स्वतंत्रता के 75 वर्षों के पश्चात् भी अगर देश का बुद्धिजीवी समाज हीन भाव से ग्रसित है तो उसका सर्व प्रमुख कारण हमारी शिक्षा नीति रही जिसमें हमें पश्चिम का भक्त होना सिखाया गया। पर पिछले एक दशक से जनमानस में स्व का भाव जाग्रत हुआ है क्योंकि प्रधान मंत्री ने अपने हर क्रिया-कलाप से राष्ट्र के स्व को जगाने का प्रयास किया है।
भारतीय स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव वर्ष के अवसर पर हम भारतवासी आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य और संकल्प के साथ आगे बढ़ रहे हैं। हमारे चारों ओर ऐसा वातावरण दिखाई दे रहा है। जब हम आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं तो लक्ष्य सिर्फ शारीरिक या व्यक्तिगत विकास का नहीं होता। आत्मनिर्भर का अर्थ बहुत व्यापक है। आत्मनिर्भर राष्ट्र तब बनता है जब विकास के साथ-साथ व्यक्ति एवं समाज की सोच और संस्कारों में भी आत्मनिर्भरता महसूस होती है। मुझे याद आ रहा है, 10-12 साल पहले मैं एक कवि सम्मेलन में गया था। उस कवि सम्मेलन में देश के प्रसिद्ध कवि उपस्थित थे। उस कवि सम्मेलन के मंच से एक कवि ने प्रख्यात कवि दुष्यंत कुमार के शेर के माध्यम से हमारे देश की स्थिति कुछ इस प्रकार से प्रस्तुत की थी-
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
उस समय मंच पर उपस्थित मान्यवर, अन्य कवि और सम्मेलन में उपस्थित समुदाय ने उस कवि की इस पेशकश को तालियां बजाकर, वाह! वाह!! क्या खूब कहा!!! कह कर प्रतिसाद दिया था। मंच पर उपस्थित मान्यवर और उपस्थित समुदाय की राष्ट्र के प्रति नकारात्मक सोच को देखकर मैं अत्यंत दुखी मन से उस कवि सम्मेलन के सभागार से बाहर निकला। सोच रहा था सुनाने वाले और सुनने वाले दोनों विद्वान थे फिर भी अपने देश के प्रति इस प्रकार की नकारात्मक प्रतिक्रिया प्रकट रूप में क्यों व्यक्त की जा रही थी? क्या सज्जनों का राष्ट्र भाव असंवेदनशीलता कि स्थिति में पहुंच गया था? इस प्रकार की घटनाएं विभिन्न जगहों पर अलग-अलग अंदाज में हमें महसूस होती रहती थी। आज 2022 में अपने भारतीय समाज को, व्यक्तियों को अपने भारतीय होने पर गर्व है। राष्ट्र के परिवर्तित हो रहे विभिन्न आयामों पर गर्व से बातें करते हुए सुना जा सकता है। 10-12 सालों में देश में ऐसा कौन सा परिवर्तन आया कि सर्वत्र राष्ट्र भाव का जागरण महसूस हो रहा है?
सच तो यह है कि इन जैसी सारी समस्याओं का मूल रही है हमारी शिक्षा प्रणाली, हमारा अराष्ट्रीय बोध और हमारा अपरिपक्व आत्मचिंतन। दरअसल भारतीय स्वतंत्रता के बाद हमने नागरिकों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार की थी, जो अधिकार से अधिक कर्तव्य को प्रमुखता देती थी। उस समय की सरकार और समाज दोनों चूक गए थे। हमें राष्ट्रीय-सामाजिक प्रेरणा देने, राष्ट्र-भाव उत्पन्न करने और भारत के स्व एवं स्वाभिमान के संदर्भ में जागरण करने में उस समय की सरकारें चूक गई थीं। इन्हीं गलतियों के कारण हममें देश के प्रति नकारात्मक भाव जाग्रत हो रहा था।
1857 के बाद भारतीय मानस में उदासीनता का माहौल था। उदासीनता के माहौल से भारतीयों को बाहर निकालने का कार्य स्वामी विवेकानंद नाम के संन्यासी ने किया। विवेकानंद एक ऐसे संन्यासी थे जिन्होंने पूरी दुनिया को भारत के स्व और स्वाभिमान का परिचय दिया। उनके पास वेदांत का ज्ञान था। उनके पास दूर दृष्टि थी। वह जानते थे कि भारत दुनिया को क्या दे सकता है। वे भारत के विश्व बंधुत्व के संदेश को लेकर दुनिया में गए। भारत के सांस्कृतिक वैभव, विचारों, परंपरा तथा अपनी पहचान को भूल रहे भारतीयों को स्वामी विवेकानंद ने पुनः जगाया था। उन्होंने सम्पूर्ण भारत को फिर से जाग्रत कर भारत में चेतना का संचार किया था। स्वामी विवेकानंद ने एक विचार प्रस्तुत किया कि संस्कृति मानव चित्त की खेती है। खेती करना एक सतत प्रक्रिया है। जोतना, तपना, वर्षा की बूंदों से लड़ना, बोना, सींचना, पकी फसल को काटना; यह कभी भी विराम न लेने वाली सजगता ही खेती है। हमारी संस्कृति भी कुछ ऐसी ही न चूकने वाली और न रुकने वाली प्रक्रिया है। मानव चित्त की खेती हो या जमीन की खेती, व्यक्ति, समाज, राष्ट्र के बीच तालमेल बिठाने का और सतत सृजनशील रहने का एक संकल्प है। भारतीय स्वतंत्रता के बाद खेती का यह सूत्र अपने जीवन में लाना हम भारतीय भूल गए थे। इसी के कारण स्वतंत्रता के बाद छह दशक तक भारत अपने स्वाभिमान, अपने स्व और आत्मनिर्भरता से तालमेल बिठाने में कहीं छूट गया था।
