हिंदुओं के आधुनिक प्रकार के संगठनों में सदैव से एक कमजोर मनोवृत्ति रही है और वह है, विचारकों के प्रति तिरस्कार।
हिंदुओं की इस वृत्ति का लाभ सदैव बाहरी संगठनों के लोग उठाते हैं और उनके थिंक टैंक के विरुद्ध भड़काते हैं। हिंदुओं की जन्मजाति प्रवृत्ति, पारस्परिक ईर्ष्या और शीर्ष के प्रति कुंठा के कारण वे संगठन को तोड़ने में सफल भी हो जाते हैं।
“अडानी-अंबानी आम आदमी के हक को मार रहे हैं।” -कांग्रेस, आपिये, वामिये।
नतीजा: किसी भी घटना में क्यूट प्रकार के राष्ट्रवादी भी अडानी अम्बानी एंगल ढूंढने लगते हैं।
“सावरकर ने स्वयं तो जिंदगी में एक बार भी पिस्तौल नहीं उठाई लेकिन युवकों को मरने भेजते रहे।”- कांगी, वामी आपी
नतीजा: कुछ क्यूट टाइप के राष्ट्रवादी भी सावरकर के ‘माफीनामे’ पर असहज होने लगते हैं।
यही घटना और वृत्ति बड़ी मेहनत से बने एक क्रांतिकारी दल में बनी लेकिन इसी एक भूल से पूरा संगठन कुछ ही महीनों में मिट गया।
जब नेशनल असेंबली (वर्तमान संसद भवन) में बम फेंकने का निर्णय लिया गया तो उसमें भगत सिंह के नाम को चंद्रशेखर आजाद ने सुप्रीम कमांडर की हैसियत से काट दिया।
सुखदेव ने इसे कुछ अन्य अर्थों में ले लिया। उनका मानना था कि गिरफ्तारी के बाद अदालत में भगत सिंह के अलावा अन्य कोई क्रांतिकारियों के पक्ष को बेहतर तरीके से नहीं रख पायेगा।
उधर आजाद पूर्णतः जमीनी हकीकतों से परिचित संगठक थे और भगतसिंह की उपयोगिता से परिचित थे कि उनकी विचारक थिंक टैंक की भूमिका की संगठन को अधिक जरूरत थी, बनिस्बत उन्हें जमीन पर उतारने के।
उन्हें अच्छे से पता था कि भगतसिंह की रणनीति बनाने की क्षमता, व्यक्तियों की परख और सदस्यों को शिक्षित करने की क्षमता वाला दूसरा कोई व्यक्ति दल में नहीं है।
वे इस बात से भी वाकिफ थे कि असाधारण दृढ़ता व देशभक्त होने के बावजूद भगतसिंह मानवता से प्रेम करते थे और किसी की जान लेना उनके सिद्धांत व प्रवृत्ति के विपरीत था।
आजाद सौ फीसदी सही थे क्योंकि एन समय पर सॉन्डर्स पर गोली चलाने में भगत सिंह हिचकने लगे थे और यह देख राजगुरु ने पहला फायर ठोक दिया था।
संसद में फेंकने वाले बम भी उन्होंने इस प्रकार बनवाया था कि किसी को नुकसान न पहुँचे।
लेकिन आवेग या कहें सहज युवकोचित ईर्ष्या, सुखदेव, भगतसिंह को नीचा दिखाने में उन्हें ‘जिंदगी से प्रेम’ का उलाहना दे बैठे और यह बात संवेदनशील भगत सिंह को चुभ गयी।
उन्हें यह बात इतनी चुभी कि उन्होंने अपने सुप्रीम कमांडर के आदेश का उल्लंघन कर राजगुरु के स्थान पर अपना नाम शामिल किया ही, साथ ही सुनवाई पश्चात उन्हें मुक्त कराने के आजाद की योजना में सहयोग करने से इनकार कर दिया।
आजाद को जिसका डर था वही हुआ।
कुछ ही महीनों में छापों में सभी मुख्य क्रांतिकारी पकड़े गए और नए सदस्यों में यशपाल जैसे संदेहास्पद चरित्र के वामपंथी शामिल हो गए।
नतीजा, पूरा संगठन ध्वस्त हो गया और स्वयं आजाद भी वीरगति को प्राप्त हुए।
हिंदू राष्ट्रवादियों में बौद्धिक कार्यकर्ताओं के प्रति आज भी ये टोंट आम है- भाजपा से लेकर सोशल मीडिया तक।