‘अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा।
साखी हैं जिसकी महिमा के,
सूर्य, चंद्र, भूगोल, खगोल।।
कलम आज उनकी जय बोल।।‘
भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक महापुरूष हुए हैं जिनके योगदान को अब तक ठीक से समझा नहीं गया है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विज्ञान को प्रोत्साहित करने वाले विज्ञानविदों एवं कई राष्ट्रवादी वैज्ञानिकों का योगदान अब तक अप्रचारित रहा है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की उपर्युक्त पंक्तियां विज्ञान के इन सेनानियों के लिए बिल्कुल उपयुक्त प्रतीत होती हैं। आज राष्ट्र जब आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो उन सभी राष्ट्रवादी विज्ञानविदों की गाथा कहने-सुनने का यही सही समय है।
स्वतंत्रता संग्राम की संघर्षपूर्ण अवधि के दौरान अनेक प्रबुद्धजनों और जातीय अस्मिता के प्रति जागरूक महापुरूषों ने भाषा, साहित्य और स्वदेशी वैज्ञानिक प्रगति को राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक बनाने के प्रयास आरंभ किए थे। कुछ विज्ञानविद भारतीय ज्ञान परंपरा की अवरुद्ध धारा को अविरल प्रवाह का रुप देने में लग गए तो अधिकांश वैज्ञानिकों ने भारतीय जनमानस में वैज्ञानिक चेतना जगाने के लिए आधुनिक विज्ञान के प्रचार प्रसार को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। वैज्ञानिकों ने देश में जगह जगह पर विज्ञान में शोध से संबंधित संस्थान खोले, युवा पीढ़ी को विज्ञान से जोड़ने के लिए मिशन चलाया और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समृद्ध राष्ट्रवादी सोच तैयार करने का काम शुरू कर दिया।
हालांकि पाठ्य पुस्तकों में उनके इस योगदान की चर्चा कम मिलती है लेकिन इससे उनका योगदान कम नहीं हो जाता। नोबेल पुरस्कार प्राप्त डॉ. एस चंद्रशेखर ने भारत में बीसवीं शताब्दी के पहले तीन दशकों में अंतरराष्ट्रीय ख्याति के आधुनिक वैज्ञानिकों की संख्या अचानक बढ़ने के लिए तत्कालीन वैज्ञानिक समुदाय में राष्ट्रवादी भावना के उदय को ही प्रमुख कारण मानते हुए कहा था – ‘पश्चिम को यह दिखाने के लिए कि विज्ञान सहित सब क्षेत्रों में भारतीय भी समानस्तरीय हैं, राष्ट्रीय स्व-अभिव्यक्ति की अत्यधिक आवश्यकता थी।‘
अंग्रेजों ने भारत में आधुनिक शिक्षा नीति लागू करते समय जान बूझकर विज्ञान विषयों की अवहेलना की। इसके कारण लोगों में असंतोष उत्पन्न होना स्वाभाविक था। एमहर्स्ट को लिखे गए राजा राममोहन राय के आवेदन में इसकी अभिव्यक्ति भी हुई जिसमें समुचित वैज्ञानिक शिक्षा की मांग की गई। इसी पृष्ठभूमि में 1875 में बंगाल के तत्कालीन गवर्नर जनरल, सर रिचर्ड टेम्पल ने लिखा था, ‘… लेकिन हम उनके विचारों को व्यावहारिक विज्ञान की ओर ले जाने के लिए अधिक से अधिक प्रयास करेंगे, जहां उन्हें अनिवार्य रूप से अपनी पूर्ण हीनता महसूस करनी होगी।’ स्पष्ट है कि व्यावहारिक विज्ञान का शिक्षण देने का अंग्रेजों का उद्देश्य भी भारतीयों को पिछड़ा और दीन-हीन महसूस कराना था।
