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अतिवादी शिक्षा पर लगे अंकुश

अतिवादी शिक्षा पर लगे अंकुश

by प्रमोद भार्गव
in अगस्त २०२२, शिक्षा, सामाजिक
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बंटवारे के समय करोड़ों मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए क्योंकि उनकी गर्भनाल यहां से जुड़ी हुई थी। राष्ट्र के विकास और रक्षा के लिए भी हमेशा तत्पर रहे परंतु संविधान में सेक्युलर शब्द जोड़ दिए जाने और सरकारों द्वारा प्रश्रय पाने के बाद कठमुल्लाओं ने लोगों को भड़काना शुरू किया और मुख्यधारा से काटकर रख दिया।

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्रशेखर आजाद की जन्मस्थली भाबरा (जिला झाबुआ) में भटके कश्मीरी युवाओं को नसीहत देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘मुट्टीभर लोग कश्मीर की परम्परा को ठेस पहुंचा रहे हैं। वे युवा जिनके हाथ में लैपटॉप, किताब और क्रिकेट का बल्ला होना चाहिए था, उनके हाथ में अपने ही देश के सैनिकों पर हमला बोलने के लिए पत्थर थमाए जा रहे हैं।’ पत्थर थमाए जाने से प्रधानमंत्री का स्पष्ट आशय था कि उन्हें गलत जानकारी देकर सैनिकों पर हमले के लिए उकसाया जा रहा है। मासूमों को उकसाने का यह काम कौन कर रहा है, इसे केरल के राज्यपाल और इस्लाम के गम्भीर जानकार आरिफ मोहम्मद खान ने मदरसा शिक्षा को कठघरे में खड़ा करके किया है।

उदयपुर के दर्जी कन्हैयालाल की नृशंस हत्या के बाद आरिफ मोहम्मद खान ने कहा कि ‘धर्म हत्या की शिक्षा नहीं देता, लेकिन मदरसों में छात्रों को ईशनिंदा करने वालों का सिर कलम करना पढ़ाया जा रहा है। इसे खुदा का कानून बताया जा रहा है। इससे बच्चे प्रभावित होते हैं और दी गई शिक्षा के मुताबिक व्यवहार करने लगते हैं। अतएव इस बीमारी से निपटने का प्रयास होना चाहिए, क्योंकि जब कोई चीज धर्म और आस्था से जोड़ दी जाती है तो उस पर लोग तुरंत यकीन कर लेते हैं।’ अब इस उन्माद से जुड़ी आतिवादी शिक्षा में बदलाव कैसे आए, इस लक्ष्यपूर्ति के लिए अभिभावकों को सामने आना होगा। जिससे उनके लाड़ले गलत दिशा में जाने से बचें और राष्ट्र की प्रगति व समरसता में महती योगदान का आधार बनें। यह जिम्मेदारी संभालना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि उदयपुर की घटना के पहले इसी किस्म की एक घटना को अंजाम अमरावती के उमेश कोल्हे की हत्या करके दिया गया गया था। इसलिए अब बड़ी संख्या में मुस्लिम समाज के प्रतिष्ठित समाजसेवी और बौद्धिकों को खुले रूप में ऐसी घटनाओं की कड़ी निंदा करते हुए हिंदुओं के साथ बैठकें आयोजित कर समरसता के उपाय करने की जरूरत है। हालांकि कुछ बुद्धिजीवी आगे आ रहे हैं। लेकिन जो कुटिल वामपंथी बौद्धिक हैं, वे आज भी कथित धर्मनिरपेक्षता के बहाने मुस्लिम युवाओं को रूढ़िवादी बनाए रखने के लिए अप्रासंगिक हो चुके आचरण पर कुंडली मारकर बैठे हैं।

