटेनवासी लोगों की अंग्रेजी भाषा उन्हें अपनी लगती है और स्वीकार्य है, जबकि अपने देश और देशवासियों की भाषा से विरोध है! इस प्रश्न का उत्तर उनको अपने दिल पर हाथ रखकर देना चाहिए कि क्या अंग्रेजी भाषा आपके क्षेत्र में निर्मित हुई थी? आपने अपने देश की भाषाएं छोड़कर कब-से अंग्रेजी अपनाई और क्यों अपनाई? अंग्रेजी भाषा से आपका क्या और कैसा सम्बन्ध है? यदि सत्ता-स्वार्थ को त्यागकर वहां के राजनेता तथा संकीर्ण एवं भावुक सोच को छोड़कर वहां के नागरिक इस बिन्दु को दिल पर हाथ रखकर सोचेंगे तो उनकी ही आत्मा उनको बता देगी कि उनके साथ यह सब विदेशी षड्यन्त्र है, कूटनीति है, छलावा है और आप सब उस असत्य से भ्रमित हो गये हैं।
वास्तविकता यह है कि उक्त सब मिथ्या धारणाएं निर्मित करना, अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेज ईसाइयों का षड्यन्त्र था, फूट डालो की राजनीति थी, ईसाइयत के प्रचार-प्रसार की भूमिका थी, राज्यस्थिरता के लिए भारत के विखण्डन की कूटनीति थी। उससे यहां के नागरिक भ्रमित हो गये और वह भ्रम आज भी जारी है। इतिहास हमें बताता है कि इस षड्यन्त्र का आरम्भ ईसाई मिशनरियों द्वारा आविष्कृत भ्रान्तियों से हुआ है। अंग्रेज शासनकाल में पहले यहां के प्रशासकों फ्रांसिस वाइट एलिस, अलेक्जेंडर डी० कैम्पबेल, ब्रायन हाउटन हॉजसन ने तमिल और तेलुगू व्याकरणों का अध्ययन करके इनकी भाषा को ‘भारतीय भाषा परिवार’ से भिन्न भाषा-परिवार की घोषित किया और फिर इन्हें अनार्यजन बता कर इनके समुदाय को ‘तमुलियन’ पृथक् नाम दिया। फिर ईसाई मिशनरी बिशप रॉबर्ट काल्डवेल (१८१४-१८१९) ईसाइयत के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण में आया। उसने भाषा के आधार पर इनको एक पृथक् नस्ल ‘द्रविड़’ घोषित करके आर्यों और द्रविड़ों में वैमनस्य का बीज बो दिया। उसने भारतीय परम्परा-विरुद्ध नयी कल्पनाएं करके इन लोगों को यह कहकर भड़काया कि ‘द्रविड़’ भारत के मूल निवासी थे। ये मध्य और पश्चिम भाग में रहते थे। आर्यों ने इनका धार्मिक शोषण किया, ठगा, अपनी भाषा को इन पर थोपा। अब तमिल, तेलुगू में से संस्कृत के सब शब्द हटा देने चाहिएँ। आर्यों के विश्वासों से स्वयं को मुक्त कर लेना चाहिए। यूरोपीय जन उनके निकट समुदाय के हैं वे उनको मुक्त करेंगे। ‘ईसाई धर्म-प्रचार द्रविड़ों का उद्धार करेगा’ आदि। इस प्रकार ‘आर्य’ और ‘द्रविड़’ दो विरोधी समुदाय खड़े करके मिशनरियों ने प्रचार किया। दाक्षिणात्य समाज में अपने पक्षधर प्रतिनिधि स्थापित किये, अपनी कपोलकल्पित धारणाएं उनके मन में बैठा दीं और उनको भ्रमित करने में सफल हो गये। वे आज भी भ्रमित अवस्था में हैं। हिन्दी-विरोध और आर्य-विरोध इसी सोच के परिणाम हैं। भारत-विरोधी लेखकों ने शिक्षानीति के माध्यम से इसी सोच को निरन्तर हवा देकर प्रज्वलित किया है। सरकारें भी इसी सोच की बनती रहीं।
