स्पेन के धर्मयुद्ध हमारी प्रेरणा क्यों नहीं बने ?

इस्लामिक शासन से सात सौ वर्षों के बाद ईसाई धर्मयोद्धाओं द्वारा स्पेन की आजादी भीषण धर्मयुद्धों का परिणाम थी.  70% स्पेन 20 पीढ़ियों से धर्मपरिवर्तित हो चुका था. जब विजय हुई तब तीन माह में, जी हां तीन माह में सब के सब की घरवापसी हो गयी. और हमारी ओर ? हमने क्या किया ? हम मुख्यभूमि से तो गांधार मद्र को उनके दो सौ साल चले संघर्ष में साथ देने भी नहीं गये … और घरवापसी ? जब हम विजयी ही नहीं हुए तो किसे वापस लाते ? हम दोनों देशों पर विधर्मी आक्रमणों का दौर सन् 712 ई. से ही प्रारंभ होता है.
       ‘ अहिंसक बने रह कर जब हम हिंसा का मुकाबला करेंगे तो आक्रांता विधर्मियों का ह्रदय हमारे रक्त को देख कर परिवर्तित हो जाएगा.’ कुछ ऐसा ही गांधी जी कहते सुने गये थे. गांधी जी को हमारे देश के रक्तप्लावित इतिहास का जैसे ज्ञान ही नहीं था. हमारा बहुत खून बहा पर किसी औरंगजेब का कोई ह्रदय नहीं बदला. गांधीजी 20 साल अफ्रीका में रह कर आये थे, भारत का प्राचीन इतिहास भला क्या जानते होंगे. लेकिन वे अहिंसा की नीति के तहत हमें हमारी आत्मरक्षा की स्वाभाविक प्रकृतिप्रदत्त वृत्ति के विरुद्ध जाकर अज्ञानी भेड़ों की तरह शत्रुओं के हाथों कट जाने के लिए प्रेरित कर रहे थे. उन्हें तो यह ज्ञान भी नहीं था कि विधर्मियों की व्यवस्था में वहां तो हमें घेर कर वध करने, हमारी औरतों को लूट का माल बना लेने व शेष समाज को गुलाम बनाने निर्देश बहुत पहले से दिया जा चुका था. वे स्वामी श्रद्धानंद व महाशय राजपाल के हत्यारों को अपना भाई बता रहे थे. जबकि उनकी हत्याओं के कारण वे स्वयं थे. जब उनसे कहा गया कि हमारा नीच से नीच व्यक्ति भी हमारे मजहबी ऐतबार से मिस्टर गांधी आप से बेहतर है, तो भी गांधी की आंखें नहीं खुलीं. वे हिंदुस्तानी मेले में चल पड़ी व प्राफिट दे रही अहिंसा की अपनी इस नयी दुकान को अब बंद भी नहीं करना चाहते थे. उनका अहिंसक असहयोग आंदोलन तो भारतीयों को अकर्मण्य भागीदारी के लिए एक आमंत्रण जैसा था.
          मैं जब स्पेन के धर्मयोद्धाओं उनके संघर्ष और विजय का हवाला देता हूं तो यह  दरअसल गांधार से अब तक भागते आ रहे अपने लोगों को भागने से रोकने और शत्रुओं की ओर पलट कर उनपर प्रत्याक्रमण करने की कोशिश है. आप यह मान लें कि मैं अपने चारों ओर राष्ट्रशत्रुओं के विरुद्ध युद्ध की ललकार, उनका हाहाकार सुनना चाह रहा हूं. जब मैं सेना में था मेरे पास बंदूक थी, तोपें थीं तब युद्ध ही नहीं हुआ. अब जब युद्ध का नाद सुनाई दे रहा है तो मेरे पास मेरे हाथ में सिर्फ कलम ही रह गयी है. उसकी जो भी क्षमता है वह इस यु्द्ध को समर्पित है. युद्ध, गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजादी का प्रकाश ले आता है. स्पेन 700 साल से विधर्मियों का गुलाम था और हम 800 साल रहे. जैसा कि ऊपर कहा है, दोनों देशों की गुलामी का दौर 711 ई. से ही प्रारंभ होता है. पंद्रह लाख से कम आक्रांताओं ने हमारे 350 वर्ष के संघर्ष के बाद 18 करोड़ के इस देश को अंततः गुलाम बना लिया, हम मरे, कटे, विद्रोह करते रहे पर समर्थ नेतृत्व के अभाव में विधर्मियों का नाश कर आजाद न हो सके. यह बात हमें शर्मसार करती है..
