हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
घुमरी परैया

घुमरी परैया

by डॉ. विद्याबिन्दु सिंह
in कहानी, साहित्य, सितंबर- २०२२
0

महंगू बाहर दरवाजे के हाते में पानी छिड़क रहा है। सोंधी-सोंधी महक मिट्टी की उड़ रही है।

बच्चे चक्कर काटते जा रहे हैं और घुमरी परैया रैया गा रहे हैं-

घुमरी परैया रैया, लाल बिहतुइया। घुमरी परैया रैया।“

अचानक दरवाजा खोलकर खेलावन बाबा बाहर आते हैं। बच्चों के चक्कर और गीत दोनों रुक जाते हैं। कुछ चकरियाये से धरती पर बैठ जाते हैं। धरती गोल-गोल घ्ाूम रही है।

खेलावन बाबा चौकी पर बैठकर सुर्ती मलने लगते हैं। बच्चे धीरे-धीरे खिसकना शुरू हो जाते हैं।

रूपा की अभी धरती गोल-गोल घुम रही है।

घुमरी रुकती है, तो उठकर खड़ी हो जाती है पर पांव डगमगा जाते हैं।

खेलावन बाबा की आवाज सुनाई देती है, “रूपा इधर आ।“

“अरे बाप रे! आज जरूर कान गरम होगा, और तो सब भाग लिए। मैं कह रही थी सबसे कि बाबा के दुवारे न खेलो, दादी की तबियत खराब है। पर सब मानते कहां है? आज लखन मिले तो उसकी खबर लूंगी, उसी ने कहा था, “बाबा वैद जी के यहां गये हैं।“

रूपा सहमी-सी बाबा के पास जाकर खड़ी हो गयी।

आशा के विपरीत बाबा ने तख्त पर बैठा लिया- “ज्यादा घुमरी आ गयी क्या रूपी?“

आज कितने दिनों बाद बाबा की वही मिश्री-घ्ाुली बोली सुनी थी, रूपा ने। उसका गला रुंध आया। मन में सोचने लगी, आज काली माई के चौरा पर ज्यादा देर तक मनौती मानूंगी कि दादी ठीक हो जायें।

बाबा ने उसके सिर के बाल सहलाते हुये अपने से सटा लिया तो रूपा को बोलने का साहस हुआ।

“बाबा आप वैद जी के यहां गये थे। क्या कहा उन्होंने। दादी ठीक हो जायेंगी न? “

“बाबा की आंखें भर आई। हां रूपी। तेरी दादी ठीक हो जायेंगी।“

रूपा ने मांफी मांगने के अंदाज में कहा-“बाबा हम लोग कल से यहां शोर नहीं करेंगे। दादी का सिर दु:खता होगा।“

बाबा पूर्ववत् उसके माथे पर हाथ फेरते हुए बोले-“नहीं रे, मैं भी यही समझता था और तभी तुम लोगों को मना करता था, पर जानती है आज तेरी दादी क्या कह रही थी? “

रूपा ने आंखें ऊपर उठायी। रूपा के और साथी भी धीरे-धीरे हाते में जुट आये थे। अब सभी बाबा की चौकी के करीब आ गये थे।

बाबा बोले- “तेरी दादी कह रही थी कि आज कितने दिनों बाद बच्चे दरवाजे पर खेल रहे हैं, मुझे अच्छा लग रहा है। क्या किसी ने मना कर दिया था? जब मैंने बताया कि हां, मैंने ही कहा था कि शोर न होने पाये, इसलिए बच्चों को यहां खेलने से मना कर दिया है, तब वे रुआंसी होकर बोली कि मेरा तो जी बहलता है उनके खेल से।“

बाबा की बात खत्म नहीं हुई तब तक मंहगू आकर बोला-“बाबा, दादी बुला रही हैं, आपको।“

वे कमर पकड़कर उठते हुए बोले- “अच्छा, तुम लोग खेलो, मैं चलता हूं।“

खेलावन बाबा दादी के पास पहुंचे तो वे कमरे में टंगे कैलेंडर में खिलखिलाते बच्चे की ओर देख रही थीं।

बाबा के मुंह से एक सर्द आह निकल पड़ी। एक अदम्य लालसा बीमार पत्नी की कमजोर आंखों में झांक रही थी।

वे बोलीं-“आपने कुछ जलपान नहीं किया, धूप से चलकर आये थे।“

तब तक मंहगू शर्बत का गिलास रख गया था।

बाहर बच्चे फिर खेलने लगे थे। घुमरी परैया खेलते समय जैसे चीजें घ्ाूमती हैं, बाबा के मन में दूसरी परैया घ्ाूम गयी।

तब पार्वती दादी बच्चों की पार्वती चाची थी। पार्वती लक्ष्मी बनकर घर आयी थी। घर में सास नहीं थी। खेलावन बाबा पार्वती के आने पर मां का अभाव भ्ाूल गये। कितना वात्सल्य भरा था पार्वती के हृदय में। उन्हें कभी-कभी लगता कि वह पत्नी कम है, मां अधिक। खेलावन बाबा के लिए ही क्यों, पूरे गांव के लिए उनके मन में एक गहरी ममता थी।