माना कि आजादी के समय उत्पन्न अनेक सवाल आज भी जस के तस हैं। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का मामला, राष्ट्रभाषा, राष्ट्रगान या राष्ट्र धर्म की बात। हमारे प्रश्न अब तक समाप्त नहीं हुए हैं। पर्यावरण से जु़ड़ी हुए बातें आज इंसानों के सिर चढ़कर बोल रही है। भ्रष्टाचार, सामाजिक कुरीतियां, विषमता की खाई का निरंतर चौड़ा होते रहना जैसे अहम सवाल आज भी उत्तर की तलाश में मुंह पसारे खड़े हैं। इन सारी परिस्थितियों के पीछे का मूल कारण है कि भारत देश की आजादी के बाद हमारे प्रयास ईमानदार नहीं रहे। हमने आजादी को अंतिम लड़ाई मान लिया। समझ लिया कि अब हमें कुछ नहीं करना है। यहीं से हमारे कदम डगमगाना प्रारम्भ हुए। 60 साल से चली आ रही इसी नीति के कारण देश समस्याओं से घिरा था। पानी का अभाव, भूख-कुपोषण, नारकीय जिंदगी जीने वाले लोग, खेती के सवाल, गांव से हो रहा विस्थापन, संस्कृति पर हो रहे निरंतर हमले, सीमाओं पर अतिक्रमण, आंतरिक और बाह्य खतरे के बीच सिसक रहा भारत जैसे प्रश्नों से आज स्वतंत्रता के 75 वर्षों बाद भी भारत देश घिरा हुआ है। हमारे भारत का यह चित्र आजादी के 7 दशक बाद भी हमें सोचने पर बाध्य करता है। साठ सालों में संचालित की गई गलत नीतियों का खामियाजा हम आज भी भुगत रहे हैं। हमने संकल्प तो बहुत किए परंतु विकल्पों पर ध्यान नहीं दिया। हमने राजनीतिक समाधान खोजने के प्रयास किए, सामाजिक प्रयासों को नजर अंदाज किया। हम हर साल गणतंत्र और आजादी के पर्व मनाते रहे, पर राष्ट्रबोध के आकलन के पर्व से दूर रहे। राजनीति करने वालों ने सिर्फ राजनीति की, राष्ट्र नीति से दूर रहे। इसलिए हम अनीति के निकट पहुंच गए हैं।
गौरवशाली भारत की तलाश सतत् होनी चाहिए थी। उस गौरवशाली भारत की तलाश स्वतंत्रता के बाद से अब तक होती तो आज हम संदेह की बजाय विश्वास से भरे विश्व के सामने खड़े होते। बेहतरी की ओर बढ़ना मनुष्य की प्रवृत्ति है। इसी बात को ध्यान में लेने वाला नेतृत्व नरेंद्र मोदी के रूप में गत एक दशक से भारत में निर्मित हुआ है। उनके नेतृत्व में ऐसी नीति तैयार करने का प्रयास हो रहा है, जो हमारी बहुआयामी समस्याओं से हमें छुटकारा दिला सके। गत साठ सालों से समाज के मन से राष्ट्रभाव मिटाने और देश के प्रति निर्मोही भाव निर्मित करने का प्रयास हो रहा था। ये देश के लिए अत्यंत खतरनाक बातें थी। निर्मोही भाव की जगह भारतीय जनता के मन में विश्वास का भाव जागृत करने का प्रयास देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हो रहा है। भारत मां को श्रेष्ठ स्थान देने का प्रयास वर्तमान में उन्होंने जारी रखा है।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए हो रहे प्रयासों के साथ भारतवासी कदम से कदम मिला रहे हैं। हमारे देश की अधिकाधिक आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। जब तक ग्राम विकास नहीं होगा, तब तक विकसित देश का निर्माण होना मुश्किल है। प्रधानमंत्री के न्यू इंडिया विजन में देश को सम्पूर्ण रूप से विकसित करने पर बल दिया है। इसके केंद्र में ग्रामीण एवं कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को भी रखा गया है। आंतरिक सुरक्षा एवं बाह्य सुरक्षा में भारत की सजगता आज विश्व के सामने प्रस्तुत हो रही है। विश्व के अनेक राष्ट्रों के साथ हमारे सम्बंध भारत के हित को लेकर प्रस्थापित हो रहे हैं। भारत बढ़ रहा है। विकास की तरफ चल रहा है। कुछ विरोधी तत्व और ताकत लोगों के मन में भ्रम और संशय डाल रहे हैं। अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए किसानों और नागरिकों को यही स्वार्थी तत्व भड़का रहे हैं। पर देश इनकी साजिशों को कामयाब नहीं होने दे रहा है।
