पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु के सभी अवतारों में श्री राम एवं श्री कृष्ण ही ऐसे दो अवतार हुए हैं जिनका भारतीय हिंदू समाज में सबसे अधिक अनुसरण किया जाता है। एक और जहां भगवान श्री राम का अवतार त्रेता युग में हुआ था तो वहीं भगवान श्री कृष्ण का अवतार द्वापर युग में हुआ था। हालांकि इन दोनों ही अवतारों में भगवान विष्णु ने प्रकट होकर धर्म-रक्षण के विभिन्न कार्यों को संपन्न किया था परंतु इन दोनों अवतारों में धर्म-रक्षण के कार्यों को करने की मूलभूत-नीतियों में बहुत बड़ा अंतर था।
त्रेता युग में भगवान श्री राम के द्वारा धर्म-रक्षण के कार्य को धर्म की मर्यादाओं में रहकर किया गया था इसीलिए भगवान विष्णु के सभी अवतारों में भगवान श्री राम के अवतार को बेहद मर्यादित अवतार मानते हुए उनको ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा जाता है। चूंकि काल प्रवाह के अधिक कलियुगोन्मुखी हो जाने के कारण त्रेता युग की अपेक्षा द्वापर युग में अधर्म का स्तर और अधिक प्रदूषित हो चुका था, इस कारणवश भगवान श्री कृष्ण के द्वारा धर्म-रक्षण के कार्यों को धर्म की मर्यादा में रहकर किया जाना संभव ही न था। अतः भगवान श्री कृष्ण ने धर्म-रक्षण के कार्यों को क्रियान्वयन की डोली चढ़ाने के लिए किसी भी प्रकार की मर्यादा-नीति का पालन करना उचित न समझा एवं इसके लिए उन्हें जो भी अभीष्ट मार्ग दृष्टिगोचर हुए, उन्होंने उनको अपनाने में क्षण-भर का भी विलंब नहीं किया।
जरासंध, भीष्म, द्रोण, जयद्रथ, बर्बरीक, कर्ण, दुर्योधन- श्री कृष्ण के संकेत पर इन सब का अंत भले ही अनुचित माध्यमों का अनुसरण करके किया गया था परंतु इन सबके अंत के परिणामस्वरूप निर्णायक विजय धर्म के पक्ष में ही आकर खड़ी हुई। यही बात यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि भगवान श्री कृष्ण की धर्म-रक्षण की नीति प्रकियान्मुखी न होकर सदैव परिणामोन्मुखी रही। एक ओर जहां भगवान श्री राम ने धर्म-रक्षण के कार्यों के क्रियान्वयन को धर्म-मार्ग से ही सुनिश्चित किए जाने की शिक्षा दी वहीं इसके उलट भगवान श्री कृष्ण ने यह सिखाया कि रक्षा तो सदैव धर्म की ही की जानी चाहिए भले ही उसका मार्ग कोई भी हो।
चाणक्य नीति, इज़रायली नीति सहित आज विश्व में जितनी भी कूटनीतियां कार्य कर रही हैं, वे सभी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उपरोक्त वर्णित ‘कृष्ण-नीति’ का ही विस्तारित रूप हैं। महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण के मुख से उद्घाटित दिव्य गीता-सार जिसे कि भारतीय-साहित्य में ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के नाम से संदर्भित किया गया है, वैश्विक कूटनीति के सिद्धांतों का ‘मातृ-ग्रंथ’ है।