पार्वती की अपनी गोद हरी नहीं हुई। बाल पक चले, चेहरे पर एकाध झुर्रियां दिखने लगीं। खेलावन बाबा के प्रति उनका ममत्व दिन पर दिन गहराता ही गया। यौवन की ढलान पर भी दोनों में इतना मोह-छोह देखकर लोग सिहाते हैं और व्यंग भी करते हैं।

पर इस दम्पति पर उसका कोई असर नहीं पड़ता। उनकी अवस्था याद दिलाने के लिए लोगों ने उन्हें बाबा-दादी कहना शुरू कर दिया था और यह सम्बोधन उनका नाम बन गया था। बच्चे, बूढ़े, जवान अब सभी के वे बाबा-दादी थे।

बाबा की आदत थी, रास्ते में बच्चे आते दिखते तो दोनों हाथ फैलाकर उनकी राह रोक लेते और पकड़ में आने पर खूब कसकर जकड़ लेते। बच्चे उन्हें देखते ही घबड़ाते हुए इधर-उधर भागते पर बाबा की पकड़ में आ ही जाते।

दादी गांव भर के बच्चों के लिए किस्से-कहानी की पिटारी थी। गर्मियों की सांझ में आंगन में चौकी डालकर, जाड़ों में अलाव के किनारे बैठकर कहानी सुनते-सुनते कितने ही बच्चे दादी की जांघ पर, कंधे पर सो जाते और फिर बाबा को उनके घर लाद कर पहुंचाना पड़ता।

बच्चों की मातायें, बाबा-दादी के भरोसे रजाई, कथरी सिल लेती, अचार-बड़ियां डालती, पापड़ बेलती, मौनी-डलिया, बेनिया (पंखी) बनातीं। दादी लरिकोहरी (बच्चे वाली) सी बनी रहतीं।

गांव की बहुएं और बहुओं की सासें तेल-उबटन की कटोरी और पुराने कपड़े में शिशुओं को लपेट कर दादी की गोद में डाल जातीं। दादी उन्हें तेल उबटन, काजल लगाकर रोने से चुप कराने के लिए अपनी छाती से लगा लेतीं तो उन्हें लगता कि कोई सोता फूटकर भीतर ही भीतर बह रहा है, बाहर आने की राह नहीं।

बच्चे अपनी मां के हाथ से मोहनभोग भी न खायें, दादी के हाथ से सूखी रोटी भी कहानी की हुंकारी के साथ घ्ाुटक जाते।

सब कुछ इसी तरह चल रहा था पर अचानक एक दिन दादी के मायके से चिट्टी आई, उनके चचेरे भाई की। लिखा था- दीदी! ताई जी (दादी की मां) को समझा दो आकर। आखिर में तो सारी सम्पत्ति हमारी होगी ही, आपको दे भी देंगी तो आपके कौन है जो उसको भोगेगा बेकार का वैमनस्य ही तो बढ़ेगा। हमें लिख देंगी, तो आपका भी मायका बना रहेगा। तीज-त्योहार पर हम आपका ध्यान रखेंगे। हमें पूरा विश्वास है कि हमारी बात मानकर आप ताई जी को समझाने जरूर आयेंगी।

पार्वती दादी तुंरत नहीं जा सकी। उन्होंने यहां से मां को समझाने के लिए पत्र लिखा कि अपना ध्यान रखना मैं जल्दी ही आऊंगी। पर हफ्ते भर भी नहीं बीते कि वहां से नाई आया, यह समाचार लेकर कि मां चल बसी।

रोती झलकती हुई पार्वती मायके पहुंची तो वहां तरह-तरह की बातें सुनने की मिलीं गांव वालों से,- “अरी पारो! तेरी मां कहती थी कि जीते-जी मैं किसी की मोहताज बनकर नहीं रहूंगी, जायदाद मेरे मरने पर जो चाहे ले ले। पर तेरे चचेरे भाई रोज पीछे पड़े रहते थे। एक दिन रात में चारपाई के नीचे लोटे के पानी में जाने कौन क्या डाल गया, बुढ़िया के लिए वही पानी जहर हो गया। सबेरा होते-होते कै-दस्त से बेहाल, बोलना मुश्किल था। वैद जी ने पूछा, क्या खाया था तो बोली-कल एकादशी थी, एक केला खाया था। रात में पानी पिया तो स्वाद कड़वा था, सोचा व्रत के कारण मुंह का स्वाद बिगड़ा है, पी गयी। मरते वक्त एक ही बात जबान पर थी, ‘मेरी पारो को बुला दो।‘

जब तक नाई बुलाकर लाया गया, वह दम तोड़ गयीं।“

कई लोगों ने तो यह भी बताया कि मरी हुई मां के अंगूठे में स्याही लगी थी। पार्वती के पहुंचने तक दाह-संस्कार भी हो चुका था।