अग्रणी गणितज्ञ और भौतिक विज्ञानी सतेंद्र नाथ बोस ने भारतीयों में व्याप्त रोष को व्यक्त करते हुए अपने संस्मरण में लिखा है – ‘हमें अपने देश के लिए कुछ करना था क्योंकि हम अंग्रेजों को बताना चाहते थे कि हम किसी से कम नहीं हैं।’ भारत में भौतिकी-रसायन क्षेत्र के शोधकार्यों के प्रवर्तक माने जाने वाले नील रतन धर ने एक बार कहा था, ‘मैं पूरी गंभीरता से यह अनुभव करता हूं कि हमारे देश की वास्तविक प्रगति के लिए विज्ञान और उसके उपयोग की जरूरत है। मेरी अंतरंग इच्छा यही है कि हमारे वैज्ञानिक राष्ट्रीय पुनरूद्धार के लिए पूरी मेहनत धैर्य, निष्ठा और समर्पण के साथ इस मार्ग पर आगे बढ़ें।’
अंग्रेजों ने एक षडयंत्र के तहत भारतीय ज्ञान-विज्ञान को मिथक आधारित और पिछड़ा घोषित कर दिया। आधुनिक विज्ञान को भी उन्होंने ‘औपनिवेशिक लाभ’ के उद्देश्य से ही नियंत्रित और प्रायोजित किया। विज्ञान से संबद्ध भारतीयों को उनके श्रेय से वंचित रखा गया तथा उन्हें हर प्रकार से हतोत्साहित करने की कोशिश की गई। इसकी प्रतिक्रिया के रुप में मुंबई में बाल गंगाधर शास्त्री और हरिकेशव जी पठारे, दिल्ली में मास्टर रामचंदर, केंद्रीय प्रांत में शुभाजी बापू और ओंकार भट्ट जोशी और कोलकाता में अक्षय दत्त भारतीय भाषाओं के माध्यम से आधुनिक विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में जुट गए।
अंग्रेजों ने हमेशा भारतीयों के मनोबल को नष्ट करने की कोशिश की। होम्योपैथी के चिकित्सक, डॉक्टर महेंद्रलाल सरकार ने जब होम्योपैथी को पश्चिमी चिकित्सा से बेहतर घोषित किया तो ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन से उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया। इस अपमान के कारण डॉ सरकार ने 1876 में देशी भारतीय संघ ‘सोसाइटी फॉर दि कल्टीवेशन ऑफ साइंस’ की स्थापना की जिसने राष्ट्रवादी सोच को और मजबूत किया। इस सोसाइटी का प्रबंधन पूरी तरह से भारतीय कर रहे थे और बिना किसी सरकारी सहायता या आश्रय के इसे चलाने का निर्णय लिया गया। यहीं पर किए गए शोध कार्य के लिए सी.वी. रमन को 1930 का नोबेल पुरस्कार मिला।
आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय न केवल प्रबुद्ध रसायनशास्त्री और प्राध्यापक थे, बल्कि आजीवन तन-मन-धन से स्वतंत्रता आन्दोलन में सहयोग करते रहे। अपने एक मशहूर वक्तव्य में आचार्य राय ने कहा था, “मैं रसायनशाला का प्राणी हूँ। मगर ऐसे मौके भी आते हैं जब वक्त का तकाज़ा होता है कि टेस्ट-ट्यूब छोड़कर देश की पुकार सुनी जाए।” देश की स्वतंत्रता को हमेशा ऊपर रखते हुए अपने विद्यार्थियों से वह अक्सर कहा करते थे, ‘विज्ञान प्रतीक्षा कर सकता है लेकिन स्वराज नहीं’। सन 1924 में उन्होंने इंडियन केमिकल सोसायटी की स्थापना की तथा धन से भी उसकी सहायता की।
इस प्रकार, राष्ट्रवादी वैज्ञानिकों एवं विज्ञान शिक्षा के समर्थक विज्ञानविदों के मन में राष्ट्रवाद की भावना जोर पकड़ती गई। विज्ञान को जन-जन में लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य को पूरा करने के लिए अन्य क्षेत्रों से संबंधित कई प्रसिद्ध व्यक्तियों ने भी उल्लेखनीय योगदान दिया। बुंबई में जमशेदजी टाटा ने उच्चतर वैज्ञानिक शिक्षा और अनुसंधान की ऐसी ही एक योजना बनाई जिसके कारण आगे चलकर 1909 में ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस’ की स्थापना हुई। माना जाता है कि इस कार्य के लिए स्वामी विवेकानंद ने जमशेदजी टाटा को प्रेरित किया था।