स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर एक नहीं बल्कि अनेक सवालों के जवाब ढूंढ़ने के प्रयासों को लेकर आज भारतीय होने के नाते हम विश्वास से खड़े हैं। गौरवशाली भारत हमारी विशेष कल्पना की उड़ान है। इसमें विज्ञान, ज्ञान, तप और साध्य है। इसमें देव, धर्म, अध्यात्म है। और इन सब के बीच में नर से नारायण बनने की क्षमता रखने वाला अमूल्य नागरिक व समाज भी है। स्वतंत्रता के 75 सालों में विकास के अनेक पायदानों पर मार्गक्रमण करते समय देश के विकास का रास्ता हमारी आंखों से ओझल नहीं हुआ है। हम एक उन्नत, समर्थ, सशक्त, सबल भारत के स्वप्न को आकार देने के उद्देश्य की ओर बढ़ रहे हैं। बढ़ते हुए भारत की कल्पना में अंत्योदय की संवेदना भी है। भारतीय स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव वर्ष का पर्व हम भारतीयों को अपने स्व, स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता के अवसरों को पहचानने का उत्तम अवसर भी है। खुद को पहचानना बहुत आवश्यक बात होती है। भारतीय स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव वर्ष का यह पर्व उस विश्वास का प्रारम्भ है, जिसमें समाधान की आस है। इसमें आशा की किरण है। भारत की माटी में विश्व की वैकल्पिक व्यवस्था खड़ी करने की ताकत है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि, 21 वी सदी भारत की होगी। आज वैसा ही होता दिखाई दे रहा है।
विदेश में एक बार उनके भगवे वस्त्रों को देखकर किसी ने स्वामी विवेकानंद से पूछा था कि, “आप ऐसा पहनावा क्यों नहीं पहनते, जिससे आप जेंटलमैन भी लगें?” इस पर स्वामी जी ने जवाब दिया, वह जवाब भारत के मूल्यों की गहराई को दिखाता है। बड़ी विनम्रता के साथ स्वामी जी ने जवाब दिया कि, “आपके यहां टेलर जेंटलमैन निर्मित करता है लेकिन भारत की संस्कृति से संस्कारित हमारा व्यक्तित्व ही हम भारतीयों को जेंटलमैन बनाता है।” भारतीय मूल्यों की यह गहराई, भारतीय संस्कृति और उत्सव वर्तमान में प्रतिनिधिक रूप में हमारी पहचान बना रहे हैं। यह अपेक्षा सिर्फ हजारों वर्षों से चली आ रही भारत की पुरातन पहचान पर गर्व करने भर की नहीं है बल्कि 21वीं सदी में भारत की पहचान निर्मित करने की भी है। अतीत में हमने दुनिया को क्या दिया याद रखना और यह बताना हमारे आत्मविश्वास को बढ़ाता है। इसी आत्मविश्वास के बल पर हमें भविष्य का उज्ज्वल काम करना है। भारत आने वाले भविष्य में दुनिया के लिए क्या उपलब्धियां प्रदान करेगा? इस प्रश्न के सवाल पर भविष्य में सकारात्मकता से कार्य करना हमारा दायित्व है।
भारत की आत्मनिर्भरता का मतलब खुद में तल्लीन होना मात्र नहीं है। इस बात का जवाब हमें स्वामी विवेकानंद के विचारों में मिलेगा। स्वामीजी से एक बार किसी ने पूछा, “संत तो सर्वव्यापी होते हैं, क्या संतों को अपने देश की बजाय सभी देशों को अपना मानना चाहिए?” इस पर स्वामी जी ने सही जवाब दिया, “वह व्यक्ति जो अपनी मां को सहारा ना दे पाए, वह दूसरों की माताओं की चिंता कैसे कर सकता है?” इसलिए हमारी आत्मनिर्भरता पूरी मानवता के भले के लिए है और हम यह करके दिखा रहे हैं। जब-जब भारत का सामर्थ्य ब़ढ़ा है तब-तब उसने दुनिया को लाभान्वित किया है। भारत के विकास में संसार के कल्याण की भावना जुड़ी हुई है। नए भारत को बढ़ने के लिए तमाम आयामों पर हमें सार्थकता से आगे बढ़ना है। उन्नत, समर्थ, सतर्क, सबल भारत के सपनों को आकार देने के उद्देश्य की ओर आगे बढ़ने के लिए सभी भारतीयों को देश के स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव वर्ष पर ढेर सारी शुभकामनाएं।