सर्वप्रथम सन् १९३७ के प्रान्तीय चुनावों में तमिलनाडु में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सरकार बनी। उन्होंने हिन्दी को पाठ्यक्रम में रखा। ब्राह्मण-परम्परा विरोधी पेरियार और अन्नादुरई ने इसको अपनी राजनीति का हथियार बनाकर दो वर्ष तक विरोधी आन्दोलन जारी रखा। अंग्रेज सरकार ने हिन्दी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। १९६३, १९६६, १९६८, १९८६ में हिन्दी के लिए प्रयास होते रहे। दौलत सिंह कोठारी शिक्षा-समिति ने ‘त्रिभाषा फार्मूला’ दिया, जो लोकसभा में पास भी हो गया था, किन्तु हिन्दी-विरोध की राजनीति ने हिन्दी-अध्ययन को लागू नहीं होने दिया। वही परिस्थिति अब २०१९ में उपस्थित हो गई और यह सरकार भी पीछे हट गई है। अब तक हिन्दी-विरोध का वातावरण बनाकर राजनेताओं ने सत्ता-सुख पाया है। अब हिन्दी की उपादेयता और रोजगार के अवसर उपस्थित करके ही उस वातावरण को बदला जा सकता है। हिन्दी को रोजगार-परक बनाना होगा।
अंग्रेज ईसाइयों द्वारा प्रचारित इस मिथ्या धारणा को भी शिक्षा द्वारा निर्मूल करना पड़ेगा कि आर्यों ने द्रविड़ों को दक्षिण की ओर खदेड़ा, उनका शोषण किया, और आर्य-द्रविड़ दो विरोधी समुदाय हैं, द्रविड़ अनार्य हैं आदि। इतिहास का सत्य पक्ष यह है कि भारत के किसी साहित्य में और प्राचीन द्रविड़ भाषायी साहित्य में भी कहीं नहीं लिखा कि आर्यों ने द्रविड़ों को खदेड़ कर अपना राज्य स्थापित किया। विजय की गाथा का लिखा जाना स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यदि ऐसा होता तो आर्य-साहित्य में उसका उल्लेख गौरव के साथ मिलता। अतः यह कथन ईसाई मिशनरियों एवं प्रशासकों की मिथ्या कल्पना है। जो भारत और आर्य-द्रविड़ों में विखण्डन के लिए आविष्कृत की गई है।
दक्षिण के लोग और द्रविड़ आर्य हैं, आर्यवंशीय हैं, आर्य समुदाय में सदा से प्रेम और सम्मान के साथ रहे हैं। भारतीय साहित्य और इतिहास के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रमाण हैं, जो उस समय के हैं जब भारतीय या आर्यों के समाज में आर्य-द्रविड़ भेद की भावना भी नहीं उपजी थी। दक्षिण के सभी समुदायों को प्राचीन भारतीय साहित्य में उपलब्ध कथनों पर गम्भीरता से मनन करना चाहिए और उनको स्वीकार करना चाहिए। कुछ प्रमाण द्रष्टव्य हैं-
१. आर्यों के प्रमुख धर्मशास्त्र ‘मनुस्मृति’ और ‘महाभारत’ में लिखा है कि द्रविड़ आदि समुदाय आर्यों के क्षत्रिय वर्ग के अन्तर्गत थे। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि द्रविड़ जन मूलतः आर्य क्षत्रिय हैं-
“इमा: क्षत्रिय जातय: … पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविड़ा:।” (मनु० १०/४३-४४)
अर्थात्- ‘द्रविड़, पौण्ड्रक, ओड्र आदि समुदाय क्षत्रिय थे। क्षत्रिय होने के कारण ये आर्य थे। कालान्तर में जब इन्होंने क्षत्रिय-कर्म का त्याग कर दिया तो ये क्षत्रिय-वर्ग से बाहर हो गये।’ इसी तथ्य की पुष्टि महाभारतकार भी करते हैं-
“द्राविडाश्च कलिङ्गाश्च … ता: क्षत्रियजातय:।” (अनुशासन० ३३/२२)