1947 में बंटवारे के समय लाखों मुस्लिमों ने भारत छोड़ने से इसलिए इनकार कर दिया था, क्योंकि वे जानते थे कि उनकी नाभि-नाल इसी धरती में ग़ड़ी है। अर्थात आक्रांताओं ने उन्हें तलवार के बूते मतांतरित करके मुस्लिम बनाया है। नतीजतन करोड़ों मुस्लिम यहीं रह गए। उन्होंने देश की नागरिकता को गरिमापूर्ण बनाए रखने की दृष्टि से आत्म-बलिदान भी किए और आजीवन दायित्व बोध से जुड़े रहे। अब्दुल हमीद का बलिदान ऐसे वीरों में शामिल है। उन्होंने 1965 में पाकिस्तान से हुए युद्ध में पाक के अनेक टैंक नष्ट करने में आश्चर्यजनक वीरता प्रदर्शित की थी। इस साहसिक कार्य को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए देश ने उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया था। विज्ञान के क्षेत्र में राष्ट्रपति रहे एपीजे अब्दुल कलाम के योगदान को समूचा देश नमन करता है। अग्नि मिसाइल का आविष्कार उन्होंने उन कठिन परिस्थितियों में किया था, जब रूस ने हमें क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक देने से मना कर दिया था। कलाम ने इस तकनीक को देशज संसाधनों से विकसित करने में अपनी मेधा लगाई और सफलता पाई।

लेकिन कालांतर में ऐसा क्या हुआ कि समरसता के सर्वनाश के लिए कश्मीर की मनोरम घटियों में खून की इबारतें लिखी जाने लगीं और इन रक्त-रंजित लकीरों की लम्बाई अब घाटी से नीचे उतरकर महाराष्ट्र और राजस्थान की धरा तक बहती चली आई है। हिंसा का पाठ पढ़कर निकले चंद लोग कानून को अपने हाथ में लेने लग गए। किसी को अपराधी घोषित करने के स्वयंभू अधिकारी बन बैठे और फिर आगे बढ़कर उनके सिर भी कलम करने लगे। मानवता की हत्या का यह विचार कहां से पनपा? दर्जी कन्हैयालाल की हत्या के बाद हत्यारों का जो बयान आया, वह सभ्य समाज को झकझोरने वाला है। अतएव इस परिप्रेक्ष्य में उस समुदाय विशेष को आत्ममंथन करने की आवश्यकता हैं, जिस समाज से यह उन्माद फूट रहा है। यह प्रश्न इसलिए खड़ा होता है, क्योंकि अंततः आतंकवाद उसी शिक्षा और भाव का संगठित हिंसक रूप है, जो मदरसा शिक्षा से बाहर आ रहा है और आरिफ मोहम्मद खान जैसे इस्लाम के विद्वान ने जिसे चिन्हित किया है।

यह संगठित रूप उन्मादी कट्टर एकरूपता में इसलिए बदला, क्योंकि इसे देश की आजादी के बाद से ही कई स्तरों पर सोचने के लिए खाद-पानी दिए जाने का सिलसिला जारी रहा। अतएव कांग्रेस कथित धर्मनिरपेक्ष दल के बहाने मुस्लिम वोट बैंक को स्थायी वोट बैंक में बदलने के लिए अधिकतम तुष्टीकरण के उपाय करती रही। आपातकाल में जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लगा कि जनसंख्या नियंत्रण के कठोर उपाय नसबंदी के चलते मुस्लिम समुदाय कांग्रेस से बिदक सकता है। तब इस एकतंत्री हुकूमत में कांग्रेस 1976 में संसद में संविधान संशोधन के लिए बयालीसवां संशोधन विधेयक लाई और संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ दिया गया। अंग्रेजी के ‘सेक्युलर’ शब्द का अनुवाद ‘धर्मनिरपेक्ष’ माना गया। जबकि 26 नवबंर 1949 को जो संविधान तैयार हुआ था, उसमें ये दोनों ही शब्द नहीं थे। मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए कालांतर में यह शब्द एक ऐसा हथियार बन गया कि मुस्लिम इस बहाने कट्टर धर्मिकता में जकड़ते चले गए।