पार्वती मां का क्रिया-कर्म करके लौटी तब से चारपायी से लग गयी। बाबा भी गुमसुम से हो गये।

वैद जी ने बाबा से धीरे से कहा, “इन्हें तपेदिक हो गया है।“

बच्चों की हिम्मत न होती उनके दरवाजे पर आने की। पड़ोस की स्त्रियों ने अपने बच्चे भेजना बंद कर दिया।

रूपा ने वैद्य जी का कहना सुन लिया था। वह दादी से ही जाकर बोली- “दादी! तपेदिक क्या होता है।“

दादी ने पूछा- “कहां सुना तूने?“

वेद जी, बाबा से कह रहे थे, “तुम्हें तपेदिक हो गया है।“

सुनकर दादी की आंखों में शून्य झूल गया। मेरी तो सेवा ये कर रहे हैं, मेरे बाद इनका कौन होगा? कहीं जायदाद के लिए इनकी भी वह गत न हो जो मां की हुई। नहीं, नहीं, भगवान! मैंने क्या पाप किया था, जो ऐसी सजा भोग रही हूं।

बाबा उदास मन भीतर आये। दादी का अपने आप से कहा गया वाक्य उनके कानों में पड़ा। ढांढ़स देते हुए बैठ गये। वे नहीं चाहते थे कि बीमारी की बात उन्हें पता लगे। वैद जी ने यही हिदायत दी थी। रूपा से उन्हें बीमारी की बात मालूम हो गयी, यह जानकर उनके हाथ के तोते उड़ गये। वे अप्रत्याषित आक्रोष से भर उठे।

बाहर जाकर रूपा की कनपटी पर  थप्पड़ जड़ते हुए बोले-“ खबरदार आज के बाद कोई बच्चा मेरे दरवाजे पर दिखा तो टांगे तोड़ दूंगा।“ और उसी दिन से बच्चों का आना एकदम बंद हो गया था।

पार्वती को यह सब जानकर पीड़ा पहुंची। पर दूर तक उन्होंने सोचा तो लगा यही हितकर है उन बच्चों के लिए भी वरना वे मेरे पास आये बगैर मानते नहीं। उस समय तपेदिक असाध्य रोग माना जाता था। बीमारी का नाम सुनते ही रोगी और उसके परिजनों का मन निराशा से भर उठता था।

आज जब “घुमरी परैया रैया“ की आवाज कानों में गूंजी तो अपना बचपन दादी की आंखो में घ्ाूम गया, उन्हें लगा कि फ्राक पहने हुए घ्ाूम रही हैं, धरती, पेड़, साथी, चारपायी सभी कुछ घ्ाूम रहे हैं। एकांत में यह अनुभ्ाूति आंखे मूूंदें बड़ी सुखद लगी। बाबा समझे कि वह सो गयी हैं। उठकर बाहर चले गये थे। महंगू के बुलाने पर फिर भीतर आये तो पत्नी के चेहरे पर विचित्र भाव दिखा।

कैलेंडर से आंखें हटाकर जब वे पति की ओर वात्सल्य भरी निगाहों से देख रही थी, शरबत का गिलास नीचे रखकर बाबा ने उनका हाथ थाम लिया था, उसे सहलाते हुए वे बोलीं- “सुनो तुम क्या इस गांव में एक स्कूल नहीं बनवा सकते? जिसमें खूब बड़ा मैदान हो, वहां बच्चे खूब खेलें। अपनी सारी जायदाद उस स्कूल के नाम मेरे रहते ही लिख दो।“

बाबा ने पत्नी की आंखों में झांकते हुए कहा-“कौन कहता है, तुम मां नहीं बनी।“ पार्वती ने आंखें बन्द कर लीं। कोठरी, कोठरी की दीवारें, तस्वीरें सब फिर घ्ाूमने लगी थी। बाहर से रूपा की आवाज आ रही थी।

“घुमरी परैया रैया लाल बिहतुइया“।

दादी की आंखों में एक बड़ा-सा स्कूल, उसकी खिड़कियां, दरवाजे, स्कूल की क्यारी, मैदान में प्रार्थना करने के लिए पंक्तिबद्ध खड़े बच्चे, लाल फ्राक पहने धुमरी परैया खेलती ढेर सारी लड़कियां घ्ाूमने लगी थीं। और फिर अचानक उन्हीं लड़कियों में एक छोटी पारो भी शामिल हो जाती है। लाल फ्राक पहने, लाल रिबन बांधे। दूर से मां जाती हुई दिखती है, पारो को बुलाती हुई।

पारो घ्ाूम रही है, मां की बुलाहट पर हंसती हुई, “घुमरी परैया, रैया घुमरी परैया रैया।“

 

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp

डॉ. विद्याबिन्दु सिंह

Next Post
प्रचारक परिवार के रत्न अरविन्द कृष्णराव चौथाइवाले

प्रचारक परिवार के रत्न अरविन्द कृष्णराव चौथाइवाले

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0