     सात सौ साल की गुलामी में स्पेन के ईसाई भी लगातार विद्रोह करते रहे, मरते रहे, कटते रहे, बलिदान होते रहे. चर्च ने आवाहन दिया, वे धर्मयोद्धा बने. फिर 1492 में वे आजादी की मंजिल तक पहुंच ही गये. उन्होंने गुलामी के एक एक निशान मिटा दिये. न विधर्मियों के धर्मस्थल, न विधर्मी. सब के सब की घर वापसी हो गयी, सब वापस चर्च हो गये.  क्या स्पेन की आजादी हमारे लिए शौर्य का उदाहरण नहीं है ..? क्या इतिहास की किसी किताब ने हमारे स्कूलों में हमें स्पेन की आजादी के इस युद्ध के बारे में कभी बताया ?
  1492 में जब स्पेन आजाद हुआ तब दिल्ली में सिकंदर लोदी का राज था. राजपुताने में राणा रायमल का शासन था. राजनैतिक अस्थिरता के वातावरण में दूर फरगाना में बैठा बाबर भारत के साम्राज्य की कल्पना कर लेता है लेकिन यहीं सरहदों पर बैठे राजस्थान मालवा के राजा यह नहीं सोच पाये. शिलादित्य तोमर ने राणा सांगा से खानवा युद्ध के मैदान में गद्दारी न की होती तो आज भारत का इतिहास ही दूसरी कहानी कहता. फिर पंजाब सिंध की मुक्ति का अभियान चलता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जानते हैं आप 712 से अब तक विधर्मी आक्रांताओं के हाथों कितने हिंदू मारे जा चुके हैं ? विल डूरंट अमेरिकन इतिहासकार की किताब कहती है, 8.5 करोड़.! दूसरा आकलन 10 करोड़ से ऊपर जाता है. इतना वध हुआ था कि देश की आबादी कम हो गयी थी. इतनी मौतों के बाद भी देश के योद्धाओं, धर्माधिकारियों में एक होकर विधर्मियों को खदेड़ने की सोच नहीं विकसित हुई. कोई नाम भी नहीं जानता कि उन कठिन काल में हमारे धर्मगुरू शंकराचार्यगण, अखाड़ों के महंतगण भला कौन रहे होंगे ? आदिशंकराचार्य से अधिक धर्म विस्तार व धर्मरक्षा के लिए भला कौन सजग था ? उन्होंने ही तो भारतपर्यंत चार शंकराचार्य पीठों व अखाड़ों के रूप में धर्मरक्षक सेनाओं की स्थापना की थी. सब कहां विलीन हो गये ? किसी ने बख्तियार खिलजी जैसे आततायी का रास्ता रोकने का भी प्रयास नहीं किया. सनातन हिंदू धर्मरक्षा के एकमात्र प्रतीक, वह भी बहुत बाद में दशम गुरू गुरु गोविंद सिंह जी बने. उन्हीं का ही संदेश देश भर में प्रसारित हो जाता तो आयतित धर्मों का नाश हो जाता. लेकिन आदिशंकर की रक्षक प्रेरणा किन षड़यंत्रों के कारण ऐतिहासिक परिदृश्य से ओझल हो गयी, यह अपने में ही गहन शोध का विषय है. लेकिन परिणाम यह है कि  इसी विश्व में एक जगह धर्म प्रतिरोध में उठ खड़ा होता है, प्रेरणा देता है, सेनाएं जोड़ता है और इसके विपरीत अपने यहां कोई धर्माधिकारियों के नाम तक नहीं जानता !
 यहां विधर्मी आक्रांताओं के विरुद्ध धर्मयुद्ध की घोषणा क्यों नहीं हो सकी, समझ में नहीं आता. स्पेन में धर्मगुरुओं ने धर्मयुद्ध का आह्वान दिया था और यहां ? धर्मनियंता, धर्मगुरू पूर्णतया परिदृश्य से ही अनुपस्थित हैं. वे कहीं भी देश को विधर्मियों से मुक्त करने का आवाहन करते नहीं देखे जाते. जो लोग पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं वे भला युद्ध से, मरने से डरते  क्यों हैं ? कायरों की मौत नहीं आती है क्या ? अहिंसकों की मौत नहीं आयी क्या ? गांधी का अहिंसावाद क्या विभाजन के दौरान हुई 15 लाख मौतों, लाखों बलात्कारों को रोक सका ?