अर्थात्- ‘द्रविड़, कलिङ्ग आदि समुदाय मूलतः आर्य क्षत्रिय हैं।’ यदि कालान्तर में इन समुदायों ने क्षत्रिय-कर्म का त्याग भी कर दिया था तो उससे इनका आर्य समुदाय और आर्यवंश तो नहीं बदलता, वह तो प्रत्येक स्थिति में रहेगा ही। परिस्थितियां कितनी भी बदल गई हों किन्तु द्रविड़ों का मूल वंश तो आर्यवंश हो रहेगा। जातिवादी लोगों ने परवर्ती काल में इनके साथ जो अनार्यत्व आदि का व्यवहार किया वह अवैदिक होने से अमान्य है।
२. कुछ दाक्षिणात्य समुदायों के मूल वंशों का उल्लेख भी संस्कृत के ग्रन्थों में मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि ‘आन्ध्र, पुण्ड्र, शबर आदि समुदाय ऋषि विश्वामित्र के वंशज हैं’ (“विश्वामित्रस्यएकशतं पुत्रा: आसु:। … ते-एते-अन्ध्रा: पुण्ड्रा: शबरा: …”, ७/१८)। पुराणों में लिखा है कि राजा जनापीड़ (अपरनाम आंडीर) के एक पुत्र का नाम ‘केरल’ था। उसी के नाम पर केरल राज्य स्थापित हुआ (वायु० ९/९/६, ब्रह्माण्ड० ३/७४/६, मत्स्य० ४८/५ आदि)।
३. आर्य समुदाय और संस्कृति-सभ्यता के अन्तर्गत इनके होने का ऐतिहासिक प्रमाण यह है कि आन्ध्र, द्रविड़, केरल, कर्नाटक आदि दक्षिण के राजाओं को आर्यराजा अपने वैदिक अनुष्ठानों में ससम्मान आमन्त्रित किया करते थे। रामायण काल में महाराज दशरथ ने अपने पुत्रेष्टि यज्ञ में इनको आमन्त्रित किया था (बालकाण्ड १३/२८)। महाभारत काल में राजसूय यज्ञ में पाण्डवों ने इनको आमन्त्रित किया था (सभापर्व ३४/११-१२)। यदि ये लोग अनार्य होते तो आर्य-अनुष्ठानों में आमन्त्रित नहीं होते।
४. दक्षिण में संस्कृत-साहित्य और दर्शन की परम्परा समृद्ध रही है। शंकराचार्य, आचार्य सायण, आचार्य माधव जैसे वैदिक विद्वानों ने उसे जीवित रखा है। अत्यन्त प्राचीन काल से दाक्षिणात्यों का आर्य शासन के अन्तर्गत राजा-प्रजा का सद्भावपूर्ण सम्बन्ध रहा है। उस काल में निश्चित रूप से संस्कृत सम्पर्क भाषा रही होगी। दक्षिण की मातृभाषाओं और संस्कृत भाषा में कभी टकराव नहीं हुआ। तमिल कवि श्री तिरुवेल्लुवर आदि ने अपने साहित्य में वैदिक शास्त्रीय परम्परा का अनुसरण किया है। हिन्दी भी संस्कृत परम्परा में प्रादुर्भूत भाषा है, अतः तमिलों द्वारा उसके विरोध का औचित्य नहीं बनता। दाक्षिणात्यों को यह स्मरण रखना चाहिए कि उनके समुदायों और प्रदेशों के मूल नाम संस्कृत के ही हैं। इस परम्परा से उनका चिरकाल से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है।
आश्चर्य है, द्रविड़जनों ने अपने परम्परागत साहित्य, संस्कृत-साहित्य, इतिहास, मूल समुदाय पर अविश्वास करके विदेशी अंग्रेजों और निहित-उद्देश्य ईसाई मिशनरियों की कपोलकल्पित धारणाओं पर विश्वास किया है! आप लोग बतायें तो सही कि इन्होंने आपका क्या भला किया है जो उनकी मिथ्या मान्यताएँ और विदेशी भाषा अंग्रेजी आपको अपनी और स्वीकार्य लग रही है? अब समय की मांग है कि सभी दाक्षिणात्यों, विशेषतः तमिलों को अपने साहित्य, परम्परा, इतिहास, पूर्वजों की मान्यताओं का सम्मान करते हुए अपने देश की परम्परा की भाषा हिन्दी का सम्मान करना चाहिए और देश की मुख्यधारा से जुड़कर उसका लाभ प्राप्त करना चाहिए।
-डॉ० सुरेन्द्रकुमार