बाढ़ बन सकती है वरदान

नदियों को जोड़ने की बात स्वतंत्रता के बाद से ही हो रही है पर देश के ज्यादातर पर्यावरणविद् उससे होने वाली समस्याओं के प्रति भी आगाह करते हैं। इसलिए व्यापक स्तर पर प्राचीन तरीकों से जल संरक्षण किए जाने की आवश्यकता है ताकि बड़े बांधों की वजह से होने वाला नुकसान भी न हो और तालाबों इत्यादि को पुनर्जीवित कर  उनके आसपास हरियाली करके जल संरक्षण किया जा सके।

पानी न हो तो मुसीबत, पानी ज्यादा आ जाए तो भी मुसीबत। असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश (मैदानी क्षेत्र), ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात, पंजाब, राजस्थान, एवं हरियाणा में बार-बार बाढ़ आने और कृषि भूमि तथा बस्तियों एवं जंगलों के डूबने से देश की अर्थव्यवस्था तथा समाज पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बाढ़ न सिर्फ फसलों को बर्बाद करती है, लोगों के जान माल का नुकसान करती है, पालतू पशुओं एवं जंगली जानवरों का जीवन छीनती है, बल्कि आधारभूत संरचना जैसे- सड़कों, रेल मार्गों, पुल और मानव बस्तियों को भी नष्ट करती है। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में कई तरह की बीमारियां, जैसे- हैजा, आंत्रशोथ, हेपेटाईटिस एवं अन्य दूषित जलजनित बीमारियां फैल जाती हैं।

दूसरी ओर बाढ़ के कुछ लाभ भी हैं। हर वर्ष बाढ़ खेतों में उपजाऊ मिट्टी जमा करती है जो फसलों के लिये बहुत लाभदायक है। जमीन में नमी बनाए रखती है, भूजल को रिचार्ज करती है। पहले गांवों में हर वर्ष बाढ़ आती थी, तब लोग घबराते नहीं थे बल्कि सटीक पूर्वानुमान और समुचित तैयारियों के साथ उसके साथ जीते थे। बाढ़ग्रस्त इलाके के घरों में प्राय: छोटी-बड़ी नावें हुआ करती थीं, अधिकतर लोगों को तैरना आता था, समय रहते रसद, ईंधन, चारा, पानी सबकी तैयारी करके रखते थे। दुखद है कि फौरी बाढ़ राहत अभियान के बाद हमने बाढ़ के साथ सहजीविता का परम्परागत पाठ भुला दिया। वर्तमान में जलवायु परिवर्तन के चलते बाढ़ की विभीषिका और बढ़ने लगी है, क्या हमारा समाज और सरकार इसके प्रबंधन के लिए तैयार है? बाढ़ के प्रति नकारात्मक नजरिया बदलना सबसे जरूरी है। साथ ही बाढ़ की रोकथाम की परम्परागत और प्राकृतिक तौर तरीकों को एक बार पुनः आत्मसात करना होगा और पारम्परिक तौर-तरीकों को नवीन  शोध और आविष्कारों से जोड़ना होगा। विदेशों- जापान, थाईलैंड, चीन, हालैंड जैसे देशों में बाढ़ पर नियंत्रण के लिए अपनाई जा रही तकनीकों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए।

बाढ़ को पूरी तरह रोकना असम्भव है और इस पानी की हमें जरूरत भी है, तो हम इस दिशा में क्यों नहीं सोचते कि यह नीला सोना हमें छप्पर फाड़कर मिल गया है तो उसको, संरक्षित क्यों नहीं कर सकते हैं? जिसको बाद में जरूरत के वक्त इस्तेमाल कर सकें। मनुष्य ने प्रकृति की बहुत सी ताकतों को नियंत्रित कर उनको अपने लाभ की तरफ मोड़ा है तो इसे क्यों नहीं? इसके आने के पहले से ही इसे नियंत्रित करने, थामकर सहेजने, इसे अपने लाभ के लिये इस्तेमाल करने के बारे में क्यों नहीं सोचते? वाटर मैनेजमेंट के माध्यम से कम बारिश वाले इलाकों में कृषि कार्य के लिए बाढ़ के पानी का उपयोग किया जा सकता है। जिस प्रकार खाड़ी देश अपने तेल भंडार पर इतराते हैं उसी प्रकार भारत भी समुचित जल प्रबंधन के माध्यम से इस नीले सोने को खाद्यान्न उत्पादन में प्रयुक्त करके विश्व का पेट भर सकता है एवं नीले सोने को वास्तविक सोने में बदल सकता है।