एक आध्यात्मिक गुरु के रुप में स्वामी जी की व्यापक पहचान रही है लेकिन वैज्ञानिक चेतना के समर्थक के रुप में उनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। विज्ञानरत्न लक्ष्मण प्रसाद ने अपनी पुस्तक ‘स्वामी विवेकानंद : वैज्ञानिक जागरुकता एवं आर्थिक समृद्धि के प्रबल समर्थक’ में उनकी वैज्ञानिक चेतना का वर्णन किया है। स्वामी जी ने अपने छोटे भाई को विद्युत इंजीनियरी के अध्ययन के लिए विदेश भेजा तथा बेलूर मठ के अपने साथियों को विज्ञान के अध्ययन के लिए प्रेरित किया। विज्ञान की स्नातकोत्तर शिक्षा हेतु प्रौद्योगिकी संस्थान खोलने के लिए प्रयास करना और वैज्ञानिक कार्यों के लिए उद्योगपतियों से धन की व्यवस्था जैसे उनके प्रयास महत्वपूर्ण हैं।
बीसवीं सदी की ओर बढ़ते भारत में औपनिवेशिक शासन से मुक्ति पाने के लिए आंदोलन के कारण विशेष रूप से विज्ञान के प्रति रुझान बढ़ने लगा। परतंत्र भारत में अंग्रेजों के द्वारा रंगभेद की नीति अपनाने एवं भारतीयों को हतोत्साहित करने के कारण बहुत से वैज्ञानिकों को अन्याय झेलना पड़ा था। ऐसे वैज्ञानिकों की भी लंबी सूची है जिन्होंने अंग्रेजी सरकार की दमनकारी नीतियों, भारतीयों के प्रति उनके उपेक्षापूर्ण व्यवहार या फिर पद और वेतन की असमानता के विरोध में अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था। ऐसे सभी प्रसंगों से भारतीयों के स्वाभिमान और राष्ट्रीय स्व-अभिव्यक्ति की स्थापना को लगातार गति मिलती रही।
महेंद्रलाल सरकार, बीरबल साहनी, जगदीश चंद्र बोस, सत्येंद्र नाथ बोस, रूचिराम साहनी, पी.सी.राय, सी.वी.रामन, प्रमथनाथ बोस, मेघनाद साहा, विश्वेश्वरैया आदि वैज्ञानिक सेनानियों के कारण ही स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय विज्ञान और वैज्ञानिकों की भूमिका बहुत प्रखर रूप से उभर कर सामने आई। वर्ष 1940 में सीएसआईआर की स्थापना करने वाले शांति स्वरूप भटनागर का मानना था कि गुलामी के कारण देशवासियों में साहसिक प्रवृत्ति की भावना कमजोर पड़ गई है। देश के वैज्ञानिक क्षितिज में नई प्रतिभाओं एवं नवीन खोज को प्रेरित करने के उद्देश्य से उनके मार्गदर्शन में अनेक नई प्रयोगशालाओं की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ। माना जाता है कि उनके व्यक्तित्व के निर्माण में रूचिराम साहनी का महत्वपूर्ण योगदान था जिन्होंने अपना पूरा जीवन स्कूल और कॉलेजों में विज्ञान की लोकप्रियता और विज्ञान शिक्षण में सुधार के लिए समर्पित कर दिया था।