इस धार्मिक कट्टरता को आचरण का स्थायी हिस्सा बनाए रखने का काम वे बुद्धिजीवी और बौद्धिक संगठन भी करते हैं, जो वामपंथी रुझान के हैं। इनमें लेखक, पत्रकार और स्वयंसेवी संगठनों के कार्यकर्ता शामिल हैं। इन्हें अर्बन एक्टिविस्ट या इंटेलेक्चुअल भी कहा जाता है। इनके हित पोषण संस्थागत रूप में जेएनयू, एएमयू, जामिया-मिलिया और विवि अनुदान आयोग ने तो किए ही, रूस से आयातित वाम वैचारिकता ने भी किए। इसी का परिणाम रहा कि इस बौद्धिकता ने भारत के भक्तिकालीन कवियों और राष्ट्रवादी साहित्यिक धारा को प्रतिक्रियावादी घोषित किया और स्वयं लेनिन, मार्क्स और स्तालिन के मरे हुए विचार की अर्थी ढोने में गौरवान्वित होने का अनुभव करते रहे। नक्सली हिंसा को प्रोत्साहित करने का काम तो यह वैचारिकता करती है, लेकिन इसमें तब्लीगी जमात और जाकिर नाइक के सनातन धर्म विरोधी कथित उपदेशों की खिलाफत करने का साहस कहीं दिखाई नहीं देता है। इस धारा को आगे ले जाने वाले वे कट्टरपंथी भी हैं, जो अतिवादी घटनाओं में शामिल रहते हुए आरोपी बने और फिर दोषमुक्त हुए या दोषी ठहराए गए। कश्मीर में तो ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है। यासिन मलिक इसी दर्जे का बड़ा अपराधी है। फिलहाल तो वह तिहाड़ जेल में है, लेकिन एक समय अनेक प्राथमिकियां दर्ज होने के बावजूद वह कश्मीरी युवाओं के हाथ में पत्थर थमाता रहा है।

हाल ही में ‘बुकिंग सेंटर फॉर मिडिल ईस्ट पॉलिसी’ ने खुलासा किया है कि ट्विटर पर इस्लामिक स्टेट के 70 हजार सक्रिय खाते हैं और इन सब के एक-एक हजार अनुयायी हैं। अतएव करीब सात करोड़ ऐसे लोग हैं जो आईएस से जुड़े रहकर वैश्विक सोशल मीडिया आतंक फैलाने का काम कर रहे हैं। भाजपा विरोधी ऐसे टूलकिट एक्टिविस्टों और पत्रकारों का अनेक बार खुलासा हो चुका है। नूपुर शर्मा के बयान से उपजे विवाद के परिप्रेक्ष्य में ही पत्रकार मोहम्मद जुबैर को दिल्ली पुलिस ने हिरासत में लिया है। इसने ऑल्ट न्यूज के माध्यम से सोशल मीडिया पर धार्मिक भावनाएं भड़काने और साम्प्रदायिक अशांति फैलाने का काम किया।

अतएव भारत साम्प्रदायिक सद्भाव से परिपूर्ण देश बना रहे तो इसका विकल्प यही है कि रूढ़िवादी मदरसा शिक्षाओं से बालकों को दूर रखा जाए। उन्हें विज्ञान और तकनीक की शिक्षा दी जाए, क्योंकि आज जो भी खुशहाली देखने में आ रही है उसका बुनियादी आधार विज्ञान है। समाजों को समरस बनाने के समाधान इसी शिक्षा में अंतर्निहित हैं। मुस्लिम बुद्धिजीवियों को सोचने की जरूरत है कि संविधान सम्मत जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में वे जी रहे हैं, उस स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उन्हें ही अपनी धार्मिक व शैक्षिक जड़ताओं और सामाजिक कुरीतियों से मुक्त होने की जरूरत है। जिससे उदार चिंतक सामने आएं और मुस्लिम बुद्धिजीवियों को जिस संदिग्ध दृष्टि से आम भारतीय देखने लगा है, दृष्टि की वह संदिग्धता खत्म हो।

 

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