मौसम का आकलन करने वाली निजी संस्था स्काइमेट वेदर के प्रधान मौसम वैज्ञानिक महेश पलावत के अनुसार- ‘जंगल में शहर बस रहे हैं। प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। ग्लोबल वॉर्मिंग का खतरा बढ़ते जा रहा है। इसका असर मौसम पर दिखने लगा है। कहीं बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो जाती है तो कहीं सूखा जैसी स्थिति होती है। पहले जितना पानी चार-पांच दिनों में गिरता था आज कल उतना पानी 24 घंटे में ही गिर जाता है इससे बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। पानी धरती में जा ही नहीं पाता। ऐसे में जरूरी है कि पानी को कहीं डायवर्ट किया जाए। नदियों को जोड़ने से जहां ज्यादा पानी होगा, उसे वहां पहुंचाया जा सकेगा जहां पानी की कमी है।’ वे कहते हैं कि भविष्य में मौसम और ज्यादा बिगड़ेगा, क्योंकि प्रकृति के साथ होने वाला खिलवाड़ लगातार जारी है। ऐसे में अभी जितना पानी 24 घंटे में बरसता है हो सकता है कि उतना 12-15 घंटे में ही बरस जाए। ऐसा होने पर पानी को डायवर्ट नहीं किया गया तो बाढ़ से नुकसान होना पक्का है।

भारत सरकार का भी यही सोचना है कि नदियों को आपस में जोड़कर बाढ़ एवं सूखे की स्थिति पर प्रभावी रूप से नियंत्रण किया जा सकता है, एवं इस दिशा में कार्य करना भी शुरू कर दिया है। मोदी सरकार ने इस प्रोजेक्ट का जिम्मा राष्ट्रीय जल विकास प्राधिकरण को सौंपा है। प्राधिकरण की मॉनिटरिंग का जिम्मा केंद्रीय जल संसाधन मंत्री को सौंपा गया है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद इस परियोजना के लिए 23 सितम्बर 2014 को विशेष समिति गठित की थी।

भारत सरकार के अनुसार नदी जोड़ने के अभियान से निम्नलिखित लाभ हो सकते हैं-

इस परियोजना से सूखे तथा बाढ़ की समस्या से राहत मिल सकती है क्योंकि जरूरत पड़ने पर बाढ़ वाली नदी बेसिन का पानी सूखे वाले नदी बेसिन को दिया जा सकता है। गंगा और ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में हर साल आने वाली बाढ़ से निजात मिल सकता है।

  •  सिंचाई करने वाली भूमि भी तकरीबन 15 फीसदी तक  बढ़ जाएगी।

  •  15,000 किलोमीटर नहरों का और 10,000 किलोमीटर   नौवाहन का विकास होगा जिससे परिवहन लागत में कमी आएगी।

  •  बड़े पैमाने पर वनीकरण होगा और तकरीबन 3000 टूरिस्ट स्पॉट बनेंगे।

  •  इस परियोजना से पीने के पानी की समस्या दूर होगी और आर्थिक रूप से भी समृद्धि आएगी।

  •  इससे ग्रामीण क्षेत्रों के भूमिहीन किसानों को रोजगार भी मिलने की सम्भावना है।

नदी जोड़ो परियोजना के दुष्परिणाम :

  •  नदियां शुरू से हमारे प्रकृति का अभिन्न अंग मानी जाती रहीं हैं, तथा इनमें किसी भी प्रकार का मानव हस्तक्षेप विनाशकारी सिद्ध हो सकता है।

  •  नदी जोड़ो परियोजना को पूरा करने हेतु कई बड़े बांध, नहरें और जलाशय बनाने होंगे जिससे आस पास की भूमि दलदली हो जाएगी और कृषि योग्य नहीं रहेगी। इससे खाद्यान उत्पादन में भी कमी आ सकती है।

  •  कहां से कितना पानी लाना है, किस नहर को स्थानांतरित करना है, इसके लिए पर्याप्त अध्ययन और शोध करना अनिवार्य है। देखा जाए तो 2001 में इस परियोजना की लागत 5 लाख साठ हजार करोड़ आंकी गई थी परन्तु वास्तविक में इससे कहीं ज्यादा होने कि सम्भावना है।

  •  गंगा के पानी को विंध्याचल पर्वत शृंखला के उपर उठाकर कावेरी की और ले जाने में काफी ज्यादा लागत आएगी और इसके लिए बड़े-बड़े पम्पों का इस्तेमाल करना होगा।