        कोई शंकराचार्य, कोई राजा उस दौर में देश को अनुप्राणित करता नहीं दिखाई देता. अखाड़ों के श्रीमहंत न जाने कहां थे ? जब कोई नहीं दिखा तो इस धर्मप्राण देश में धर्मगुरू की खाली कुर्सी देख कर ग्रामों नगरों ने अपने स्तरों पर गांव गांव मोर्चे लगाये. देश गुलामी अत्याचार, शोषण, प्रताड़ना का शिकार बना. ऐसा बुरा समय इस देश के हजारों वर्ष के इतिहास में कदाचित कभी आया न था.  यह भी कहा गया कि उस समय देश मजबूर था. युद्ध के लिए तैयार न था. तैयारी ? 1857 की तैयारी हुई थी क्या ? कौन देता है तैयारी का समय ? कौन सा देश है दुनिया का जो पूरी तैयारी से आजादी का युद्ध लड़ सका है…? जब राष्ट्र पर संकटकाल मंडराता है तो सामान्य लोगों में से ही नेतृत्व उभरता है, आम जनता युद्ध करती है. बलिदान होती है. हम 10 करोड़ मारे जा जुके हैं. इतना बड़ा बलिदान विश्व इतिहास में किसी और ने नहीं दिया है हमारे सिवा. और हमें कायरता का पाठ पढ़ाया जा रहा है ? युद्ध भी एक बड़ा सत्य है जो स्थायी समाधान करता है, इसे स्वीकार कीजिए. रेत में सर देने और गांधी जैसे चरित्र की प्रतीक्षा से समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला.  देश की धर्मप्राण जनता ने बीसवीं सदी के प्रारंभ में त्याग की प्रतिमूर्ति बने गांधी जी को नेतृत्व की कमान पकड़ा दी. जब कुछ दिनों बाद उन्होंने लंगोटी पहन ली और एक लाठी भी ले ली तो वे मिस्टर मोहनदास से महात्मा गांधी हो गये.
      गांधी का प्रयोग देश के अंदर समाज की एकता, आंतरिक समरसता का है. अहिंसा के सिद्धांत का उपयोग हमारे अपने लोगों में अपनी एकता, सहयोग की स्थापना के लिए ठीक है. लेकिन गांधी जी ने तो अहिंसा तो अहिंसा, शक्ति का भी प्रयोग रोक दिया. राष्ट्रशक्ति के बगैर देश कैसे बनेगा ? आजादी के बाद अहिंसा का उपयोग देश के मूर्ख राजनीतिज्ञों ने भारत की विदेश व रक्षा नीति को चलाने के लिए भी किया है. परिणामस्वरूप हम नेहरूकाल में 85 हजार वर्ग किमी पाकिस्तान और 38 हजार वर्ग किमी चीन के कब्जे में देकर संतोष किये बैठे हैं.
     आज पहली बार है कि कोई राष्ट्रदृष्टि की, राष्ट्रीय हितों की रक्षक सरकार सत्ता में आयी है. इसका भी आने के साथ ही बड़े बड़े षड़यन्त्रों से मुकाबला चल रहा है. पहली बार ऐसी संभावना बन रही है कि राष्ट्र एवं धर्म में साम्य स्थापित हो जाए. हमारे धर्मनियंतागण ईश्वर करे कि उनमें दायित्वबोध विकसित हो, वे जाग्रत हो जाएं.  सनातन हिंदू समाज में अभी आंतरिक धार्मिक-सामाजिक एकीकरण के बहुत बड़े बड़े कार्य होने हैं. राजनीति तो राष्ट्रवादी नेता मोदीजी के नेतृत्व में अपने लक्ष्यों की ओर उन्मुख है  लेकिन धर्माधिकारीगण ? वे कहां हैं ? वह उच्च स्थान लम्बे समय से रिक्त है. वहां तो राष्ट्रधर्म की हुंकार देने वाला, युद्ध का शंखनाद करने वाला कोई भी नहीं है …!
– कैप्टेन आर. विक्रम सिंह.

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