75 वर्षों में राजनीति का हस्र

स्वतंत्रता के 75 वर्षों में भारतीय राजनीति की पूरी स्थिति गंभीर विवेचना का विषय है। भारत ने अंग्रेजों से मुक्ति के साथ संसदीय लोकतंत्र के रूप में आगे बढ़ने का निर्णय किया तभी से राजनीति के वर्तमान ढांचे का महत्व कायम हो गया।  हालांकि तब शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि हमारी राजनीति इस अवस्था तक पहुंच जाएगी कि सामान्य देश के मुद्दों पर भी एकता की जगह मोर्चाबंदी होगी। एक बड़े समूह का मानना है कि अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संघर्ष का मंच कांग्रेस अगर आजादी के बाद राजनीतिक दल के रूप में परिणत नहीं होता तो स्थिति थोड़ी अलग होती। इसके विपरीत बड़े वर्ग का यह भी मानना है कि जिन परिस्थितियों में हम आजाद हुए उसमें कांग्रेस को एकाएक भंग कर संसदीय लोकतंत्र की ओर प्रयाण करना संभव नहीं था। ध्यान रखने की बात है कि भारत शासन अधिनियम ,1935 लागू होने के बाद आयोजित चुनाव के समय से ही राजनीतिक पार्टियों की संसदीय भूमिका स्पष्ट होने लगी थी। आजादी के पहले अंतरिम सरकार का निर्वाचन भी मुख्यतः दलीय आधार पर था। पंडित जवाहरलाल नेहरू अगर प्रथम प्रधानमंत्री बने तो इसी कारण क्योंकि भारत में कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में थी। परंतु महात्मा गांधी ने कांग्रेस को भंग कर उसे लोक सेवक संघ में परिणत करने तथा नेताओं के गांव में जाकर काम करने का प्रस्ताव दिया तो उसके पीछे निश्चय ह ही उनकी गहरी सोच रही होगी। यह भी सच है कि अगर उनकी हत्या नहीं होती तो वे अपने इस विस्तृत लिखित प्रस्ताव पर विचार विमर्श करते तथा आगे इस ओर बढ़ने की कोशिश भी करते। सत्ता की राजनीति तभी से बड़े समूह के लिए कई मायनों में पहेली जैसी बनने लगी थी। भारत का पहला प्रधानमंत्री कौन होगा इसका निर्धारण ही लोकतांत्रिक तरीके से नहीं हो पाया। 15 राज्यों में से कांग्रेस की 12 प्रदेश इकाइयों ने सरदार वल्लभभाई पटेल का नाम अध्यक्ष के रूप में प्रस्तावित किया था। नेहरू जी का नाम किसी राज्य से नहीं आया था। यह स्पष्ट था कि जो कांग्रेस का अध्यक्ष होगा वही प्रधानमंत्री होगा। गांधी जी ने किन परिस्थितियों में नेहरू जी का नाम अनुमोदित किया और उन्होंने कैसे स्वीकार कर लिया यह आज तक रहस्य बना हुआ है। गांधीजी जीवित होते और उनसे पूछा जाता तो शायद वह इसके बारे में स्पष्ट करते।