  •  लगभग 5 लाख लोगों को विस्थापित करना होगा,

  •  लगभग 79 हजार जंगल भी पानी में डूब जाएंगे।

मशहूर पर्यावरणविद और जल पुरुष के नाम से पहचाने जाने वाले डॉ राजेंद्र सिंह कहते हैं कि ‘नदियों को जोड़ने की बहस तो नेहरू के जमाने से चली आ रही है लेकिन यह अब तक कारगर इसलिए नहीं हुई क्योंकि यह उपयोगी नहीं है। सतलज-यमुना जल विवाद का फेल हो चुका उदाहरण हमारे सामने है। इससे न पानी राजस्थान को मिला और न ही पंजाब को। कावेरी जल विवाद भी आज तक नहीं निपटा। भारत में पानी पर तिहरा अधिकार है। नदियों में बहने वाले जल पर केंद्र सरकार का हक है। राज्य में बरसने वाले जल पर राज्य सरकार का हक है और तीसरा हक नगर निगम, पंचायतों का है। इसलिए नदियों को आपस में जोड़ना लड़ाई कराने जैसा है। पानी से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय कम्पनियां देश को बांटने की साजिश कर रही हैं।’ वे कहते हैं कि ‘नदियों को आपस में जोड़ने से एक बड़ा पर्यावरणीय संकट भी पैदा हो जाएगा। यदि हम नदी के प्राकृतिक प्रवाह के साथ छेड़छाड़ करेंगे तो यह पारिस्थितिकीय आपदा को बुलाने जैसा होगा। भारत को लिंकिंग ऑफ रिवर की जगह लिंकिंग ऑफ हार्ट की जरूरत है। हमें लोगों के दिल और दिमाग को नदियों से जोड़ना होगा। बारिश में बहकर निकल जाने वाले पानी को रोकना होगा। नदियों को जोड़ना सूखा और बाढ़ से निजात नहीं दिला सकता।

गांधीवादी विचारक और पर्यावरणविद चंडीप्रसाद भट्ट कहते हैं कि नदियों को आपस में जोड़ना अंतिम विकल्प होना चाहिए क्योंकि हर नदी का एक पारिस्थितिक तंत्र होता है। ऐसे में नदी के साथ प्रयोग करना, उस पर प्रतिकूल प्रभाव भी डाल सकता है। नदियों का तंत्र करोड़ों वर्षों से है। नदियों से कई जीव-जंतु, स्थानीय लोगों का जीवन-यापन चल रहा है। इसलिए नदियों को जोड़ने से पहले उससे होने वाले आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक बदलावों पर गहन अध्ययन करना चाहिए। वे कहते हैं कि नदियों को जोड़ने के बजाए गांव-शहर में छोटे-छोटे जल संग्रहण के उपाय होना चाहिए। नदी-तालाब के आसपास वनस्पति बढ़ाना चाहिए जिससे बारिश का पानी ठहरे और तबाही न मचा सके। वनस्पति नहीं होने से पानी ठहरता नहीं और तबाही मचाता है। इसी तरह जो पुराने जल संग्रहण के स्थान हैं, उनमें ज्यादा से ज्यादा पुनर्भरण के उपाय होना चाहिए।

नदी एवं पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार, नदियों को जोड़ने के बजाय अन्य छोटे विकल्प अपनाएं तो होगा बाढ़ का प्रबंधन, बढ़ेगा भूजल स्तर। अगर हम देखें तो पुराने समय में शहरों में तालाब हुआ करते थे, जिससे बाढ़ की समस्या का भी हल होता था और बारिश के समय में जो पानी इकट्ठा होता था वह जब सूखा पड़ता था अथवा कम बरसात के दिनों में काम आ जाता था। नदी वैज्ञानिक प्रो. यू.के. चौधरी के अनुसार बाढ़ से बचाव के लिए खेत का पानी खेत में रहे, तेजी से बहकर न जाए इसके लिए खेतों की मे़ड़ को 2 फीट तक ऊंची किए जाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त वर्षा जल संरक्षण को जन आंदोलन बनाना होगा। बड़े पैमाने पर तालाबों, पोखरों का पुनरुद्धार एवं नव निर्माण करना होगा। उनमें अतिरिक्त पानी को भूगर्भ में भेजने के लिए रिचार्ज सॉफ्ट का भी निर्माण कराना होगा। सभी छोटी बड़ी नदियों के फ्लड प्लेन को अतिक्रमण मुक्त करना होगा। नदियों पर बड़े बांधों की अपेक्षा 4 मीटर की ऊंचाई के छोटे-छोटे बांधों की श्रृंखला बनाए जाने की आवश्यकता है। मैदानी सहित पहाड़ी क्षेत्रों में वनीकरण अभियान के साथ-साथ खाल, चाल (रिचार्ज के छोटे गड्ढों) खंती का भी निर्माण करना होगा।

अंत में यह कहा जा सकता है कि भारत जैसे भौगोलिक विविधता वाले देश में रिवर लिंकिंग परियोजना को शुरू करने से पहले केंद्र सरकार एवं शोधकर्ताओं को विचार कर लेना आवश्यक है। यह देश हमारा है, सरकार के साथ-साथ आम जन मानस को भी पानी के महत्व को समझना होगा।

 

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