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान स्वदेशी भावना के विकास और पुनर्जागरण में जिस प्रकार विभिन्न वैज्ञानिकों और विज्ञान-सेनानियों ने रचनात्मक एवं क्रांतिकारी भूमिका का निर्वाह किया, वह अपने आप में अतुल्य है। भारत की प्राचीन उपलब्धियों की अवहेलना करने और भारतीय प्रतिभा को कमतर आंकने वाले अंग्रेजों की मानसिकता को चुनौती देने के लिए तत्कालीन शिक्षित व प्रबुद्ध वैज्ञानिक वर्ग ने कई कदम उठाए। कुछ भारतीयों ने भारत के अतीत का अध्ययन करने का बीड़ा उठाया और गणित, खगोल विज्ञान, धातु विज्ञान, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के क्षेत्र में भारत की गौरवशाली उपलब्धियों को उजागर किया। भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को बढ़ावा देने के लिए देशी संसाधनों की मदद से कई वैज्ञानिक संस्थानों और संगठनों की स्थापना की गई। परोपकारी शिक्षाविदों, व्यापारियों, राजाओं और कई राजनैतिक नेताओं ने इनकी स्थापना के लिए खुलकर दान दिया।
अनेक बाधाओं के बावजूद भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने विभिन्न राजनयिक रणनीतियों के तहत अन्य देशों के वैज्ञानिकों के साथ समानांतर रूप से संबंधों को विकसित करने और भारत के वैज्ञानिक पुनर्जागरण के लिए सुनियोजित रूप से योजनाओं का कार्यान्वयन सुनिश्चित किया। जिस निष्ठा, समर्पण और राष्ट्रप्रेम की भावना के साथ स्वदेशी वैज्ञानिक संगठनों की स्थापना की गई, उसने भारत में वैज्ञानिक पुनर्जागरण और स्वदेश प्रेम की भावना को बढ़ावा देने में सबसे कारगर भूमिका निभाई।
राष्ट्रीय चेतना की भावना से ओतप्रोत तत्कालीन वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों और वैज्ञानिक चेतना के सूत्रधारों ने वैज्ञानिक स्वराज का जो स्वरुप प्रस्तुत किया, वह अद्भुत था। विदेशी पत्रकार ने भी इसकी चर्चा की है। ‘मैनचेस्टर गार्जियन’ के एक पत्रकार ने किसी संदर्भ में पी.सी.राय को लक्षित करते हुए लिखा था, ‘यदि श्री गांधी (महात्मा गांधी) दो और पी.सी.राय उत्पन्न कर पाते तो भारत को एक ही वर्ष में स्वराज प्राप्त हो सकता था।’ समग्र रूप से यह बात स्वदेशी वैज्ञानिक चेतना के वाहक सभी विज्ञानविदों के लिए कही जा सकती है।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान स्वदेशी और वैज्ञानिक पुनरुत्थान में जिस प्रकार पहली बार भारतीय वैज्ञानिकों के कार्य को मान्यता देने और भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने की जोरदार मांग रखी गई थी, उसके आधार पर निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि स्वदेशी वैज्ञानिक चेतना की पुन:स्थापना का यह प्रयास कालांतर में राष्ट्रीय चेतना का एक सशक्त प्रतीक बन गया। स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए समाज सुधार, खादी, राष्ट्रभाषा आदि से संबंधित जितने अभियान और राजनैतिक आंदोलन चलाए गए, उनकी तुलना में भारत के ज्ञात व अज्ञात तमाम विज्ञान सेनानियों के आंदोलन को किसी भी दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता है।
*संजय चौधरी,
A wonderful article highlighting the contributions of Indian scientists during the colonial era. India has time and again shown the prowess of the Indian intellect. We must acknowledge and remember the sacrifices made by the scientific fraternity.