यह सच है कि जनता के बीच नेहरू जी की लोकप्रियता अपार थी परंतु कांग्रेस के अंदर उनके हाथों नेतृत्व सौंपने को लेकर बहुमत की सहमति नहीं थी अन्यथा उनका नाम कहीं न कहीं से अवश्य प्रस्तावित होता। हालांकि अनेक नेताओं ने पटेल को डटे रहने का सुझाव दिया किंतु ऐसा वह नहीं कर सकते थे। इस तरह राजनीति में नेतृत्व चयन की शुरुआत ही अपारदर्शी एवं अलोकतांत्रिक तरीके से हुई। सरदार पटेल का कद इसलिए भी सरकार एवं देश में बड़ा था क्योंकि कांग्रेस पार्टी के अंदर व्यापक समर्थन का आत्मविश्वास से वे हमेशा लवरेज थे। जब तक वे जीवित रहे कांग्रेस में नेतृत्व का एकाधिकार नहीं कायम हो सका। 15 दिसंबर, 1950 में उनकी मृत्यु के साथ पूरा परिदृश्य बदल गया। वास्तव में पटेल के बाद कोई ऐसा नेता नहीं रहा जो नेहरू जी को संतुलित करे या दृढ़तापूर्वक स्वायत्त सोच से निर्णय कर सके। निष्पक्ष होकर विचार करें तो यह निष्कर्ष निकालना आसान होगा कि वाकई कांग्रेस को भंग कर दिया जाता और भविष्य के चुनाव की दृष्टि से नई पार्टियां गठित यह जाने की शुरुआत होती तो स्थिति थोड़ी अलग होती। कांग्रेस के अंदर जिन्हें चुनावी राजनीति में भाग लेना था वो सब एक नया दल बना सकते थे। नए दल बनाने की प्रक्रिया में आजादी के बाद दल की विचारधारा क्या होगी इस पर भी मत स्पष्ट करना पड़ता। यह हो न सका और जिस दिशा में कांग्रेस शासन को लेकर आगे बढ़ी उसमें दूसरी विचारधारा के नेताओं के लिए साथ रहना संभव नहीं था। ध्यान रखिए कि वामपंथी,दक्षिणपंथी मध्यममार्गी सभी आजादी के संघर्ष में कांग्रेस के ही भाग थे। चाहे डॉ राम मनोहर लोहिया हों, राज नारायण, जयप्रकाश नारायण या दक्षिणपंथी विचारों के श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि। हां अधिकतर कम्युनिस्ट नेता जरूर अलग थे क्योंकि वह सोवियत संघ की तरह वैश्विक क्रांति में विश्वास करते थे। विचारधारा के आधार पर देखें तो पंडित मदन मोहन मालवीय से लेकर कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, पुरुषोत्तम दास टंडन ,डॉ राजेंद्र प्रसाद, सी राजगोपालाचारी, जे बी कृपलानी आदि ऐसे लोग थे जिनकी विचारधारा नेहरू जी के नेतृत्व वाली कांग्रेस से नहीं मिल सकती थी। इस धारा में मालवीय जी सहित जो नेता आजादी के पहले स्वर्ग सिधार गए उनके सामने समस्या नहीं थी लेकिन जो बच गए उनके लिए थी। धीरे-धीरे लोग अलग हुए एवं भारत में दलों की संख्या बढ़ती गई। चूंकि आम जनता के मन में आजादी के संघर्ष वाली कांग्रेस की छवि बनी हुई थी, इस कारण लंबे समय तक दूसरे दलों की चुनावी सफलता की गुंजाइश नहीं बन पाई। डॉक्टर लोहिया पहली बार 1963 में उपचुनाव में फर्रुखाबाद से लोकसभा पहुंचे। उन्होंने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया एवं स्वयं नेहरू के विरुद्ध मोर्चा संभाला था। कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए ही उन्होंने तत्कालीन जनसंघ के साथ समझौता किया और 1967 में इसके परिणाम आए। पहली बार 1967 में कांग्रेस को धक्का लगा। 9 राज्यों में विपक्ष की संयुक्त सरकारें बनी। उत्तर प्रदेश में उसे बहुमत मिला भी तो चौधरी चरण सिंह के अलग होने के बाद वहां भी विपक्ष की सरकार बनी। 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद इंदिरा गांधी का लोकसभा में बहुमत नहीं था। कम्युनिस्ट पार्टियों के सहयोग से उनकी सरकार बची रही।

