कराची के प्रमुख चौराहे के पास स्थित खाली मैदान में परम पूज्य सरसंघचालक श्री गुरुजी की आमसभा की तैयारियाँ हो चुकी थीं। एक छोटा सा मंच और उस पर तीन कुर्सियां । सामने एक छोटा सा टेबल, जिस पर पानी पीने के लिए लोटा – गिलास रखा हुआ था। मंच पर केवल एक माइक की व्यवस्था थी। मंच के सामने सारे स्वयंसेवक अनुशासित पद्धति से बैठे हुए थे। नागरिकों के लिए दोनों तरफ बैठने की व्यवस्था थी। दाईं तरफ आज की इस आमसभा के अध्यक्ष साधु टी. एल. वासवानी जी बैठे थे। साधु वासवानी, सिंधी समाज के गुरु थे। सिंधियों में उनका बड़ा मान-सम्मान था। गुरुजी की बाईं तरफ सिंध प्रांत के संघचालक बैठे थे।
गुरुजी को सुनने के लिए श्रोताओं की विशाल भीड़ जमा हो चुकी थी। सबसे पहले साधु वासवानी ने प्रस्तावना रखते हुए अपना भाषण दिया। उन्होंने कहा, “इतिहास में इस घड़ी, इस समय का विशेष महत्व रहेगा, जब हम सिंधी हिंदुओं के समर्थन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक मजबूत पहाड़ की तरह डटा हुआ है।”
इसके पश्चात् गुरुजी गोलवलकर का मुख्य भाषण शुरू हुआ। धीमी, किंतु धीर-गंभीर, दमदार आवाज, स्पष्ट उच्चारण और मन में सिंध प्रांत के तमाम हिंदुओं के प्रति उनकी प्यार भरी बेचैनी” उन्होंने कहा, ‘हमारी मातृभूमि पर एक बड़ी विपत्ति आ पड़ी है। मातृभूमि का विभाजन अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का ही परिणाम है। मुस्लिम लीग ने जो पाकिस्तान हासिल किया है, वह हिंसात्मक पद्धति से, अत्याचार का तांडव मचाते हुए हासिल किया है। हमारा दुर्भाग्य है कि कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के सामने घुटने टेक दिए। मुसलमानों और उनके नेताओं को गलत दिशा में मोड़ा गया है। ऐसा कहा जा रहा है कि वे इस्लाम पंथ का पालन करते हैं, इसलिए उन्हें अलग राष्ट्र चाहिए जबकि देखा जाए तो उनके रीति-रिवाज, उनकी संस्कृति पूर्णत: भारतीय है” अरबी मूल की नहीं । यह कल्पना करना भी कठिन है कि हमारी खंडित मातृभूमि, सिंधु नदी के बिना हमें मिलेगी। यह प्रदेश सप्त सिंधु का प्रदेश है। राजा दाहिर के तेजस्वी शौर्य का यह प्रदेश है। हिंगलाज देवी के अस्तित्व से पावन हुआ, ये सिंध प्रदेश हमें छोड़ना पड़ रहा है। इस दुर्भाग्यशाली और संकट की घड़ी में सभी हिंदुओं को आपस में मिलजुल कर, एक-दूसरे का ध्यान रखना चाहिए। संकट के यह दिन भी खत्म हो जाएँगे, ऐसा मुझे विश्वास है” “गुरुजी के इस ऐतिहासिक भाषण से सभी सुनने वालों के शरीर पर रोमांच हो उठे। हिंदुओं में एक नए जोश का संचार हो उठा।
भाषण के पश्चात् कराची शहर के कुछ प्रमुख नागरिकों के साथ गुरुजी का चाय-पान का कार्यक्रम रखा गया था। इसमें अनेक हिंदू नेता तो गुरुजी के परिचय वाले ही थे, क्योंकि प्रतिवर्ष अपने प्रवास के दौरान गुरुजी इनसे भेंट करते ही रहते थे। इनमें रंगनाथानंद, डॉ. चोईथराम, प्रोफेसर घनश्याम, प्रोफेसर मलकानी, लालजी मेहरोत्रा, शिवरतन मोहता, भाई प्रताप राय, निश्चल दास वजीरानी, डॉ. हेमनदास वाधवानी, मुखी गोविंदम इत्यादि अनेक गणमान्य लोग इस चाय-पान बैठक में उपस्थित थे।
‘सिंध ऑब्जर्वर’ नामक दैनिक के संपादक और कराची के एक मान्यवर व्यक्तित्व, के. पुनैया भी इस बैठक में उपस्थित थे। उन्होंने गुरुजी से प्रश्न किया,
“हम यदि खुशी-खुशी विभाजन को स्वीकार कर लें, तो इसमें दिक्कत क्या है ? मनुष्य का एक पैर सड़ जाए तो उसे काट देने में क्या समस्या है? कम-से-कम मनुष्य जीवित तो रहेगा न ?” गुरुजी ने तत्काल उत्तर दिया कि, “हाँ “सही कहा, मनुष्य की नाक कटने पर भी तो वह जीवित रहता ही है न?”
सिंध प्रांत के हिंदू बंधुओं के पास बताने लायक अनेक बातें थीं, दुःख-दर्द थे। अपने अंधकारमय भविष्य को सामने देख रहे ये हिंदू, अत्यंत पीड़ित अवस्था में लगभग हताश हो चले थे। इन्हें गुरुजी के साथ बहुत सी बातें साझा करनी थीं, परंतु समय बहुत कम था। अनेक काम और भी करने थे। गुरुजी को उस प्रांत के प्रचारकों एवं कार्यवाहों की बैठक भी संचालित करनी थी। अन्य तमाम व्यवस्थाएं भी जुटानी थीं।
5 अगस्त की रात को, जब उधर भारत की राजधानी दिल्ली शांत सोई हुई थी, उस समय पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और बंगाल में भीषण दंगों का दौर चल ही रहा था, तब इधर कराची में बैठा यह तपस्वी, विभाजन का यह विनाशकारी चित्र देखकर, हिंदुओं की आगामी व्यवस्था के बारे में विचार मग्न था।