 तो सच्चाई यही है की आजादी के साथ भारतीय राजनीति निश्चित दिशा ग्रहण नहीं कर सकी इसलिए हमेशा अनिश्चितता की स्थिति रही। कांग्रेस के बाहर और पार्टी के अंदर नेतृत्व और विचारधारा को लेकर व्यापक असहमति और विरोध होते हुए भी उसे निर्णायक रूप से पराजित करना लंबे समय तक संभव नहीं हो पाया। इससे राजनीति पर अत्यंत नकारात्मक प्रभाव पड़ा। किसी समय विचारधारा की बात करने वाले नेता धीरे-धीरे जाति,संप्रदाय, क्षेत्र आदि के आधार पर राजनीति करने लगे तथा अपराधियों तक का वर्चस्व हमारी पूरी राजनीतिक व्यवस्था में स्थापित हुई। इसका परिणाम देश अभी तक भुगत रहा है। जनता के लिए लुभावने नारे, मुफ्तखोरी से वोट लेने का चलन, पार्टियों में जातीय, सांप्रदायिक तथा धनबल और बाहुबल के आधार पर टिकटों का वितरण आदि विकृतियां पैदा हुईं। शुद्ध विचारधारा पर काम करने वाली पार्टियां भी इन दोषों से पूरी तरह वंचित नहीं रह पाई। कई पार्टियां मर खप गई तो कई नाम मात्र की रह गई। उदाहरण के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एक समय भारत में मुख्य विपक्षी दल था। आज सभी कम्युनिस्ट पार्टियां मिलाकर भी केंद्र की राजनीति में कहीं नहीं है। इससे अवधारणा एवं व्यवहार व्यवहार में ऐसी अनेक विकृतियां पैदा हुईं जो आज भयावह रूप में हमारे सामने विद्यमान हैं। बड़े नेताओं के कमजोर हो जाने या गुजर जाने के कारण विचारधारा को लेकर भारत भीषण त्रासदी के दुष्चक्र में फंस गया। संविधान सभा में सेक्यूलरवाद पर बहस में मूल सहमति थी कि भारत के संदर्भ में यह सर्वधर्म समभाव का ही पर्याय है। यानी हमारे देश में सेक्यूलरवाद सर्वधर्म समभाव के रूप में अपनाया जाएगा। यह माना गया कि भारत का स्वभाव ही सर्व धर्म समभाव है इसलिए संविधान में अलग से सेक्यूलर शब्द डालने की आवश्यकता नहीं है।  संविधान लागू होने के ढाई दशक बाद तत्कालीन सत्ता को उसमें सेक्यूलर शब्द लाने की आवश्यकता महसूस हुई। तब तक सेक्यूलरवाद की मूल अवधारणा आपसी बहस में काफी हद तक रौंदी जा चुकी थी। संविधान सभा में भारत में धर्म के मायने और व्यवहार क्या हैं इन पर भी बहस हुई थी। इसलिए सेकुलरिज्म का अर्थ तब धर्मनिरपेक्षता नहीं था। आज भी अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद संविधान की प्रति में पंथनिरपेक्ष शब्द ही लिखा हुआ है।

इस एक शब्द और इसकी अवधारणा ने भारतीय राजनीति के साथ कितना ज्यादा अन्याय किया है यह वही लोग बता सकते हैं जो इसके मूल अर्थ को समझते हैं। सच यही है कि ज्यादातर पार्टियों ने विचारधारा को तिलांजलि दे दी लेकिन मुस्लिम वोटों के लिए भाजपा के उत्थान के साथ सभी ने कृत्रिम सेक्यूलरवाद का चोगा पहने लगे।  उनमें भी अनेक पार्टियों ने भाजपा के साथ सत्ता में जाने में गुरेज नहीं किया। जब तक वे भाजपा के साथ सत्ता में रहते तब तक सेकुलरिज्म उनके सपने में भी नहीं आता जैसे ही वह भाजपा से अलग होते उनकी पूरी वाणी सेक्यूलरमय होने लगती। इसके कारण भारत के आम लोगों, सर्वसामान्य नेताओं तथा मुस्लिमों के अंदर भी पार्टियों, विचारधारा और यहां तक कि संविधान में वर्णित शब्दों को लेकर भ्रांत धारणाएं कायम हुई जिन्हें मिटाना संभव नहीं हो पा रहा है। भारत में वह भी समय था जब कोई एक साथ हिंदू महासभा का सदस्य होता था और कांग्रेस का भी। मदन मोहन मालवीय तो कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और हिंदू महासभा के भी। ऐसे नेताओं की लंबी श्रृंखला है। आज सीधे आरोप लगा दिया जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तो कभी आजादी के आंदोलन में भाग ही नहीं लिया। सच यही था कि संघ के लोग भी ज आजादी के आंदोलन में मुख्यतः कांग्रेसी के रूप में ही भाग लेते थे। क्रांतिकारी या हिंसक विचार रखने वाले योद्धा और समूहों की बात अलग थी।

आज स्वतंत्रता के इन 75 वर्षों बाद भी यह स्थिति नहीं कि हमारी राजनीति मिल बैठकर विचारे की कहां गलतियां हुईं, कैसे सुधार करना है ताकि अलग-अलग दल होते हुए भी राष्ट्र के मुद्दे पर हमारे बीच एकता हो और हम मिलजुल कर काम कर सकें। यह देखते हुए भी कि संसदीय लोकतंत्र स्वयं अनेक विकृतियों का शिकार हो गया है कोई यह भी कहने का साहस नहीं करता कि लोकतांत्रिक ढांचे में भी अनुभव के अनुसार सुधार या बदलाव की आवश्यकता है।

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